लेखक : हरिमोहन झा

एक बेर कलकत्तामे जे दृश्य देखल से औखन आँखिमे नाचि रहल अछि। बोटेनिकल गार्डनमे गेल रही। विशाल वटवृक्षकेँ देखि मनमे एक भावना उठल। एके मूलसॅं कतेक शाखा-प्रशाखा फुटकल छैक! तहिना ई मानव समाज अछि। परन्तु यदि एहि सामान्य बातकेँ लोक स्मरण राखि सकैत!

हम ई सोचिते रही ता एक टा एहन सुन्दर दृश्य उपस्थित भेल जे अद्याबधि स्मृतिपटलपर अंकित अछि।

सामने मैदानमे-हरियर घासपर किछु लोक गोलाकार पंक्ति बना कय बैसल छथि। ओहि गोलमे आबाल-वृद्ध-वनिता सभ निर्विकार भावसॅं सम्मिलित छथि। स्त्री- पुरुषक कोनो भेद-भाव नहि। सभक आगाँमे पत्तल ओ माटिक बरुकामे पानि राखल छैन्ह। एक नवयुवती अत्यन्त चमकीसॅं पूड़ी परसैत छथि। एक किशोरी ओहने फुर्त्तीसॅं तरकारी परसैत छथि। देखैत-देखैत सभक पात चीनी, अँचार, रायता, ओ मधुरसॅं भरि गेल। सभ केओ एक संग तृप्तिपूर्वक भोजन कैलन्हि। भोजन शेष भेला उत्तर किछु नवयुवक पत्तल ओ बरुका सभ उठा कय कुडाक ढेरीपर फेकि ऎलाह। मैदान पूर्ववत साफ भऽ गेल। जेना ओहिठाम किछु भेले नहि हो। ई सभ सिनेमाक चित्र जकाँ भऽ गेल।

हमरा अपन गमैया भोज स्मरण भऽ आएल। एतबा गोटा खैतथि त धमगज्जर मचि जाइत। 'रौ पानि ला! हौ, एकटा पात एम्हर चाही। औ, तरकारी उठाउ। हाँ, हाँ, हम आब नहि लेब। नहि, नहि, हुनका और दही दिऔन्ह। औ! हुनका अपने लेबक मन छैन्ह।' इत्यादि। परन्तु एहिठाम निःशब्द सभ कार्य सम्पादित भऽ गेल।

ई लोकनि के थिकाह? कतयसॅं आएल छथि? कतय जैताह? एहि ठाम भोजक की उद्देश्य? आदि अनेक प्रश्न हमरा मनमे उठय लागल।

तावत देखल जे दलक नर-नारी अपन-अपन बैग-थर्मस कन्हामे लटकाय विदा भऽ रहल छथि।

कुतूहलवश एकटा स्काउट वेश धारी नवयुवककेँ पुछलिऎन्ह। हुनकासॅं ज्ञात भेल जे ई लोकनि चौबिस परगन्नाक निवासी थिकाह। सप्तग्रामक। करीब बीसो परिवारक लोक एहि दलमे सम्मिलित छथि। परन्तु एक सम्मिलित आश्रम जकाँ तीर्थाटन कय रहल छथि। सभ अपन-अपन रुपया पहिनहि अगाउ बन्हा देने छथि। ओहीसॅं खर्च होइत अछि। एक गोटा हिसाब रखैत छथि। केओ यात्राक प्रोग्राम बनबैत छथि, केओ डेराक प्रबन्ध करैत छथि। एवं प्रकार यथायोग्य सभक काज बाँटल छैन्ह। आइ विचार भेलैन्ह जे एहिठाम आबि पिकनिक कैल जाय। एहि दलमे स्त्री-स्वामी, भाय-बहीन, सासु-पुतोहु, सभ छथि परन्तु सभ एक संग मिलि सहयोग पूर्वक काज करैत छथि । आब एतयसँ ई लोकनि पुरी, वाल्टेयर, मद्रास, रामेश्वरम आदि नाना स्थान होइत एक मासमे धुरि क' अवै जैताह ।

ई बात देखि हमरा मनमे एक सिहन्ता भेल । अहा ! यदि अपनहुँ देशमे एहने सहयोग सम्भव होइत ! जखन बगभूमिमे एतबा पारस्परिक सौहार्द भ' सकैत छैक तखन मिथिलाक माटिपर किऎक नहि ?

हम निश्चय कैल, जे हो । एक बेर हमहूँ अपना गाममे एहिना दल संगठित कय देशाटन करब ।

गाम पहुँचि हमरा दल संगठित करबामे केहन-केहन अनुभव प्राप्त भेल, से एक पृथक अध्याय थीक ।

संक्षेपमे एतबा कहि दैत छी जे गूजर बाबाक दलानसँ यार ककाक खरिहान, पं० जीक मकानसँ अलोपीनाथक बथान, मुसाइ मामाक दोकानसँ पोखरि परक ब्रह्मथान धरि दौड़ैत-दौड़ैत पनही खिया गेल ।

स्त्रीगणमे तीर्थयात्राक नामे सुनि तेहन उत्साहक तरंग आबि गेलैन्हि जे सभ मिलि श्रीजन्नाथ जीक गीत उठा देलन्हि-'श्रीजगन्नाथजीक चरणकमलमे नैन हमारो अटको। '

अड़कीबाबी सहजोपीसी, लालकाकी, फुच्चुनमाय, बड़हरियावाली, पंडिताइन, जगदम्बा, सभक अपन साजी-पौती अजबारय लागि गेलीह । बारह-चौदह गोटाक दल तैयार भ' गेल ।

परन्तु अगाउ खर्च बन्हाएब किनको स्वीकार नहि भेलैन्ह। सभकेँ अपन-अपन खर्च फुट्टे करबामे नफा बूझि पड़लैन्ह।

देखैत-देखैत चाउर, चूड़ा, सातु ओ पकमानक मोटरीक ढेरी लागि गेल और एक दिन 'जय जगन्नाथ' कहैत हमरा लोकनि रेलमे सवार भऽ गेलहुँ।

सिमरियाघाट पहुँचला उत्तर लोक जहाजपर चढय लागल। जखन सभ सामान जहाजपर लदा चुकल तखन बड़कीबाबी घोषणा कय देलथिन्ह जे एहिठाम बिना गंगास्नान कैने हम आगाँ नहि बढब। सहजोपीसी, लालकाकी, ओ पंडिताइन सेहो अपन-अपन साड़ी कोचिया हुनका पाछाँ लागि गेलथिन्ह। अलोपीनाथ हुनका लोकनिकें स्नान कराबय घाट दिस लऽ गेलथिन्ह।

बड़कीबाबी लबि कय तेना धनुषाकार भऽ गेल रहथि जे हुनक माथ निहुरि कय ठेहुनक समक्ष आबि गेल रहैन्ह। तथापि पुण्य लटबाक लोभें ओ हाथ मे एकटा फराठी टेकने निहुड़ल-निहुड़ल विदा भऽ गेलीह। सहजोपीसी ओ लालकाकी डेग-डेगपर हुनका भरसाहा देने जाथिन्ह। तखन ओ चुट्टीक चालिसॅं आगाँ ससरथि। एवं प्रकारें जा ओ गंगामे एक डूब देलन्हि ता जहाज सीटी दऽ देलकैक। परिणाम ई भेल जे चारू गोटे ओही पार छूटि गेलीह।

जहाजपर यारकका लालकाकीपर तमसाय लगलथिन्ह और पण्डितजी पंडिताइनपर। 'हिनका लोकनिकें कोन काज छलैन्ह जे एहि बुढीक संग मुड़िया मारय गेलीह! आब रहथु साँझ धरि सभ गोटे एकादशी करैत। मोटा-चोटा त सभ जहाजेपर छैन्ह आर अलोपीनाथ खाली देहे एकटा लोटा डोलबैत गेलाह अछि। संगमे कैंचो नहि छैन्हि जे दू पाइक फरभीओ किनताह।'

अन्तमे सभक क्रोध बड़कीबाबीक धर्मान्धतापर जा कऽ केन्द्रित भेलैन्ह।

तावत एकटा और समस्या उठल। गूजरबाबाक पेट किछु खराब रहैन्ह। हम जहाज परक पैखाना देखा देलिऎन्ह। परन्तु ओ हमरा डॅंटैत कहलन्हि-लोक गंगा माइक पूजन करय अबैत अछि, और हम तीर्थमे आबि हिनकापर यैह कर्म करू? लाखो बुझौला उत्तर ओ नहि मानलन्हि। बजलाह-'तों नास्तिक थिकाह। परन्तु हम अपन आस्तिकता कोना छोड़ू?

