लेखक : हरिमोहन झा

प्रथम दृश्य

(मातृ वन्दना-पाँँच बालक द्वारा सम्मिलित गान)

(आसावरी)

          धन्य धन्य मातृभूमि ! सकल  ज्ञान गुणक खानि !
          धन्य तों पवित्र माँँटि !   धन्य  अमृत तुल्य पानि !
          धन्य   तों    बसात    जाहिमे   बहैछ   ब्रह्मज्ञान ।
          धन्य  तीर्थ  सदृश  देश   शान्त  तपोवन  समान !
          कोन  देशमे   भेलाह   नृप   विदेह  सन   महान ?
          कन्या ककर कोखिसॅं भेलैक अछि सिया समान ?
          ठाम  ठाम   औखनधरि  कीर्ति  अछि  विद्यमान ?
          कतहु गौतमक कुण्ड, कतहु कपिल मुनिक स्थान।
          वाचस्पतिक   डीह  कतहु,  गंगेशक  कतहु  धाम!
          कतहु   पक्षधरक   टोल, कतहु   उदयनक  गाम !
          राजा शिव  सिंहक  कतहु  पोखरि  ओहने  उदार !
          कतहु संस्कृतिक  स्त्रोत   मंडन   मिश्रक   इनार !
          कतहु   विसपीक  गाछ  जकरा  तर  बैसि  बैसि !
          मैथिल-कवि-कोकिल अमर  विद्यापति कैल गान!
          कतहु  सवा  कट्ठा  मात्र  बाड़ी महॅंक  साग  मध्य
          औखन चमकैत  अछि अयाची केर स्वाभिमान! धन्य०
      
        

द्वितीय दृश्य

(पंडित अयाची मिश्र पूजापर बैसल छथि। आगाँँमे धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, सराइ, पंचपात्र, अर्घी, घंटी आदि।)

(बालक शंकरक प्रवेश)

शंकर-बाबूजी, नवद्वीपसॅं एकटा विद्यार्थी आएल छथि।

पं० अयाची-नेने अबियौन्ह। (शंकर आगन्तुककें नेने अबैत छथिन्ह। आगन्तुक पं० जीकें प्रणाम कय बैसैत छथि। )

पं०(आशीर्वाद दैत)- की समाचार?

वि०-हम प्राचीन न्यायमे आचार्य कय सम्प्रति नव्यन्यायक अनुशीलन कय रहल छी। व्याप्तिक प्रकरणमे एक ठाम नीक जकाँँ परिष्कार नहि होइत अछि....

पं०-की?

वि०-साध्यतावच्छेदक धर्मावच्छिन्न निष्ठ प्रतियोगिता निरूपक जे अभाव-

पं०-तकर हेतुत्वावच्छेदक धर्मावच्छिन्न हेतुत्वावच्छेदक सम्बन्धावच्छिन्नसॅं सामानाधिकरण्य नहि हैबे व्याप्ति थीक। यैह ने?

वि०-हॅं। यैह।

पं०-शंकर, तोरा त ई विषय बूझल छौह?

शं०-हॅं, बाबूजी!

पं०-तखन परिष्कार कऽ दहुन।

शं०-बेश।

वि०-परन्तु ई तॅं एखन....

पं०-अवस्था देखि नहि झुझुआइ। ई अवच्छेदकता-प्रकारता आदि समस्त विषयमे निविष्ट छथि। शंकर! व्याप्तिक लक्षण बुझा दहुन।

शं०-देखू, चिन्तामणिकार पहिने ई लक्षण कहैत छथि जे साध्याभाव वदवृत्तित्वम्। अर्थात साध्यनिष्ठ प्रतियोगिता निरूपक जे अभाव तकरा अधिकरणमे हेतुक वृत्ति नहि भेनाइ सैह व्याप्ति थीक। एतबा त बुझिए गेल हैबैक?

वि०-(कनेक अख्यास करैन जकाँँ)-अयॅं। हॅं।

शं०-परञ्च ई सिद्धान्त लक्षण नहि। गंगेश उपाध्याय अन्तमे एहि लक्षण पर पहुँँचैत छथि जे हेतु-व्यापकसाध्यसामानाधिकरण्यं व्याप्तिः। पूर्वोक्त परिभाषा और एहि परिभाषामे की अंतर छैक से बुझिलिऎक?

वि०-नहि।

शं०-तखन चलू, बुझा दैत छी।

वि०-(उठैत) आश्चर्य। हम मिथिलाक जेहन नाम सुनैत छलहुँँ ताहूसॅं अधिक बहराएल! मैथिल बालकक ई अपूर्व संस्कार। धन्य ई देश!

पं०-शंकर! हिनक शंका-समाधान कय पुनः अबिहऽ। (शंकर विद्यार्थीकें लऽ कऽ जाइत छथि। पं० जी पुनः पूजामे लगैत छथि। थोड़ेक कालक अनन्तर हुनक स्त्री भवानीक प्रवेश।)

स्त्री०-ऎ। अभ्यागत जे ऎलाह अछि तनिका भोजन की करैबैन्ह?

पं०-आइ भानस की भेल अछि?

