लेखक : हरिमोहन झा

ओहि दिन सन्ध्याकाल पोखरिक घाटपर लालधोतीक जमघट लागल रहय। गामक नवयुवकवृन्द, जनिक विवाह एहि शुद्धमे भेल छैन्ह, सासुरसॅं विदा भऽ कऽ आएल छथि। रसिक मित्रक गोष्ठी, नव उमंग, एकान्त स्थान, सन्ध्याक समय-एहन ठाम रसक गप्प नहि हो त हो कतय? ओहि मंडलीमे सभ केओ गदहपचीसीक भीतरे छलाह। अतएव गुप्तसॅं गुप्त विषयक आलोचना निर्धोख भऽ कऽ चलि रहल छल।

शोभाकान्त बजलाह-हौ यार! ओना त सासुरमे सभक मानि-दानि होइतहि छैक परन्तु हमरा जेहन होइत छल तेहन किनको नहि भेल हैतैन्ह। ओछाओनपर सुतले रहैत छलहुँ कि भोरे दूध-मिश्री बादाम-किशमिश पहुँचि जाइत छल। हम कहैत छलिऎन्ह- एखन त मुँहो नहि धोएलहुँ अछि। परन्तु के मानैये? माय(सासु) तेहन छोहगरि छथिन्ह जे भरि दिन बुझह त कड़ाहिए चढौने रहैत छलीह। कौखन पिरुकिया, कौखन अनरसा, कौखन खजूर, कौखन पूआ, अपन माय कहियो एना कथी लय करतीह? ओहि ठाम दिनमे दू बेर कऽ ओछाओन बदलल जाइत छल।

रतिकान्त कहलथिन्ह-बुझलियौह। बेसी जमौड़ा जुनि करह। तोरा धनिक सासुर भेटलौह तैं घंटे-घंटे चादर बदलल जाइत छलौह। परन्तु हमरा गरीबे सासुरमे जे आवेश भेटल से बहुतो गोटाकें सिहन्ते रहतैन्ह। हमर विधिकरी अपने हाथसॅं सानि कऽ हमरा मुँहमे खोआ दैत छलीह। वैह स्नान करबैत छलीह। अपना आँचरसॅं माथ पोछि दैत छलीह।

कामेश्वर पुछलथिन्ह-के विधिकरी छथुन्ह? की बयस?

रतिकान्त गर्वपूर्वक उत्तर देलथिन्ह-हमर जेठसारि। वर्ष अठारहम।

कतोक गोटाक मुँहपर ईर्ष्या ओ सन्तापक लहरि दौड़ि गेलैन्ह।

कामेश्वर पुछलथिन्ह-धियोपुता भेल छैन्ह?

रतिकान्त अभिमानपूर्वक कहलथिन्ह-दुर छी! एखन धियापुताक कोन गप्प? बूझह त हमरा हुनकामे कोनो भेद नहि रहै छल। अभेद लागल छल। अहा! चलबाक काल जे समदाउनि गबैत-गबैत हुनका आँखिसॅं नोर झहरय लगलैन्ह ताहिसॅं काजर धोखरि कऽ गालपर टघरि गेलैन्हि। हम चादर लऽ कऽ पोछी देलिऎन्ह। से देखह, एखन धरि दाग लागल अछि।

ओ काजरक दाग दर्शनी हुंडी बनि गेल। शोभाकान्तकें नहि रहि भेलैन्हि। चादर झपटि कऽ छातीमे सटा लेलन्हि। रतिकान्त 'हीरो' जकाँ मुसकुराय लगलाह।