एक घंटा धरि गूजरबाबा पेटपर हाथ धैने बैसल रहलाह। अन्ततोगत्वा मोकामाघाट ऎलापर हुनक समस्या हल भेलैन्ह।

मोकामामे गाड़ी आएल और चलि गेल। कारण जे सिमरिया घाटमे चारि गोटे पौकी लगौने छथि से आबि जैतीह, तखन ने ई काफिला आगाँ बढत। आब साँझ धरि प्लैटफार्मपर बैसल तपस्या करू। शनैः-शनैः चूड़ा, सातु, ओ साँचक मोटरी सभ फूजय लागल। पुरुष लोकनिक भोजन समाप्त भेला उत्तर फुच्चुनमाय चुटकीसॅं हमरा बजाय कहलन्हि-हे! कनेक पुरुष-पातकेँ ओम्हर टहलि जाय कहिऔन्ह त एम्हरो जनीजात किछु पानि पिबै जैतीह।

हमरा लोकनि ओहिठामसॅं टरि गेलहुँ त स्त्रीगण भरि मुँह घोघ तानि झाँपल मुँहमे ठकुआ खोँटि कऽ देबय लगलीह।

गूजरबाबा फराक शतरंजी ओछाय पड़ि रहलाह। पं० जी एक हत्था पाकल केरा लेलन्हि। केरा खा कऽ खोइया जॅंहि-तॅंहि फेंकि देलथिन्ह। हम उठाबय चललहुँ त मना कऽ देलन्हि।

सन्ध्याकाल अलोपीनाथ बड़कीबाबी आदिकेँ नेने पहुँचलाह। अबितहि सभपर बरसि पड़लाह-अहाँ लोकनिकेँ कनेको विचार नहि अछि। हमरा सभकें छोड़ि एहि पार चलि ऎलहुँ। कोन-कोन घैकट उठौलहुँ अछि से हमहीं जनैत छी। पाँचो गोटाकेँ सोरहो दंड एकादशी भऽ गेल। ताहिपर एकटा कनहा टी० टी० सी० से किन्नहु आबहि नहि दैत छल। ई महोखा जकाँ जे बैसल छथि सेहो जौं अपन मोटरी लऽ कऽ उतरि गेल रहितथि त हम किएक एतेक पराभवमे पड़ितहुँ?

ई कहि अलोपीनाथ फुच्चुनमायपर छुटलाह। परन्तु यारकका रोकि लेलथिन्ह। कहलथिन्ह-जे भऽ गेलैक से भऽ गेलैक। आब सभसॅं पहिने अहाँ लोकनि खा-पी कऽ सुभ्यस्त होइ जाउ।

किछु कालक उपरान्त चारू बूढीक घोघ तर मुँह चलय लगलैन्ह। बड़कीबाबी एकटा रसगुल्ला मुँहमे देलन्हि से हुनका कंठमे जा कऽ बैसि गेलैन्ह। तेना अटकि गेलैन्ह जे आँखि उनटि गेलैन्ह, चाउन्ह आबि गेलैन्ह। ओ सहजो पीसीक कोरमे खसलीह। लालकाकी पानिक छिटका देमय लगलथिन्ह। पंडिताइन पंखा होंकय लगलथिन्ह। फुच्चुनमाय नोर-पोटा पोछय लगलथिन्ह। जखन थोड़ेक पानि पियाओल गेलैन्ह त एक बेर सरकलैन्ह और बूढी आँखि तकलन्हि।

ओम्हर गूजरबाबा पेटकुनिया देने पड़ल रहथि। हम लऽगमे जा कऽ पुछलिऎन्ह-की बाबा! किछु खाएब?

ओ बजलाह-खाएब त नहि, जे हॅं कागजी नेबोक शरबत पियाबह त पिउब।

कागजी नेबो त नहि भेटल। फेरीवलासॅं एक गिलास शरबत लऽ कऽ गूजरबाबाक हाथमे देलिऎन्ह। ओ ओहिना हाथमे नेने रहलाह।

हम पुछलिऎन्ह-बाबा,पिबैत छी किएक नहि ?

ओ बजलाह हम कि तोरा सभ जकाँ अङरेजिया छी जे गट्ट-गट्ट पीबि जाएब ? पहिने हाथ-पैर धोएब, कुरुड़ करब,तखन ई पीब कि ओहिना ? पहिने एक लोटा जल आनह ।

हुनका जल दीते छिऎन्ह कि गाड़ीक धमक सुनाइ पड़ि गेल। 'गाड़ि आबि गेल ! गाड़ी आबि गेल ! चारु कात हूलमालि उठि गेल । गुजरबाबा हड़बड़ा कऽ उठय लगलाह से तलमला गेलाह । हुनका अलोपीनाथ सम्हारि लेलथिन्ह । ओम्हर सहजोपीसी ओ लालकाकी बड़कीबाबीकेँ धऽ कऽ उठाबय लगलीह।

गाड़ी अबैत देरी मुसाइमामा अपन मोटा लय दौड़लाह। परन्तु दुर्भाग्यवश पण्डितजीक फेकल केराक खोइयापर हुनक पैर पड़ि गेलैन्ह। ओ सोझे नाकक भरे खसि पड़लाह। मोटरीसॅं लोटा ओंघड़ा कऽ कहाँसॅं कहाँ चलि गेलैन्ह। जावत ओ उठथि-उठथि ता मुसाफिर सभ तेहन रेड़ा कैलक जे साँचक मोटरी लतखूर्दन भऽ गेलैन्ह। सभ ओहीपर छड़पि गाड़ीपर चढय लागि गेल।

बड़कीबाबी ओ गुजरबाबाकें कोनो-कोनो तरहें रेलमे चढाओल गेलैन्ह। जखन गाड़ी चलय लगलैक त बाबी लालकाकीसॅं पुछलथिन्ह-'की ऎ? गाड़ी छुटि गेलैक? हमरा लोकनि एत्तहि रहि गेलहुँ? तखन लोक बुझौलकैन्ह जे अहूँ गाड़िएमे बैसल छी।

किउलमे एकटा दोसर कांड भऽ गेल। मुसाइमामाक ठेहुन फुटि गेल रहैन्ह। बीच-बीचमे कुहरैत जाइत रहथि। किछु गोटाकेँ चाय लैत देखि हुनको सौख भेलैन्ह जे कनेक पीबि कऽ देखिऎक जे केहन होइ छैक। खिड़कीसॅं बाहर माथ कय जहिना मुँहमे ढारय लगलाह कि जीभ पाकि गेलैन्ह। तेना छिलमिला उठलाह जे सीसाक गिलास हाथसॅं ठामहि खसि पड़लैन्ह। गर्म चाय एक मुसाफिरक पैर पर खसलैक और गिलास चूर-चूर भऽ गेलैक। आब मुसाइमामा अवग्रहमे पड़ि गेलाह। ओ मुसाफिर युद्ध करक हेतु टीक पकड़ि लेलकैन्हि। ओम्हर चायबला गिलासक दाम वसूल करक हेतु फराक कण्ठपर सवार! तावत गाड़ी फूजि गेल। मुसाइमामाकें सहसा एकटा युक्ति फुरि गेलैन्ह। ओ अपन छुऎलहा साँचक मोटरी दुनूक बीचमे फेंकि देलथिन्ह और एवं प्रकार दुनू यमदूतसॅं अपन पिण्ड छोड़ौलन्हि। मुसाइमामाक एहन प्रत्युत्पन्नमति देखि पं० जी बहुत प्रशंसा कैलथिन्ह।

झाझा पहुँचैत-पहुँचैत बड़कीबाबी पिआसे व्याकुल भऽ गेलीह। ओ कलक पानि नहि पिबैत छलीह। अलोपीनाथ बोतलसॅं गंगाजल देवय लगलथिन्ह। किन्तु रेलक ओहि 'बरहबर्ना' डब्बामे जल पिउब हुनका स्वीकार नहि भेलैन्ह। बजलीह- आब एके बेर बाबाक धामपर पहुँचि कऽ जल पिउब।

जसीडीह उतरितहि यात्री-दल पर पंडाक आक्रमण आरम्भ भ' गेल । खास क' बड़कीबाबी ओ गूजरबाबाकेँ देखि ओ लोकनि तहिना मड़राय लगलैन्ह जेना शवपर गिद्ध मड़राइत अछि । बाबू कोन जिला घर ? कोन परगन्ना ? गाँव कोन ?

देखैत-देखैत एकटा पंडा जोंक जकाँ हमरा सभ मे सटि गेलाह । लाख झाड़लौ उत्तर हटयवला नहि । वैद्यनाथधाम धरि हमरा लोकनिक संग ऎलाह आर जखन हमरा सभ धर्मशाला मे आबि डेरा कैलहुँ तखनो संगे रहलाह । ओ बारंबार प्रत्येक स्त्री सॅं पूछय लगलथिन्ह - माताराम ! कोन तरहें दर्शन हैतैक ? कोन जल लऽ कऽ पूजन हैतैक ? हरद्वारक जल सॅं की नर्मदाक जल सॅं, कि समुद्रक जल सॅं ? कतेक केर संकल्प हेतैक ? कय टा ब्राह्मण भोजन हैतैक ?