ई देखि कामेश्वर बजलाह-एतेक गजह सुनि। हमरो सरहोजि कम दुलरुआ नहि छथि। एहन विनोदिनी ओ चंचल जे की कहिऔह? कुहुकैत रहैत छलीह। बात-बातमे हास-परिहास! कहियो हमरा जीतय नहि देलन्हि। जहाँ हाथमे पुस्तक देखथि कि छीनी कऽ फेकि देथि। कहियो वाङक पात तरि कऽ देथि। कहियो पानमे भाङक बुकनी दऽ कऽ। कहियो धोतिए चोरा कऽ धऽ राखथि। सदिखन कोनो ने कोनो टोना-बेनी करिते रहथि। जेना एकपिठिया होथि। परन्तु हौ यार! ई सभ लागय नीक। आब सुन्न लगैत अछि। चलबा काल कहलिऎन्ह जे अपन किछु स्मारक दियऽ त पागपर पीक धऽ देलन्हि। ओ सुटकेसमे राखल अछि।

एहि पर तेहन पिहकारी पड़ल जे सौंसे पोखरि गूँजि उठल।

जखन हॅंसीक थोड़ कम भेल तॅं दीर्घनारायण बजलाह-हमरा त सारि-सरहोजिक सुख नहि भेल। सासुरमे सासुक अलावे जे किछु छथि से वैह। परन्तु की कहिऔह? एतबा छोट अवस्थामे एहन सज्ञान लोक नहि देखल। एखन चौदहमे चढलैन्ह अछि, परन्तु ज्ञानमे बूढिक कान कटै छथि। हमरा कहियो ने जानऽ ने सुनऽ से पहिले रातिसॅं हमर सभटा परिचर्या करय लागि गेलीह। नित्य अपना आँचरसॅं हमर पैर पोछि दैत छलीह। जाँतय लगैत छलीह से किन्नहु छोड़ितहि नहि छलीह। हम कहलिऎन्ह -किऎक एतेक हरान होइत छी? त बजलीह-आब त यैह चरण हमर सर्वस्व थिकी। हुनका सेवा नहि करब त ई जन्म कोना सार्थक हैत? हौ यार! की कहिऔह? सीता-सावित्री आदि पतिव्रताक उपाख्यान पढि हुनका तेहन ज्ञान भऽ गेलैन्ह अछि जे ऎखनसॅं हमरा 'प्राणनाथ' कहय लागि गेल छथि। एहन आज्ञाकारिणी स्त्री एहि युगमे भेटब कठिन। चलबाकाल एक रुमाल देलन्हि अछि जाहिमे 'चरणसेविका दासी' कऽ कऽ अपन नाम काढने छथि।

दीर्घनारायणक सौभाग्यपर ककरो विशेष ईर्ष्या नहि भेलैक। केवल एक गोटाक मुँहसॅं फक्क दऽ निसास छुटलैन्ह। ई छलाह सहदेव। हुनक निःश्वास सुनि सभ केओ हुनके दिस साकांक्ष भेंल।

शोभाकान्त कहलथिन्ह-बाह यार! तों त अपन हाल किछु कहबे नहि कैलह। सभ केओ सासुरसॅं मोटा कऽ अबैत अछि। तों और खिया कऽ आएल छह। सासु खाय नहि दैत छलथुन्ह की? पहिनहुसॅं बेसी सनटिटही भऽ गेल छह।

रतिकान्त बजलाह-ई ओतुक्का ध्यानमे मग्न छथि। चुप्पा लोक बेसी भयंकर होइत अछि। ई जेहन कैने हैताह तेहन केओ नहि कैने हैत।

कामेश्वर-हिनक विवाह तॅं नेपाल तराइमे भेल छैन्ह। तेहन-तेहन जर्बदस्त पहाड़ी माउगि ओहिठाम होइत अछि जे एक-एक टा तोपे बूझह। हिनका एक धक्का मारि दैन्ह त उठि कऽ पानिओ पीबाक होश नहि रहैन्ह।

दीर्घनारायण-कहह यार, तों सासुरसॅं कोन चिह्न लायल छह?

परन्तु सहदेवक गंभीरता भंग नहि भेलैन्ह। ओ जेना किछु बजबासॅं शपथ खैने होथि। आब समस्त मंडली हुनकापर लागि पड़लैन्ह। जखन चारू कातसॅं लोक नोचय लगलैन्ह त सहदेव बजलाह-बेश, कहैत छिऔह। परन्तु दू टा शर्तपर। एक त आब लंगोचंगो नहि करैत जाह। दोसर जे ई गप्प कतहु बजिहऽ जुनि।

नवयुवक लोकनिक हृदयमे गुदगुदी लागय लगलैन्ह। बजलाह-तोहरे शपथ खाइ छिऔह जे कतहु बाजी। परन्तु सभटा बात खोलि कऽ कहय पड़तौह। एको रत्ती छपौलह तॅं बूझि जाह।

सहदेव एम्हर-ओम्हर ताकि कहय लगलथिन्ह-हारा तॅं जेना भेल तेना ककरो नहि भेल हैतैक। ओ बात कहबा योग्य तॅं नहि छैक, परन्तु जखन नहि मानैत छह तॅं कहि दैत छियौह। हम तॅं तेहन फेरमे पड़लहुँ जे जाने जाय लागल। परन्तु बुझह तॅं अपने करनीसॅं।

श्रोतागण श्वास रोकि सुनय लगलाह। सहदेव कहय लगलथिन्ह-हम प्रथम रात्रिमे हुनका स्त्रीधर्मक उपदेश देबक हेतु 'स्पीच' तैयार कऽ कऽ लऽ गेल रही। भावार्थ ई जे अबलाके सबला बनक चाही, जाहिसॅं केओ बलात्कार नहि कय सकय। सतीत्व-रक्षामे समर्थ हैबाक चाही। झाँसीक रानी लक्ष्मीबाई जकाँ पराक्रमशालिनी होइ, जाहिसॅं आक्रमणकारीक दर्प चूर्ण भऽ जाइक। इत्यादि।

व्याख्यान पहिनहिसॅं रटल छल। अतएव एके सुरमे कहि गेलिऎन्ह। जखन हुनका सभटा सुनल भऽ गेलैन्ह त मुसुकिया कऽ बजलीह-एतबे रटल अछि कि और किछु? हौ यार! ई सुनितहि हमरा ऊपर नौ मन पानि पड़ि गेल। एके वाक्य मे पस्त कऽ देलक। हम देखल जे ई पहिले पासा उनटा जा रहल अछि। जौं प्रथमे बोहनि गड़बड़ा गेल त भरि जन्म गड़बड़ाएले रहत। तैं डपटि कऽ कहलिऎक-रटल किऎक रहत? ई सभ बात हम अपना अनुभवसॅं कहलहुँ अछि।

ओहो तड़ दऽ छुटैत जबाब देलक-अहाँक अपन अनुभव किछु नहि अछि। केवल पोथीक बात रटने छी।

बात त यथार्थ, किन्तु ओकरासॅं हारि कोना मानितहुँ? हम अपना पौरुष देखबैत कहलिऎक-अहाँ लोकनि अबला होइ छी। पुरूष जे चाहय से कय सकैत अछि।

हम मनमे विचारल-जौं दाम्पत्य जीवनक आदिएमे हम परास्त भऽ जाएब तॅं पाछाँ कऽ ई स्त्री हमरा की गोदानति? ऎखन एकरा तेना कऽ साधक चाही जे बराबरी सरि भेलि रहय। अतएव हम रोब जमबैत कहलिऎक-अहाँके पुरुषसॅं भेट नहि भेल अछि। ऎखन जे चाही से कय सकैत छी। मानि लियऽ हम परपुरुष छी, अहाँ अपनाकें बचा सकैत छी?