हम कहलिऎन्ह - औ महाराज ! एखन त जान छोड़ू । हमरा लोकनि खाएब, पिउब, आराम करब । दर्शन करा देबैन्ह ।

ई कहब छल कि बड़कीबाबी हमरा पर बिगड़लीह - तोरा लोकनि त सभ धर्म-कर्म उठा देलह । जा दर्शन नहि हैत ता हम पानि कोना पिउब ?

गुजरो बाबा हुनक अनुमोदन कैलथिन्ह । फलश्वरुप सभ गोटे शिवगंगा मे स्नान कय पंडाक संग बाबाक मंदिर जाइत गेलाह । केवल हम आ मुसाइ मामा डेरा ओगरय लेल रहि गेलहुँ । थोड़ेक काल मे अलोपीनाथ सेहो फिरि कऽ आबि गेलाह ।

हम पुछलिऎन्ह - कि औ ? अहाँ दर्शन करय नहि गेलहुँ ?

ओ बजलाह - जल्दी सॅं लोटा बाहर करू । पैखाना कोम्हर छैक ?

ई कहि ओ कान पर जनउ चढ़बैत हड़बड़ाएल बिदा भेलाह ।

दस मिनटक बाद अलोपीनाथ आबि कय ओं-ओं वमन करय लगलाह ।

मुसाइमामा पुछलथिन्ह - की औ ! पैखाना केहन छल ?

ई प्रश्न सुनैत अलोपीनाथ कैं और वेग सॅं वमन भेलैन्ह । आश्वस्थ भेलापर बजलाह - हमरा त अन्हार मे किछु सूझल नहि । परन्तु गंध जे भभकैत छलैक से बाप रे बाप ! एखन धरि मगज फाटल जाइत अछि । हमरा त चौखटिक भीतर जैबाक साहस नहि पड़ल । बाहरे बैसि गेलहुँ । आब दोसराक जैबाक योग्य नहि छैक ।

मुसाइमामा बजलाह - तखन आब हम की करु ? अहाँ कैं दीप लऽ कऽ जाएब उचित छल ।

अलोपी नाथ बजलाह - हॅं, एकटा दीप त एहिठाम आवश्यक अछि ।

मुसाइमामा कहलथिन्ह - एकटा प्रकाश अवश्य रहक चाही ।

हम देखल जे ई दुनू गोटा 'चाही' सॅं आगाँ नहि बढ़ताह । बुझै छथि जे गर्ज त दोसरो गोटा कऽ छैन्ह । तखन अलोपीनाथ अपना डाँड़ सॅं कैंचा किएक बाहर करताह ? और, मुसाइमामा हुनका सॅं कोन कम्म जे अपन बटुआ खोलताह ? परन्तु केवल प्रस्ताव कैने त प्रकाश हैत नहि । अतएब हम उठलहुँ और बाहर सॅं मोमबत्ती-सलाइ कीनि कऽ लेसने ऎलहुँ ।

मुसाइमामा मोमबत्ती लऽ भीतर गेलाह । पुनः वापस आबि कहलन्हि - हमरा भीतर नहि बैसल हैत । बाहर मैदान सॅं भऽ अबैत छी ।

इनारपरक दृश्य और विचित्र छल । चारूकात पिच्छर, काइ लागल । नीचा मे भरि ठेहुन किचकाहनि । ठाम-ठाम दातमनिक कुच्ची ओ जिभियाक ढेरी लागल । माटि शुद्ध ताकब से कतहु भेटनाहर नहि । जाहि ठाम हाथ दी ताहि ठाम भुरभुरी । अलोपीनाथ बीच चबुतरा पर हाथ मटियबैत धर्मशालाक लोकक आलोचना करय लगलाह - पपियाहा सभ आबि कऽ घिना दैत अछि ।

हम कहलिऎन्ह - अलोपीभाइ अहूँ त एहि काज मे योगे दऽ रहल छिऎक । काल्हि जे एहि चबुतरा पर स्नान करय आओत से अहूँ कैं यैह बात कहत ।

अलोपीनाथ उठलाह त हम एक बाल्टी पानि लऽ कऽ चबुतरा कैं धोखारि देलिऎक ।

अलोपीनाथ बजलाह - ई त फेर एहिना भऽ जैतैक । व्यर्थ बाल्टीक पानि खर्च कैलह ।

ई कहि ओ एक हाथ मे लोटा ओ दोसर हाथ मे मोमबत्ती लय विदा भेलाह ।

हम कहलिऎन्ह - अलोपीभाइ ! इनार पिच्छर छैक । बचा कऽ चलब ।

अलोपीनाथ बजलाह - हम कि मुसाइ झा जकाँ अलूरि छी जे पिछड़ि कऽ खसि पड़ब ?

ई कहैत अलोपीनाथ पिछड़ि गेलाह । बहुत सम्हारक कोशिश कैलन्हि तथापि भरि ठेहुन थाल मे ओंघरा गेलाह । धोती लथपथ भऽ गेलन्हि ।

हम अन्दाज सॅं हाथ धऽ कऽ उठाओल । ओ कुहरैत बजलाह - डाँड़ टूटि गेल । आइ भोरे मुसाइ झाक मुँह देखि कऽ उठल छलहुँ, तकरे फल थीक । आब सोझे शिवगंगा लऽ चलह ।

मुसाइ मामा शिवगंगा पर कुरुड़ करैत रहथि । अलोपीनाथ कैं देखि कऽ भभा कऽ हॅंसि पड़लाह । कहलथिन्ह - केहन अपढंगाह छी । कनेक देखि कऽ चली ।

अलोपीनाथ उत्तर देलथिन्ह - अनका मे एहिना फुरै छैक । अहाँ जे मोकामा घाट मे मूँहक भरे खसल रही ! एखनो नाक थकुचायले अछि ।

हम देखल जे कदाचित बात बात बढ़ि जाय । तैं दुनू गोटा कैं शान्त करैत पुछलिऎन्ह अहाँ लोकनि एखन भोजन की करइ जएब ?

अलोपीनाथ बजलाह - हमरा संग त बूटक सातु अछि। खूब सोन्हगर। हरियर मरचाइ और नोन सेहो संगमे लऽ लेने छी। आधा सेर सानि कऽ मुठरा बना लेब और ऊपरसॅं एक लोटा पानि चढा लेब। बस, बमभोला। तकरा बाद काल्हि दिनमे देखल जेतैक।

मुसाइ मामासॅं पुछलिऎन्ह त ओ गोङियाय लगलाह हमर साँचक मोटरी त किउलेमे रहि गेल। एखन विशेष भूख नहि अछि। तों अपना खातिर जे अनबह ताहीमे सॅं एक-दू टा सोहारी हमहूँ खा लेबौह।

अलोपीनाथ प्रेमसॅं सातु घोरय लगलाह। हमहूँ अपना हेतु किछु लाबक लेल बाजार दिस विदा भेलहुँ। से देखि मुसाइ मामा मन पारि देलन्हि-देखह, हम दू चारि टा सोहारीसॅं बेसी नहि खैबौह। से हमरा हैतु चारि-पाँच टा सॅं बेसी नहि लीहऽ। पाँच-सात टा से बेसी हमरा नहि खाएल हैत।

हम दू गोटाक हेतु आधा सेर गर्मा-गर्म पूड़ी तरकारी लऽ अनलहुँ। मुसाइ मामा कान पथने सूतल छलाह। हमर आहट पाबि फुड़फुड़ा कऽ उठलाह। हम दोना-पत्तल हुनका आगाँमे राखि अपना हेतु पानि आनय इनारपर गेलहुँ। ओहि ठाम पिच्छर रहैक। तें बहुत सावधानीसॅं नहूँ-नहूँ आङुर रोपि कय ओहिपर पानि भरलहुँ और कुरुड़ आचमन कय, हाथ पैर धो, लोटामे जल नेने प्रत्यागत भेलहुँ।

ता देखइ छी जे मुसाइ मामा सभटा पूड़ी निःशेष कय पत्तल फेंकि रहल छथि। बजलाह-वाह! बड्ड विलक्षण सोहारी बनौने छल। तो नीक कैलह जे दोकानेपर भोजन कैने चलि ऎलह। परन्तु हौ जी! बहुत रासे अनने छलाह। हमरा एतबाक प्रयोजन नहि छल।

ई कहैत मुसाइ मामा तृप्तिसूचक ढेकार कैलन्हि। हमरा त मनमे आएल जे कहि दिऎन्ह-'औ महाराज? हमरो अंश त अहीं उदरस्थ कऽ लेल। स्वाइत एहन ढेकार भऽ रहल अछि! परन्तु संकोचवश नहि कहना गेल। हम चुपचाप दोकानपर जा भोजन कऽ ऎलहुँ।