परन्तु ओहो तेहने अखड़ियल। तुरन्त डटि गेल। बाजलि-अहाँ बुते हमर किच्छु नहि भऽ सकैत अछि। कऽ कऽ देखि लियऽ।

स्त्रीक मुँहसॅं एहन शब्द सुनितहि हमर समस्त पौरुष जागि उठल। हम कहलिएके-बेश तॅं तैयार भऽ जाउ। हम देखै छी जे अहाँ कोना ठठैत छी। ओहो अड़ि गेल। बाजलि- बेश, तॅं सेहो परीक्षा भइए जाय।

ई कहि ओ तनि कऽ ठाढ भऽ गेलि।

हम अन्तिम चेतावनी दैत कहलिऎक-देखू, हम कोनो दशा बाँकी नहि राखब।

ओहो आँचर कसैत बजलि-तखन हमहूँ किछु उठा नहि राखब, से कहि दैत छी। पाछाँ कऽ हमरा दोष नहि देब।

हौ जी, एहन शनगरि स्त्रीसॅं हमरा भेट नहि छल। हम कि जनैत छलहुँ जे ओ सरिपों अखाड़ा रोपि देत? परन्तु आब जखन एना भऽ कऽ बदाबदी भऽ गेल तखन हम पाछा हटै छी कोना?

हम लपकि कऽ आगाँ बढलहुँ। परन्तु ओ चट लालटॆने मिझा देलक। आब अन्हारमे भेटब मुश्किल। हम देखल जे ई खेलाइलि अछि। पहिले वारमे छका देलक। एहि चतुरासॅं पार पाएब कठिन। परंच आब हारि कऽ बैसि रही सेहो तॅं उचित नहि। जखन रण ठानि देलहुँ त अपन पुरुषार्थक झंडा गाड़ब जरूरी अछि।

हम चारू कात टॊ-टॊ कऽ ओकरा ताकय लगलहुँ। परन्तु जावत एक कोनमे जाइ तावत दोसरा कोनसॅं खिलखिलाहटि! बरीकाल धरि यैह चोरिया-नुकिया चलैत रहल। ओ हमरा खेला खेला कऽ बेदम कऽ देलक। अन्तमे बड़ीकाल धरि सुइया कतार होइत होइत ओ आखिर धरैलीह। हम गसिया कऽ बाँहि धऽ लेल। परन्तु ओ बिजली जकाँ अपन बाँहि छोड़ा कऽ चट दऽ हमर दुनू गट्टा पकड़ि लेलक।

हौ यार, की कहिऔह? स्त्रीक हाथ ओहन सक्कत भऽ सकैत छैक से अनुभव हमरा नहि छल। तेहन जोरसॅं बकबका कऽ धैलक जे हमर दुनू हाथ सकपंज भऽ गेल। आब लाख कोशिश करै छी, हाथ छुटबे नहि करै अछि! और ओ टससॅं मस होमयवाली नहि।

हम बहुत जोर लगाओल। परन्तु हमर पातर गट्टा ओकर सबल मुट्ठीमे तेना कऽ कसा गेल जेना केओ लोहक हथकड़ी पहिरा देने हो। हम घोर प्रयत्न करय लगलहुँ। परन्तु हाथ किन्नहुँ बहारे नहि होय। हम एक बऽर जोर लगाबी त ओ सवा बऽर जोर लगा कऽ दाबि दीअय।

आब की होय? अपना मूर्खतापर पछिताबा होमय लागल। कहासॅं एहि नेपालिन बोकोसॅं भिड़लहुँ? ओकर भरल पुरल कठमस्त देह-मोट-मोट मांसल बाँहिए देखि कऽ हमरा बूझक चाहैत छल जे ई कोमल मुग्धा नहि, जुआएल तरुणी थीक-अवश्ये बेसी बलगरि हैत। परन्तु पहिने त ई विचारल नहि, आँखि मूनि कऽ ताल ठोकि देल। आब जखन ओ अपन जवानीक जोश देखाबय लागि गेलि तखन एम्हर छठिहारक दूध बहराय लागल।