ता दर्शनार्थिनी सभक झुण्ड प्रत्यागत भेल। हिनका लोकनिकेँ एखन बाहरेसॅं दर्शन भेलैन्ह अछि। काल्हि भोरमे विधिवत पूजन करै जैतीह।

जाहि ओसरापर हमरा सभकेँ डेरा भेटल छल से अन्हार-कुप्प छल। मोमबत्तीक प्रकाशमे देखल त जे सभ धर्मात्मा ओहिमे पहिने ठहरल छलाह से प्रचुर परिणाममे अपन स्मृति-चिन्ह छोडने गेल छथि। थूक, खखार, ओ ऎंठ-कूठसे ओ नरक-कुण्ड बनल अछि। हम दोकानसॅं एक टा झाड़ आनि ओकरा बहारि कऽ साफ कैल। एक बाल्टी पानिसॅं नीक जकाँ धोएल। तखन बड़का सतरंजी ओछा कऽ सभ गोटाकेँ कहलिऎन्ह-अबै जाउ।

परन्तु ऎलाह केवल पुरुष वर्ग। स्त्रीगण ओहिना बीच आँगनमे ठाढिए रहलीह। तखन हमरा अपन मूर्खताक बोध भेल। जाहि सतरंजीपर गूजर बाबा, यारकका, पं० जी प्रभृति बैसताह, ओहिपर बड़की बाबी, लालकाकी, पंडिताइन प्रभृति कोना आबि सकैत छथि? जे नारी सहस्त्रो वर्षसॅं अपनाकें शूद्रतुल्य बुझैत आएल छथि से आइ ब्राह्मणक समक्ष भऽ कोना बैसतीह? और जौं एहन दुःसाहसो करितथि त कि पुरुषवर्गकें से सहन होइतैन्ह? गूजर बाबाक नाक कटा जइतैन्ह। यारककाक मोछ मुड़ा जइतैन्ह। पं० जीक पाग खसि पड़ितैन्ह।

अस्तु। हम तुरन्त अपना त्रुटिक परिमार्जन कैल । गूजर बाबाकेँ सम्बोधन करैत कहलिऎन्ह-की ? अपने सभक ओछाओन एहिपर क' दिय'?

ओ बजलाह-नहि,नहि । तों नहि । अलोपीनाथ क' देताह । और तोंहू ओहिकात अपन कम्बल ओछा लैह ।

हम हुनक मुँह ताकय लगलिऎन्ह त बजलाह-तों बुझै छह नहि। एखन वारहो वर्णक ऎंठ उठौलह अछि। जावत स्नान नहि करबह ता अछोप तुल्य रहबह! की औ पंडितजी?

पं० जी माथ डोला अनुमोदन कैलथिन्ह। अगत्या हम फराक अपन कम्बल औछाओल। और स्त्रीगण एक कोनमे जेम्हर सभसॅं बेसी अन्हार रहैक दबकि कऽ पड़ि रहैत गेलीह।

भोरे स्त्रीगण कखन उठि अपन नित्यकृत्य करैत गेलीह से हमरा ज्ञात नहि भेल। निंद टुटलापर देखैछी जे सभ गोटे शिवगंगामे स्नान कय मन्दिर जैबाक तैयारी कऽ रहल छथि। गूजर बाबाक मुँह किछु भारी देखलिऎन्ह। पुछलिऎन्ह-की बाबा? रातिमे निंद खूब पड़ल कि नहि?

एतबा पूछब छल कि बाबा बुमकार छोड़लन्हि-तों हमरासॅं चौल करैत छह? भरि राति हमरा पेटमे मुसरी दण्ड पेललक अछि और तों पुछैत छह जे निंद खूब पड़ल?

हम सविनय हाथ जोड़ि कहलिऎन्ह-बाबा? अहाँ त राति अपने कहलिऎक जे भोजन नहि करब।

गूजर बाबा बजलाह-हॅं, परन्तु तोरा अपना की उचित छलौह? और किछु नहिं त अमौटो घोरि कऽ त दइ जइतह? तोरा की कहिऔह? बूड़ि अलोपीनाथकें एतबा नहि फुरलैन्ह। आब हम देखै छी जे अपटी खेतमे प्राण जाएत।

अलोपीनाथ अमौट घोरक उपक्रम करय लगलाह त गूजर बाबा डाँटि कऽ कहलथिन्ह-हौ अथाह! एतबा नहि प्रज्ञा छौह जे एखन बिना बाबापर जल ढारने मुँहमे किछु कोना देब?

अस्तु। सभगोटे एक-एक लोटा जल लय बाबाक मन्दिर जाइत गेलाह। केवल हम डेराक अगोरवाहीमे रहि गेलहुँ। बैसल-बैसल धर्मशालाक दृश्य देखय लगलहुँ। हमरा लोकनि पवित्र स्थानकें कोना भ्रष्ट करै छी से देखबाक हो त कोनो धर्मशालामे जा कऽ देखू।

एकटा बाबाजी बीचमे आँगनमे दातमनि कय ओहिठाम कुच्ची ओ जिभिया फेकि खखार करैत छलाह। हम टोकलिऎन्ह, त बजलाह-'धरम साला' किसीका खरीदा हुआ है?

हम कहलिऎन्ह-नहीं बाबा, 'धरम साला' तो आपही का है। जो करना हो कीजिए।

जे धर्मकें अपन 'सार' बूझि सकैत छथि से सुरालयोकें अपन श्वसुरालयमे परिणत कऽ सकैत छथि। एहन-एहन यात्रीकें स्वर्गमे नहिए स्थान भेटक चाहिऎन्ह। किएक त जे धर्मशालाकें 'जर्मशाला' बना सकैत छथि तनिका 'अमर टोलीकें 'चमर टोली' बनैबामे कतेक देरी लगतैन्ह।

एक भिनसरसॅं गेल-गेल भक्त लोकनि ठीक १२ बजे प्रत्यागत होइत गेलाह। सभ गोटेक मुँह विवर्ण भेल रहैन्ह। ज्ञात भेल जे ई लोकनि तेना-तेना पंडाक फेरमे पड़ैत गेलाह जे कोनो दशा बाँकी नहि रहलैन्ह। बड़कीबाबी मन्दिरमे पिसीमाल भय गेलीह। अधमरू भेल हकमैत ऎलीह अछि। गूजरबाबाकें अलोपीनाथ कोरमे उठौने आएल छथिन्ह। सहजोपीसीकें पंडा तेना कऽ संकल्प पढौलकैन्ह जे जतबा रुपया अनने छलीह सभटा लऽ लेलकैन्ह। लालकाकीकें बाइस ठाम प्रणाम करबा कऽ बाइसटा रुपैया लऽ लेलकैन्ह। फुच्चुनमायकें एक सीसी पानि दय पाछाँ दस टाका वसूलि लेलकैन्ह। अलोपीनाथक कपारपर लोटा बजरि गेलैन्ह से एक बड़का टा टेटर भऽ गेल छैन्ह। एवं प्रकार सभकें एक ने एक चरण लागि गेल छैन्ह।

आब विचार होमय लागल जे आगाँ की कैल जाय? वृद्ध लोकनिकें असक्क देखि यारकका ओ पं० जीक राय भेलैन्ह जे गूजरबाबा ओ बड़कीबाबी आब आगाँ नहि बढथि। पं० जीक मसिऔत मूसन झा एहिठाम धामपर पूजापाठ करैत छथिन्ह। वैह घर पहुँचा देथिन्ह। परन्तु ई विचार ने बाबाकें मान्य भेलैन्ह ने बाबीकें।

गूजरबाबा बजलाह-हम बाँचि जाएब त तीर्थ कैने घर फिरब। नहि, यदि बाटेमे किछु भऽ गेल त तोरा लोकनि छऽहे, एक काठी लगा दीहऽ। उभय हाथ मुद मंगल मोरे। एहि खातिर सोच किएक करैत जाइ छह?

बड़कीबाबी सेहो लाख बुझौला उत्तर नहिए मानलथिन्ह। बजलीह-आह! यदि ई शरीर जगन्नाथ जीक काज आबि जाय त एहिसॅं बढि और की आनन्द भऽ सकैत अछि? जहाँ खसि पड़बौह, तहीं फूकि दीहऽ।

अगत्या पुनः सभक मोटा-चोटा बन्हाय लागि गेल। भोजनोत्तर सभ केओ स्टेशसपर अबैत गेलहुँ। ओतय देखल जे यारकका, पं० जी ओ अलोपीनाथ किछु गुप्त परामर्श कय रहल छथि। हमरा देखि अलोपीनाथ बजलाह-हौ बाबू! तों कहैत छह जे कलकत्ता होइत पुरी चली। परन्तु पं० जीक विचार होइ छैन्ह जे आसनसोलसॅं सोझे खड़गपुर होइत पुरी गेने महसूल कम तागत। तखन लोक कलकत्ता दऽ किएक जाएत? ओ कि कोनो तीर्थ छैक?

हम कहलिऎन्ह-केवल थोड़बेक अन्तर किरायामे पड़त। परन्तु ताहिसॅं बहुत अधिक सुविधा हैत। और कलकत्तामे कतेको देखबा योग्य वस्तु छैक सेहो देखैत चलब।

अलोपीनाथ सभक रुचि देखि उचितवक्ता जकाँ बजलाह-हौ बाबू! हम सभ छी गरीब आदमी। जाहिमे कम खर्च पड़त ताही बाटें चलव। परन्तु तोरा यदि अपना सौख होइ छौह जे सभकें कलकत्ता देखबैत चली, तखन जतबा अधिक लगैक से तों दिअहौक।

जा हम किछु उत्तर दिऎन्ह-दिऎन्ह ता मुसाइमामा बाजि उठलाह-ई कोन भारी बात छैक? दस गोटामे दस टाका लगतैन्ह से ई दऽ देथिन्ह। हौ, जखन ई अग्रेश भऽ कऽ सभकें लाएल छथि तखन एखन जौं ककरो देह-नेह किछु भऽ जाइक त फेर सभटा हिनके खर्च लगतैन्ह कि ककरो अनका?

हम देखल जे एहि विषयमे अलोपीनाथ ओ मुसाइमामामे एकमत्य छैन्ह, रंगमात्र भेद नहि। ता सहजोपीसी हमरा दिस देखि बजलीह-हम त जे अनने छलहुँ से सभटा एहिठाम पंडा लऽ लेलक। आब आगाँ जे खर्च पड़तैक से तों कैने जाह। हम गाम पहुँचि कऽ दऽ देबौह।

अस्तु। भगीरथ प्रयासक अनन्तर हमरा लोकनि कोनहुना कलकत्ताक गाड़ीमे चढैत गेलहुँ । के कोना डब्बामे चढल तकर ठेकान नहि रहल।

प्रातः काल हबड़ा स्टेशन पर जखन सभ लोक उतरल त गिनती होमय लागल । लोक पुरि गेल तखन समानक जोह होमय लागल । और सभ वस्तु त भेटि गेल, केवल एकटा पेटीक पता नहि लागल । एक दोसरा कैं दोष देवय लगलथिन्ह । तखन यारकका कहलथिन्ह - आब व्यर्थ घोंघाउजि कैने कोन फल ? आगाँ सावधान रहै जाउ ।

पुरीक गाड़ी राति मे भेटत, ता एत्तहि समय बिताबय पड़त । दिन भरि प्लाटफार्म पर बैसि कऽ की करब ? ता घुमि फिरि कऽ कलकत्ता किएक ने देखल जाय ?

परन्तु हबड़ाक हड़बड़-खड़भड़ देखि गूजर बाबा कैं साहस नहि पड़लैन्ह । बजलाह - ई मायापुरी थीक । हम एहि भूमि पर पैर नहि देब । तोरा लोकनि नव नौतार छह, जा कऽ देखि अबै जाह । हम आइ दिन भरि एहिठाम आराम करब ।

यारकका ओ पं०जी कैं कलकत्ता देखल रहैन्ह । अतएव ओहो दुनू गोटे गूजर बाबाक सेवा मे रहि गेलाह । बड़की बाबी ओ सहजोपीसी सेहो ओत्तहि रहय पसन्द कैलन्हि । शेष स्त्रीगण हमरा संग कलकत्ता देखय लेल चललीह । मुसाइ मामा ओ अलोपीनाथ सेहो संग लगलाह ।

हबड़ा स्टेशन सॅं बाहर आबि सभ गोटे कैं ट्राम लग लऽ एलिऎन्ह । मुसाइ मामा ट्राम गाड़ी कैं हाथ सॅं नीक जकाँ ठोकि बजा कऽ बजलाह - अजब सवारी अछि । कोन सिरा छैक कोन पुच्छी , से किछु बुझिए नहि पड़ैत छैक । बिजलिए पर चलै अछि । धन्य कही अङ्रेज बहादुर कैं जे एहन-एहन वस्तु बना कऽ राखि गेल अछि ।

ताबत ट्राम ससरय लागि गेल । मुसाइ मामा चिचिया उठलाह - हौ ! ई त हमरा नेने जाइत अछि !

हुनकर हाथ पकड़ि हम उतारल ।

ओ बजलाह - नहि, नहि । एहन बेअख्तियारी सवारी पर नहि चढ़क चाही । कखन चलि देत, कहाँ लऽ जाएत , तकर ठेकान नहि । सवारी त ओकरा कही जे जहाँ कही 'हे ओ रह !' कि ठाढ़ भऽ जाय ।

ताबत दोसत ट्राम आबि गेल । हम स्त्रीगण कैं कहलिऎन्ह - चढ़ै जाउ, आगाँ कुर्सी पर बैसि जाउ । परन्तु ढढ़ियावाली पंडिताइनक मुँह ताकय लगलीह , पंडिताइन ओ फुच्चुनमाय लालकाकीक मुँह । ताबत एक झुण्ड बंगालिन पाछाँ सॅं आबि खटाखट फानि कऽ चढ़ि गेलीह और 'लेडीज सीट' कैं दखल कऽ लेलन्हि । ई लोकनि मुँह तकैत ठाढ़ि रहलीह ।

एहने-एहने स्थल पर अनुभव होइत छैक अपन ओ अन्य देशीय महिलाक पानि मे की अन्तर होइ छैन्ह । "गंगा बहथ जनिक दक्षिण दिश, पूर्व कौशिकी धारा । पश्चिम बहथि गंडकी, उत्तर , हिमवतबल विस्तारा " - एहि चौहद्दी मे ओ पानि भेटब दुर्लभ अछि ।

जखन एकाएक ट्राम चलय लागल त फुच्चुनमाय तलमला कऽ ढढ़ियावाली पर आबि गेलीह और दुहुक धक्का सॅं लालकाकी थौसि गेलीह । मुसाइमामा बजलाह - हम पहिनहि कहै छलहुँ जे एहन सवारी पर नहि चढ़ी । ई त रक्ष रहल जे बड़की बाबी नहि छथि , नहि त एहि धक्का मे भवसागर पार भऽ जैतथि ।

ट्राम धर्मतल्ला पहुँचि गेल । सभ कैं उतारल । आब एहिठाम सॅं काली घाटवला ट्राम पर चढ़ब । परन्तु देखै छी जे अलोपीनाथक पता नहि । ओ कतय लोप भऽ गेलाह ?

मुसाइ मामा बजलाह - हम हुनका खराम पहिरने 'टड़ाम' पर चढ़ैत देखलिऎन्ह , तकरा बाद की भऽ गेलाह से नहि कहि सकैत छी ।

लालकाकी बजलीह - हुनका एतय गमल-बुझल नहि छैन्ह । एसकर भुतिया जैताह । आब सभ सॅं पहिने हुनका खोजि कऽ ऊपर करक चाही ।

हे भगवान ! एहि कलकत्ता नगरीक विशाल जनसमुद्र मे अलोपीनाथक पता कहाँ लगाओल जाय ?

हम एहि चिन्ता मे निमग्न छलहुँ की अलोपीनाथ देखाइ पड़लाह । कान पर जनउ चढौने ओ अगाँ-आगाँ दौड़ल अबैत छलाह और पाछाँ-पाछाँ एकटा ट्राम हुनका पछुऔने अबैत छलैन्ह । हम दौड़िकऽ हुनका हाथ धैने नेने एलिऎन्हि ।

ओ बजलाह - इह ! आइ कटाइत-कटाइत बचलहुँ । गेल छलहुँ कने लघुशंका करय ! से जत्तहि बैसी, तत्तहि हड़हड़ करैत एकटा 'टड़ाम' पहुचि जाय । हौ बाबु ! जेम्हरे देखी तेम्हरे एकटा गनगोआरि जकाँ ससरल चल अबैत । हम घेरा गेलहुँ और पड़ैलहुँ त एकटा पाछाँ सॅं खेहारने चल अबै छल से देखबे कैलह अछि । आब एहन स्थान मे नहि रहक चाही ।

कालीघाटक ट्रामपर सवार भऽ हम सभ कालीजीक मन्दिर अबैत गेलहुँ । ओहिठाम एक झूण्ड पण्डा ओ पण्डाइन हमरा सभकेँ धरि लेलन्हि। सभलोक घाटपर स्नान कय मन्दिरमे फल-फूल प्रसाद चढाय दर्शन कैलक । स्त्रीगण भीजल नूआ एक कात पसारि देलन्हि और मंदिरक प्रांगणमे बैसि भगवतीक गीत उठा देलन्हि-जय जगनन्दिनि भवतारिणि जगदम्बे !