जखन लोककें बेसी भीर पड़ैत छैक तॅं इष्टदेवता स्मरण होइत छथिन्ह। हमहूँ महावीर स्वामीकें गोहारि करय लगलिऎन्ह-हे बजरंगबली! आब सभटा प्रतिष्ठा अहींक हाथमे अछि। कोनहुना भरमा-मर्यादा राखि लियऽ। यदि आइ राति एकरासॅं हारि गेलहुँ तॅं भरि जन्म हारले रहब। हे संकटमोचन ! कोनहुना एहि संकट सॅं उबारि लियऽ । यदि एहि पहाड़ी कन्याक वज्र मुष्टि सॅं छोड़ा देलहुँ तॅं काल्हि अहाँ कें रोट-लड्डु चढाएब।

परन्तु कोनो देवता-पितर काज नहि ऎलाह। ओ पूर्ववत हमर दुहू पहुचा पकरने ठाढि रहल। अन्हारमे मुँह तॅं नहि सुझय परन्तु बूझि पड़य जेना ओ हमर विवशतापर बिहुँसि रहल हो-'आब कहाँ पुरुषार्थ गेल? बड़ आएल छलहुँ हमरापर जोर देखाबय! आब ओ फुफकार की भेल? मर्द छी तॅं हमरा मुट्ठीसॅं अपन हाथ छोड़ लियऽ ।'

हौ यार, हम त लाजे मरय लगलहुँ! ई त वैह परि भेल जे कमरिया साधुकें नहि छोड़य। हमरा विश्वास भऽ गेल जे आइ भरि राति हमर दुनू हाथ एहिना बन्हकी पड़ल रहत और जखन पह फटलापर विधिकरी दाइ एहि वीरांगनाकें बहरैबाक हेतु बाहरसॅं जिंजीर खटखटा कऽ संकेत देमय लगलथिन्ह तखने जा कऽ हमर पौकी छूटत!.... परन्तु एतबा कालमे तॅं सभटा दशा भऽ जाएत।

हम हाथ छोड़ैबाक अन्तिम चेष्ट कैल, परन्तु ओ ततेक जोरसॅं कसि देलक जे हम किकिया उठलहुँ! ई सुनि ओ बक्क दऽ हमर हाथ छोड़ि देलक और भर्त्सनाक स्वरमे बाजलि-'छिः!

हौ जी! हम तॅं कटि कऽ रहि गेलहुँ। जौं पृथ्वी फाटि जाइत तॅं सोझे समा जैतहुँ। आब कोन मुँहसॅं एकरापर शान जमैबैक? परन्तु कर्मलेख प्रबल होइ छैक। जौं एतबहुपर सन्धि कऽ लितहुँ त कुशल छल। परंच एम्हर तॅं और दुर्दशा लिखल छल। तैं तेहने बुद्धि भऽ गेल।

हम हेहर जकाँ पुनः लड़बाक हेतु ताल ठोकि देल। ओहो बाँहि रोपि देलक। हम लपकि कऽ आँचर दिस हाथ बढौलिऎक कि ओ क्रुद्ध सिंहिनी जकाँ तेहन चाट हमरा गालमे लगौलक जे कान झनझना उठल। आँखिक आगाँ अन्हार व्याप्त भऽ गेल। बाप-रे-बाप! ओ चोट एखन धरि नहि बिसरैत अछि।

परन्तु ओकर कोन दोष? ओ त अपन सतीत्व-रक्षा कऽ कऽ देखबैत छलि। सेहो सिनेमा स्टाइलसॅं।

हम जहाँ पुनः हाथ बढौलिऎक कि गद्द दऽ तेहन मुक्का पीठपर लागल जे हम ठामहि बैसि गेलहुँ।

मूर्खा स्त्री! एतेक जोरसॅं मुक्का लगैबाक कोन प्रयोजन छलैक? हम कि सरिपो बलात्कार करक चाहैत छलिऎक? परन्तु ओ बूँदीक नकली लड़ाइ जकाँ खेलोमे हारि मानयवाली नहि! हरदि चून बजबाइए कऽ छोड़ति।