अलोपीनाथ बजलाह-खाली गीतसँ पेट नहि भरत । हम जाइ छी ओहि दोकानपर ।

मुसाइमामा कहलथिन्ह-चलू, हमहूँ चलैत छी ।

दुनू एक दोसरासँ 'अहाँ खोआउ' 'अहाँ खोआउ' करैत सामने मधुरक दोकान पर गेलाह । हम चुपचाप ठामहि बैसल दुहू गोटाक गति-विधि निरीक्षण करय लगलहुँ। अत्यन्त मनोरंजक दृश्य देखबामे आएल। दुनू गोटा कुर्सीपर पल्था मारि डटि गेलाह और गरमागरम पूड़ी जिलेबीपर हाथ फेरय लगलाह।

आइ मुसाइमामा और अलोपीनाथमे किछु विशेष मित्रता भऽ गेल छलैन्ह। तें एक संग सम्मिलित भय एके टेबुलपर बैसलाह।

अलोपीनाथ विचारलन्हि जे यदि पहिने खा कऽ उठि जाएब त हलुआइ हमरेसॅं दाम माङत। अतएव पहिने हिनके उठऽ देबक चाही। ई विचारि ओ अन्तिम जिलेबीकें अत्यन्त मन्द गतिसॅं खोंटय लगलाह।

एम्हर मुसाइमामा अपने फटकनाथ गिरधारी, जिनका लोटा ने थारी! ओ अपन अन्तिम सोहारीकें और मन्द गतिसॅं खोंटय लागि गेलाह। दुहू दोस्तमे 'स्लो ईटिग कम्पिटीशन' चलय लगलैन्ह।

अन्तमे मुसाइमामा विजयी भेलाह। अलोपीनाथ उठि कऽ हाथ धोबक हेतु अङनइमे गेलाह। ओहिठाम जानि बूझि कऽ बड़ी कालें खरिका करय लगलाह। परन्तु मुसाइमामा अपने एक चलाक। अलोपीनाथक चलाकी देखि ओ बुझलन्हि जे हिनकर खरिका जल्दी समाप्त होमयवला नहि छैन्ह। बस, ओ चट दऽ लोटामे पानि लय कानपर जनउ चढा एक दिस विदा भऽ गेलाह।

अलोपीनाथ परास्त भऽ गेलाह। अगत्या दुहू गोटाक भोजनक दाम एक रुपैया चौदह आना हुनका फाँड़सॅं बाहर करय पड़लैन्ह। जी मसोसि कऽ रहि गेलाह। मनमे लक्ष-लक्ष गारि मुसाइ मामाकें देलथिन्ह।

जखन मुसाइ मामा नकली वाह्यभूमिसॅं प्रत्यागत भेलाह त अलोपीनाथ हुनका धृष्टता देखि भीतरे-भीतर कुफरि कऽ रहि गेलाह! परन्तु वजताह की?

परंच एहि क्षुद्र घटनाक परिणाम आगाँ जा कऽ बहराएल। दूनू गोटाक क्षणिक मैत्रीक कोमल तन्तुपर तेहन मार्मिक आघात लगलैन्ह जे ओ मृणाल-सूत्र बीचसॅं दू- खण्ड भऽ गेल।

जखन स्त्रीगण प्रसाद पाबि चुकलीह त हम लालकाकीकें पुछलिऎन्ह-आब कोम्हर चलब?

ओ बजलीह-जेम्हर लऽ चलह।

हम कहलिऎन्ह-चिड़ियाखाना चलू।

लालकाकी-ओतय कि कोनो देवता छथि? तखन जा कऽ की करब? कोनो देवस्थान लऽ चलह।

हम कहलिऎन्ह-वेश,तॅं पारसनाथ मन्दिर चलू।

ओतय पहुँचि अलोपीनाथ ओ मुसाइ मामामे बजरि गेलैन्ह। मुसाइ मामा बजलाह-न गच्छेत् जैनमन्दिरम्। एहि मन्दिरमे नहि जैबाक चाही।

अलोपीनाथ कहलथिन्ह-अहाँ पंडितारे छटैत छी। एतेक लोक जा रहल अछि से बुड़बक अछि और एकटा अहीं बुधियार छी!

मुसाइ मामा कहलथिन्ह-अहाँ शास्त्र नहि पढने छी, त की बुझबैक?

अलोपीनाथकेँ एक रुपैया चौदह अनाक विष रहैन्ह । ई बात सुनि ज्वाला भभकि उठलैन्ह । बजलाह-ओ ! अहाँ दछिनाहा बाभन भ' क' की बाजब ?

मुसाइ मामा क्रुध्द भय वजलाह-अहाँक कुल खूँटमे आइधरि केओ शास्त्रक मुँहो देखलक अछि ? बाप फरठिया बाभन रहथि । अपने बीड़ी बेचैत छी । ब्राह्मणक कोखिमे जन्म लऽ बनियाक वृत्ति करै छी । और ताहिपर लाज नहि होइ अछि जे शास्त्रक नाम लैत छी । पतित !

एतवा सुनि अलोपीनाथ मुसाइ मामाक कण्ठमे हाथ धऽ देलथिन्ह । मुसाइ मामा गोड़ियाय लगलाह-अरे दौड़इ जो ! ई चाण्डाल ब्रह्महत्या कऽ रहल अछि ।

हम आगाँ बढि गेल रही। मुसाइ मामाक आर्त्तनाद सुनि पाछाँ फिरि कऽ देखइ छी त दूनूमे गुत्थमगुत्थी भऽ रहल अछि। हम दौड़ि कऽ दुनूकें छोड़ाओल।

तावत स्त्रीगणकें तेना बघजर लागि गेल रहैन्ह जे सभ ठकुआइल ठाढि रहथि। आब सभ केओ अलोपीनाथ कें दस हजार गञ्जन करय लगलीह । लालकाकी फज्झति करैत कहलथिन्ह - छिः ! तोहर बुद्धि केहन भेलौह ? परदेश मे आबि कऽ मारि करैत छह ? अपना सॅं श्रेष्ठ पर केओ हाथ छोड़य ? आब हम कत्तहु नहि जाएब - है लोकनि ! एखन अधलाह मुहुर्त्त बितै अछि । आब फिरि कऽ चलै चलह स्टेशन पर ।

स्टेशन पर आबि देखल जे गूजर बाबा कैं ज्वर लागि गेल छैन्ह । यार कका पंखा होंकि रहल छथिन्ह । ओम्हर सहजोपीसी बड़की बाबीक माथ मे गुलरोगन पचा रहल छथिन्ह । प० जी सामान पर ओङ्गठल नवग्रह स्तोत्र पाठ कऽ रहल छथि ।

१० बजे राति मे हमरा लोकनि एक्सप्रेस मे सवार भेलहुँ और दोसरा दिन प्रातः काल पूरी पहुँचि गेलहुँ । स्टेशन पर उतरैत देरी हमरा लोकनि चारुकात सॅं पण्डाक चक्रब्यूह मे फंसि गेलहुँ एक गोटा गुजर बाबाक हाथ धऽ लेलकैन्ह । दोसर गोटा बड़की बाबीक साजी उठा लेलकैन्ह । तेसर गोटा पं० जी कैं घिसियाबय लगलैन्ह ।

हमरा सभ लाख प्रयत्न कैलो उत्तर ओहि नागपाश सॅं अपना कें नहि छोड़ा सकलहुँ । अगत्या शिकारी कुकुर सॅं घेरल भेड़ीक झुण्ड जकाँ हमरा लोकनि समुद्रक कात स्वर्गद्वार अबैत गेलहुँ । पंडा सभ स्त्रीगणक हाथ मे अक्षत नारियल दय सकल्प पढ़ाबय लगलैन्ह । तखन ओ लोकनि लहरि लेबक हेतु पाँती जोर सॅं बालू मे मूड़ी गोंति बैसि गेलीह ।

एके बेर समुद्रक लहरि आएल और ताहीमे सभ स्त्रीगण भसिया गेलीह। बड़की बाबी ऊबडूब होमय लगलीह। सहजो पीसी हुनका सम्हारय गेलीह त अपनो कइएक घुड़मुड़िया खा कऽ खसलीह। लालकाकीकॅं चारि हाथ ऊपर फेंकि देलकैन्ह। पंडिताइनकें तेना लोट-पोट कैलकैन्ह जे पीठ पाँखुर सभ चेछा गेलैन्ह। फुच्चुनमायक चन्द्रहार दहा कऽ कहाँ गेलैन्ह तकर पता नहि। ता जगदम्बा चिचिया उठलीह-जाह, ढढियावालीकें बहौने जा रहल छैन्ह।

वास्तवमे समुद्रक हिलकोर ढढियावालीकें अपना संग पाछाँ मुहें नेने जा रहल छलैन्ह। ओ अपन दहाइत नुआकें पकड़बाक निष्फल चेष्टा करैत छलीह। ता दोसर हिलकोर आबि हुनका घाटपर फेंकि देलकैन्ह। ओ झट दऽ नूआ सम्हारि उठय लगलीह। परन्तु मुँह-नाकमे बहुत रासे समुद्री पानि चलि गेल छलैन्ह। वमन होमय लगलैन्ह जाहिसॅं बेसुध भऽ गेलीह। लालकाकी हुनक पीठ ससारय लगलथिन्ह। तावत गर्द पढल जे बड़की बाबीकें दाँति लागि गेलैन्ह अछि।

एके लहरिमे त ई हाल। पुनः दोसर लहरि लेबाक किनको साहस नहि पड़लैन्ह। स्त्रीगणाक ई दशा देखि पुरुषो लोकनि सतर्क भऽ गेलाह। गुजर बाबा एक चूरू जल लऽ कऽ फराकेसॅं सिक्त कऽ लेलन्हि। यारकका ओ पं० जी घुट्ठी भर जलमे चुक्कीमाली बैसि कय लहरि लऽ पड़ैलाह। हम, अलोपीनाथ ओ मुसाइ मामा जलमे पैसि गेलहुँ। अलोपीनाथ ओ मुसाइ मामा दुनू एक दोसराक हाथ धऽ आगाँ बढय लगलाह। तावत एक बड़का हिलोर आएल जे अलोपीनाथ अङपोछा दहाकऽ लऽ गेलैन्ह और मुसाइ मामाक डाँड़सॅं कुञ्जीक झब्बा! दुनू समुद्रकें गारि पढैत बाहर ऎलाह।

जगन्नाथजीक मन्दिरमे पहुँचला उत्तर जे दुर्दशा भेल से वर्णनीय नहि। जहिना हमरा लोकनिक दल सिंहद्वारपर पहुँचल कि चट दऽ एक गोटा लपकि कऽ गूजर बाबाक कपारमे ठोप कऽ देलकैन्ह। गूजर बाबा एकटा कैंचा देलथिन्ह त फेंकि देलकैन्ह और भोजनक दाबी करऽ लगलैन्ह। एक गोटा यारककाक हाथमे जबर्दस्ती एकटा फूल धऽ देलकैन्ह और टका माङय लगलैन्ह। एक गोटा पण्डित जीक गरमे माला पहिरा कऽ नव वस्त्रक हेतु चड़ियाबय लगलैन्ह। एक गोटा बड़की बाबी कें विरियाबय लगलैन्ह जे अटकापर कतेक चढाएब?

एवं प्रकार पद-पदपर सत्कार प्राप्त करैत भक्तगण मन्दिरक भीतर पहुँचलाह।

जे किछु कसरि छलैन्ह से दर्शन करबा काल पूर्त्ति भऽ गेलैन्ह। दुहू कातक रेड़ाक बीचमे बड़कीबाबी गर्मीसॅं बेदम भऽ गेलीह। हूनका पंडा अपना कन्हापर चढाय बाहर लऽ अनलकैन्ह। पानि छिटला पर होश भेलैन्ह।

बड़कीबाबी जा कऽ बत्तीस टका अटका पर चढा ऎलीह। बजलीह-यैह जमा ओहिठाम काज देत। और कि किछु संग जाइ छैक?

बड़कीबाबीक भक्ति देखि पंडा सभ जयजयकार कऽ देलकैन्ह।

तखन लालकाकी सेहो बत्तीस टका बहार कैलन्हि। देखादेखी होड़ लागि गेल। क्रमशः पंडिताइन, ढढियावाली, फुच्चनमाय सभ अपन-अपन गेठी खोलय लागि गेलीह।

ताबत एक झुण्ड देवता सभक पाछाँ लागि गेलथिन्ह जे ब्राह्मण-भोजन कराउ। हमरा लोकनिमे केओ खैने नहि। सभ भूखें लहालोट, और ताहिपर भिक्षुकक दल कण्ठपर सवार! एहन दृश्य धर्म-प्राण भारतवर्ष छोड़ि और कोन देशमे भेटि सकैत अछि?

अस्तु। होइत-होइत ब्राह्मण-भोजन भेल। तदुपरान्त दक्षिणाक हेतु बबंडर उठल। एवं प्रकार बारहसॅं दू बाजि गेल। तखन लोक धर्मशालामे आबि डॆरा देलक। ककरो होश नहि रहैक। जखन पंडाजी भरि चङेरा महाप्रसाद अनलन्हि त सभकें जेना चैतन्य भेलैन्ह। पाछाँ जा कऽ ज्ञात भेल जे एहि प्रसादक मूल्य केहन होइ छैक। किऎक त फिरती काल पंडाजी यारककासॅं हैंडनोट लिखाय एकक चारि बर दाम वसूल कऽ लेलथिन्ह।

अस्तु। सायंकाल पंडाजी आबि सभकें आरती देखाबय मन्दिर लऽ गेलथिन्ह। और एहि ब्याजसॅं पुनः एक बेर शोषणक अवसर हूनका भेटि गेलैन्ह। लोक सभ निचोरल नेबोक सिट्ठी बनि गेल, तथापि हुनका चुसबाक लोभ नहि गेलैन्हि।

दोसरा दिन प्रातःकाल लोक चंदन तालाबमे स्नान कय जनकपुर गेल। ओहिठाम भिक्षुकक पलटन हमरा लोकनिकें घेरि लेलक। जतेक भजाएल कैंचा संगमे रहय से सभ बाँटि देलिऎक तथापि जान छोड़ाएब कठिन भऽ गेल। एककें देलापर चारि गोटा जुमि जाय और जकरा नहि होइक सैह शनैश्चर जकाँ पाछाँ लागि जाय। हम मनमे सोचय लगलहुं जे एकर मुख्य कारण की? दरिद्रता? लोभ? मूर्खता? अथवा एहि देशक अन्ध दानशीलता?

रातिमे घुमि फिरि कऽ धर्मशाला ऎलहुँ त देखै छी जे 'तीन तिरहुतिया तेरह पाक' चरितार्थ भऽ रहल अछि। यारकका ओ पं० जीमे एतेक मैत्री रहलो उत्तर दुहू गोटाक चूल्हि फराक पजरि रहल छैन्ह। सहजोपीसी फराके अपन खीचड़ि टभका रहल छथि। अलोपीनाथ दुनू बेकती गोइठा जोड़ि लिट्ठी ओ परोरक साना बना रहल छथि। मुसाइमामा अटकापरक प्रसाद चारि कैंचाक कीनि लैलाह अछि, सैह भोग लगा रहल छथि। एवं प्रकार सभक भिन्ने बथान छन्हि।

हम रातिमे सूतल-सूतल विचारय लगलहुँ-कि ओ कलकत्तावला स्वप्न आखिर नहिए फलित हैत? कि ओ एकता ओ सहयोग हमरा समाजमे असंभवे अछि? हम कोन उत्साहसॅं ई दल संयोजित कैल और की फल भेल? 'विनायकं प्रकुर्वाणः रचयामास वानरम्।' कि एतबा श्रम ओ व्यय व्यर्थ गेल? आबो प्रयास कऽ कऽ देखक चाही जे एहि दिशामे कहाँ धरि सफलता भेटैत अछि।

भोरे उठि मंडलीकें सविनय निवेदन कैलिऎन्ह जे आइ सभ गोटाकें हमरा दिससॅं निमंत्रण अछि। ई सुनि सभकें प्रसन्नता भेलैन्ह।

पं० जी बजलाह-वाह! वाह! बड्ड उत्तम विचार। ई अहीसॅं हो। किएक ने? किएक ने?

यारकका बजलाह-औ बाबू! अहाँ आदर्श नवयुवक छी। हम गाम पहुँचब तखन दस लोकमे अहाँक प्रशंसा करब।

गूजरबाबा अनुमोदन करैत कहलथिन्ह-ताहिमे कोन सन्देह? हिनक वंश केहन छैन्ह? पक्षधर मिश्रक संतान!