हम देखल जे जती काल लड़ाइ बाझल रहत तती काल हमही टुट्टीमे रहब। एक बेर तॅं मनमे आएल जे कहि दिऎक-हे वीरांगने! अहाँ परीक्षामे पास भऽ गेलहुँ। आब बेशी बानगी देबाक प्रयोजन नहि। अहाँपर जे चढाइ करत तकरा अहाँ पानि पिया कऽ छोड़बैक, एहिमे हमरा रंचमात्र संदेह नहि रहल।

परन्तु मुँहसॅं एतेक बजबाक साहस नहि भेल। पुरुष भऽ कऽ स्त्रीसॅं पराजय कोना स्वीकार करितहुँ- सेहो अपना स्त्रीसॅं।

हम पुनः ठाढ भय हुनका दिस लपकलहुँ और चोटी पकड़ि कऽ खींचि लेलिऎन्ह।

हौ जी, चोटी पकड़ब छल कि ओ चोटाएल सर्पिणी जकाँ हमरापर छूटलि और तेहन जोरसॅं ठेलि देलक जे हम कय ढुनमुनिया खाइत पाछाँ भरे खसि पड़लहुँ। माथ खट्ट दऽ पलंगक पौआपर बजरल। तदनन्तर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अन्धकारमय। की भेलैक से किछु नहि बुझलिऎक।

श्रीमतीजी रंग कुरंग देखि लगले किल्ली खोलि कऽ घसकि गेलीह।

हमरा मुँहसॅं चीत्कारक शब्द सुनि सारि, सरहोजि, सासु, विधिकरी सभ जागि गेलीह -ऎं! ओझाकें की भेलैन्ह? लालटेन त लेसह।'

थोड़बहिमे स्त्रीगणक झुंड आबि कऽ घेरि लेलक। आँखि खुजला उत्तर देखै छी जे हम पलंगक नीचा चिलमचीपर पड़ल छी। डाँड़मे ओकर कनखा गड़ल अछि और चिलमची उनटलासॅं धोती भीजि गेल अछि। नाक कपार ओ चानि लहुलहान भेल अछि। पलंगपर शोणितक धारा बहि रहल अछि।

हमर ई अवस्था देखि घेओना उठि गेल!

विधिकरी बजलीह-बूझि पड़ै अछि बच्ची लगले बाहर चल ऎलैक और किल्ली ओहिना खुजले छोड़ि देलकैक। एहन संकोच कोन काजक?

सरहोजि नहूँ-नहूँ बजलीह- हम त बड़ी कालसॅं घरमे धपर-धपर सुनैत छलिऎक। जेना पछरा-पछरी होइत होइ। परन्तु जानि बूझि कऽ अंठा देलिऎक जे हिनके दुनू गोटामे अपन किछु होइत हैतैन्ह।

सासु चिचिया उठलीह-दाइ गे दाइ। हमरा जमायकें खून कऽ देलक। देखू त शोणितमे नहाएल छथि। हे भगवान। जे मुद्दइ ई दशा कैलकैन्ह अछि तकर संहार होउक।

मनमे त कहल जे ई दशा कैनिहारि अहींक सुपुत्री थिकीह। और के रहत? परंच अपन हारल, बहुक मारल, आइ धरि केओ बाजल अछि जे हम बजितहुँ?

कुहरैत-कुहरैत कहलिऎन्ह- हम निन्दसॅं सुतल छलहुँ। कखन के आएल से पता नहि। भरिसक सुतलेमे लाठी लगौलक। तकरा बाद की भेलैक से नहि बूझि पड़ल।

लालटेन लऽ कऽ सन्दूक देखल गेल त सभ वस्तु अनामति। हमर ससुर आबि कऽ बजलाह-खैर, चोरके किछु हाथ नहि लगलैक, सैह गनीमत बूझक चाही। एना केबाड़ खोलि कऽ नहि सूतक चाही। ई त लगले जाग भऽ गेलैक तैं ओ भागि गेल। नहि त सन्दूकक ताला तोड़ि कऽ सभटा द्रव्यजात लऽ जाइत। आइ बड़का रक्ष रहल जे केवल हिनके मारि पीटि कऽ पड़ा गेल।