जावत भक्त-गण मंदिरमे दर्शन करय गेलाह ता हम भोजक ओरिआओनमे लगलहुँ। अलोपीनाथ ओ मुसाइमामाकें संग लऽ कऽ दोकानपर गेलहुँ। ओहिठाम चङेरामे पूरी, तरकारी, चटनी, रायता, मधुर, अँचार, दही, चीनी, सभ वस्तु पर्याप्त कऽ नेने अबैत गेलहुँ।

धर्मशालाक पाछाँमे एकटा छोटछीन फुलवाड़ी छलैक । ओकरे बीचमे मखमलक गलीचा जकाँ हरियर घासक चकला देखऽमे आएल । हम वैह स्थान टेबि लेल । सभ सामान लऽ कऽ ओहिठाम धरबाओल । मुसाइमामा ओ अलोपीनाथकेँ पात-पानिक भार देलिऎन्ह । तावत ढढि यावालीकेँ कहलिऎन्ह-अहीँ पूरी-मधुर परसब । जगदम्बाकेँ कहलियन्हि-तोँ तरकारी दही चीनी परसिहेँ ।

एवं प्रकार हम कार्य बँटैत रही ता शेष स्त्रीगण सेहो पहुँचि गेलीह । हम सभकेँ गोल पाँतीमे बैसा देलिऎन्हि । बड़कीबाबीकेँ नहि बूझि पड़लैन्ह । बजलीह - की ? एहिठाम कोनो पूजा हैतैक ?

अलोपीनाथ कहलथिन्ह-हँ, असली पूजा हैतैक !

लालकाकी बजलीह-तोरा सभकेँ कोन-कोन खेल फुरैत रहैत छौह ? एहिठाम लोक खाएत कोना ? ने नीपल,ने बहाड़ल, ने एकबट्टी भेल!

हम सविनय कहलिऎन्ह-एहिठाम परदेशमे ई सभ नहि लगैत छैक । और ई त क्षेत्र थिकैक ।

अलोपीनाथ और मुसाइ मामा सेहो कनेक लजाइत अपन पात-पानि लऽ पाँतीमे बैसि गेलाह ।

तखन हम शेष पुरुषकेँ बजावय धर्मशालाक भीतर गेलहुँ ।

यारकका पुछलन्हि-कोन ठाम प्रबन्ध छैक ?

हम कहलिऎन्ह-उद्यानमे ।

पं० जी व्यंग्य करैत पुछलन्हि-की ? कुर्सीओ टेबुलक इन्तिजाम छैक ?

हम कहलिऎन्ह-नहि, नीचेमे आसन लगाओल छैक।

गूजर बाबा पुछलन्हि-की सभ खोऎबहौक ?

हम कहलिऎन्ह - पूड़ी, तरकारी, मधुर, अँचार, दही-चीनी ` ` ` ` `

गूजर बाबा बजलाह - हम त नोन देल तरकारी खैबह नहि । हॅं , कनेक दही-चीनी लऽ कऽ मधुपर्क कऽ लेबौह । चलह, इहो भोज देखिए लेल जाय ।

तीनू गोटा प्रसन्न चित्त सॅं हमर पाछाँ चललाह । परंतु भोज स्थान पर दृष्टि पड़ितहि एकाएक ठमकि कऽ सभ केओ ठाढ़ भऽ गेलाह । जेना बघजर लागि गेल होइन्ह । स्त्रीगण पात पर बैसल छथि और ढढ़ियाबाली तथा जगदम्बा आँचर कसि परसि रहल छथि । एहन अभूतपूर्व दृश्य देखि तीनू गोटा स्तम्भित रहि गेलाह ।

पं० जी बजलाह - हमरा त होइ छल जे स्त्रीगण पाछाँ कऽ खैतीह । जखन पहिने वैह सभ लोकनि बैसि गेलीह तखन हमरा लोकनिक बिझो एखन किऎक कराओल गेल ?

यारकका बजलाह - ओहि गोल मे दू टा पुरुषो कैं बैसल देखैत छिऎन्ह । बीच मे चारि टा खाली आसन देखैत छिऎक । की ? हमरो लोकनि कैं लऽ जा कऽ अहाँ ओहि बीच मे बैसाबक चाहै छी ?

गूजरबाबा पित्तें थरथर कँपैत बजलाह - तों एहि ठाम भैरवी चक्र लगाबय चाहैत छह ? एही खातिर हमरा सभ कैं एहि ठाम लऽ आएल छह ?

हमरा मुँह सॅं किछु उत्तर नहि बहराएल । अपराधी जकाँ मौन रहलहुँ । आब जा कऽ बड़की बाबी ओ सहजोपीसी कैं वस्तुस्थितिक बोध भेलैन्ह । बाबी हमरा दिस आग्नेय नेत्र सॅं तकैत बजलीह - तों पुरुषक बीच मे हमरा सभ कैं बैसा बेइज्जत करै छह ? सभ कें भटमेरि करक चाहै छह ? जे केओ नहि कैलक से तों करबह ? से जाबत धरि हमरा लोकनि जीबैत छी ता धरि नहि होमय देबौह । राखह मधुर अपना कपार पर !

ई कहि ओ पात उठा कऽ फेकि देलन्हि ।

सहजोपीसी आगि मे घी ढारैत बजलीह - हौ बाबू ! तों धनिक छह त अपना घर रहह । अनका बहु-बेटी कैं किऎक दूरि करैत छहौक ? जे कहियो नहि देखल से आइ देखि रहल छी । ह ! ह ! ह ! तों त कलयुगो कऽ जितलह । एक साँझ खाइ खातिर लोक अपन धर्मे गमा देत !

ई कहि ओ पातकेँ ममोड़ि-चमोड़ि और बेसी जोरसं दूर फेँकलन्हि ।

पं०जी पंण्डिताइनके फज्जति करैत कहलन्हि-अहूँ अपटुडेट बनक चाहैत छी ?मारि करचीकेँ घूट तोड़ि देब, नहि त उठू !

यारकका लालकाकीकेँ डँटैत कहलथिन्ह-अहाँ जे मकुना माधब जकाँ पल्था लगौने बैसल छी से लाज नहि होइ अछि ? उठू ।

अपना पक्षक बहुमत देखि सहजोपीसी और बाघिन बनि गेलौह । शेष स्त्रीगणपर अग्निवर्षा करैत बजलीह-ऎ फुच्चुनमाय !अहूँँ बड़ गब्बर छी । एतेक भऽ गेल और अहाँँ पात नेने बैसले छी ? की मधुर कहियो आँँखिसँँ देखने नहि छी ? और ढढियावालीकेँँ ने देखिऔन्ह ! ईहो छमछम कय परसय गेल छलीह ! सभ सखी झुम्मर पाड़य, लुल्ही कहय हमहूँँ !सिंह कटाय परड़ू मे मिझड़ होबै जाइत छथि !और जगदम्बा जे एतेक फुचफुच करैत अछि से हम की कहिऔक ? चौदह वर्षक भऽ गेलि । आब की बाँँकी छैक ? कुमारि-बारि कतहु एना करय ! परंतु के बाजौ ? हम कि आन्हर छी !सभटा देखल छी । परंतु बूझि कऽ हैत की ? आइ-काल्हि कि कोनो विचार छैक ?

फलस्वरुप पंडिताइन, लालकाकी, जगदम्बा, ढढियावाली, ओ फुच्चुनमाय सभ गह्वरित होइत उठि विदा भऽ गेलीह। अलोपीनाथ ओ मुसाइमामा देखलन्हि जे आब सभ उठि गेल त अगत्या ओहो दुनू गोटा मुठ्ठाह भऽ पात परसॅं उठि गेलाह।

आब गूजरबाबा वज्र-कठोर शब्दमे हमरा संबोधन करैत बजलाह-एखन तों गाममे रहितह त पाँँचटा पंच मिलि कऽ जुरमाना करितौह। परंतु परदेशमे छह तें हम छोड़ि दैत छिऔह। तोहर सजाय एतबे जे तों ऎखन अपन झोड़ीझटा लऽ कऽ डेरा अन्तह लऽ जाह। हम सभ एक मिनट तोरा संग नहि रहि सकैत छी। हम शुरू सॅं तोहर नास्तिकता देखैत आबि रहल छी। परंतु भीतरमे एतेक रासे गुंडपनी भरल छौह से भासित नहि होइ छल। आब सभ बात दर्पण जकाँँ झलकि रहल अछि। तों नीक लोकक बहु बेटी संग रहय योग्य नहि छह। या तोंही आन ठाम डेरा करह अथवा हमही सभ अन्यत्र चल जाइत छी। बस, आब तोहर एकोटा शब्द नहि सुनबौह।

यारकका ओ पं० जी अपनाकें किछु आधुनिक विचारक बुझैत छलाह। परंतु एखन एको अक्षर किनको मुँँहसॅं नहि बहरैलैन्ह।

हम चुपचाप अपन सूटकेस ओ विस्तर उठाओल और रिक्सापर चढि पराजित सैनिक जकाँँ स्टेशन विदा भेलहुँँ। बाटमे जगन्नाथजीक चमकैत कलशीकें प्रणाम करैत कहलियन्हि-हे बाबा जगन्नाथ! हम धन-धान्य आरोग्य-संतति नहि मङैत छी। जौं अहाँँमे यथार्थ सामार्थ्य हो त हमरा जातिकें बुद्धि प्रदान करू!