सासु बजलीह-धन्य भगवान जे बेटीक सिन्दूर कायम रहल। काल्हि भगवतीकें सवा हाथक आँचर चढा देबैन्ह।

हमरा माथमे पट्टी बान्हल गेल। कतेक ठाम हरदि-चून लगाओल गेल। दिन भरि उपचार होइत रहल।

दोसर राति शयनागार एकांत भेलापर देखैत छी जे मकुना पट्ठा जकाँ थाहि-थाहि कऽ डेग दैत, मस्त हस्तिनी जकाँ मदसॅं भरलि श्रीमतिजी शनैः शनैः पदार्पण कय रहलि छथि। ओ बदमाशीसॅं मुसकुराइत हमरा मलहम -पट्टी दिस तकैत पूछि बैसलीह-की? आइ फेर परीक्षा हैतैक?

हौ यार! हमरा त भेल जे पृथ्वी फाटि जाय और हम ओहिमे समा जाइ!

परन्तु ओ हमरा दिस करुण दृष्टिसॅं ताकि जेना अभय दऽ रहल होथि तेना बजलीह -अहाँ लजाइ छी किएक? हम असली बात ककरो नहि कहबैक। परन्तु हे ओ! पुरूषकें एतेक अबल नहि होमक चाही। अहाँके माय नेनामे दूध नहि पिऔलन्हि। बाप दंड-बैसक नहि करौलन्हि। जौं सरौ खेलाइत रहितहुँ त एहन दुर्दशा नहि होइत। खैर, आबहु कसरत करू। एहि बेर गाम जा कऽ देह बनाउ। बल बढाउ तखन सासुर आएब।

हौ जी, हुनकर एक-एक टा बात हमरा छातीमे बर्छी जका चुभि गेल। हम तॅं संकल्प कैने छलहुँ जे ई बात आजीवन ककरो नहि कहबैक। परन्तु तोरा लोकनि नहि मानै गेलाह तखन प्रतिज्ञा भंग करय पड़ल। यैह देखियो लैह। ई जे कपार मे चेन्ह अछि से ओकरे निशानी थीक। और लोक सासुरसॅं रंग-विरंगक बिदाइ नेन अबैत अछि। हम यैह चेन्ह नेने आएल छी।

ई कहि सहदेव पुनः निःश्वास छोड़लन्हि और गम्भीर भऽ गेलाह।

संगी-साथीमे थोड़ेक कालक हेतु निस्तब्धता व्याप्त भऽ गेल। तदुपरान्त शोभाकान्त बजलाह- हौ यार! तों तॅं तेहन सुनौलह जे सभके मात कैलह। परन्तु छह धरि नसिबगर। हमरा जौं एहन वीरपत्नी भेटैत तॅं दुनू साँझ पूजा करितिऎक।

रतिकान्त कहलथिन्ह-तोरा सद भेटल होइथुन्ह तैं बदमाशक सिहन्ता होइ छौह। जकर स्त्री दुब्बरि रहौक तकरा मोट देखि कऽ सिहन्ता होइ छैक। और मोट स्त्रीबलाकें पातर देखि कऽ। ताहिना गंभीर स्त्रीबलाकें चंचला पसिन्द पड़ैत छैक और चंचल स्त्रीबलाकें गम्भीरा। यैह पुरुषक स्वभाव थिकैक।

कामेश्वर पुछलथिन्ह-की हौ, सहदेव! आब कहिया सासुर जैबह?

सहदेव बजलाह- आब ओना नहि। आइसॅं व्याया करब आरंभ कैल अछि। जखन खूब स्वास्थ्य बनि जाएत और ओहि हथिनीक गर्व चूर करबाक शक्ति आबि जाएत तैखन उत्तर मुँहक यात्रा करब नहि तॅं....।

तावत सहदेवक पित्ती हाथमे लोटा नेने पोखरि दिस अबैत दृष्टिगोचर भेलथिन्ह। ई देखितहि सभा विसर्जित भऽ गेल।