स्त्री०-साग भात भेल अछि। पा डेढेक चाउर घरमे छलैक तकर भात रन्हलिऎक अछि और बाड़ी महॅंक पटुआक साग।

पं०-तखन दही चूड़ा खोआ देबैन्ह।

स्त्री०- परंतु घरमे ने दही अछि ने चूड़ा।

पं०-तखन सोहारी छानि दिऔन्ह।

स्त्री०-परन्तु चीकस कहाँँ अछि?

पं०-(चिन्तित मुद्रामे) तखन उपाय? बाड़ीमेसॅं किछु बहराएत?

स्त्री०-थोड़ेक खम्हारु बहरा सकैत अछि। से कही त उखाड़ि कऽ तरि दिऎन्ह।

पं०-परन्तु खैताह कथीक संग?

स्त्री०-नैवेद्यक हेतु थोड़ेक अक्षत छैक। तकरे पीसि कय सोहारी छानि दैत छिऎन्ह।

पं०-(प्रसन्न होइत) घरक लज्जा अहाँँ राखि लेल। गृहिणीकें एहने होमक चाही।

स्त्री०-अपन गाय काल्हिसॅं नहि दूहल गेल अछि। आधो सेर भऽ जइतैक त एखन काज चलि जाइत।

पं०-वेश। हम दुहियाकें बजबा पठबैत छिऎक। अहाँँ और वस्तुक ओरिआओन करूगऽ।

(स्त्री जाइत छथिन्ह। शंकरक प्रवेश)

पं०-की शंकर! सभटा बुझा देलहुन?

शं०- हॅं। आब शब्द खण्डमे किछु शंका छैन्ह से भोजनोत्तर बुझा देबैन्ह।

पं०-हौ, कनेक गोपिया अमातकें त देखहौक। लोटा नेने जाह। दूध दुहा कऽ नेने आबह।

(शंकर जाइत छथि। स्त्रीक प्रवेश)

स्त्री-(अत्यन्त प्रसन्न होइत) ऎ, दिन फिरि गेल।

पं०-से की?

स्त्री-घरमे अनधन लक्ष्मी आबि गेलीह।

पं०-से कोना ?

स्त्री-बाड़ीमे खम्हारु उखाड़ैत छलिऎक कि खन्तीसॅं ठन्न दऽ बजलैक। माँँटि हटा कऽ देखैत छिऎक त कलशक कनखा ! भरि कऽ असर्फी छैक ।

पं० वास्तव मे ?

स्त्री हम फूसि कहब ? तेना कऽ गाड़ल छैक जे हाथ सॅं टकसौने नहि टकसैत छैक ।

अहाँँ नीक जकाँँ देखि लेलिऎक अछि ? सोने थिकैक ?

स्त्री - भला सोन नहि चिन्हबैक ? देखू , एकटा नेने आएल छी । (पं० जी तजबीज कय देखैत छथि।)

पं० - हॅं , स्वर्णे थिकैक । कतेक रासे हेतैक ?

स्त्री - आब सौंसे कलश बहार होइक तखन ने बुझिऎक ।

पं० - वेश, त जाउ । बहार कैने आउ । अपना बुतें हैत कि गोपिया कैं आबय देबैक ?

स्त्री - भला कहू त ? एहनो एहन वस्तु लोक अनका देखबैत छैक ? हम अपने उखाड़ि लबैत छी । (झटकलि जाइ छथि)

पं० - (स्वगत) ई दैवी कृपा बुझि पड़ैत अछि । एखन अतिथि-सत्कारक हेतु घर मे एकटा कैंचा नहि छल । आब मर्यादा रहि गेल । अहा ! एहि देवी कैं हम आइ धरि एकोटा आभूषण नहि देलिऎन्ह । परन्तु तथापि कहियो मन नहि छोट नहि कैलन्हि । एहि देशन गृहणी कैं भूषणक प्रयोजने की ? ओ त स्वयं भूषण होइत छथि ।

(शंकरक प्रवेश । खाली लोटा नेने ।)

शं० - बाबूजी, दूध त नहि भेल । गोपिया कें जेठरैयत कामथ पर लऽ गेलथिन्ह अछि ।

(स्त्रीक प्रवेश। कलश आबि कऽ राखि दैत छथिन्ह।)

स्त्री-एहिमे गचि कऽ अशर्फी भरल छैक। कलश उठौने नहि उठैत छैक।

पं०-(विचार करैत) एहि स्वर्ण मुद्राक की होमक चाही?

स्त्री-सभसॅं पहिने त हमर घृत मङबा दियऽ जे पाहुन लेल सोहारी छनाइन। (एकटा अशर्फी दैत) शंकर, हे, ई लैह। दौड़ल मोदीक ओतय चलि जाह, एक सेर घृत....

पं०-थम्हू, थम्हू। ई मुद्रा एखन अनामति रहत। शंकर, ई लोटा बन्धक राखि कय घृत नेने आबह।

(शंकर जाइत छथि)

स्त्री-(अप्रतिभ होइत) ओहि लोटामे शंकर पानि पिबैत छलाह। (कनेक संकुचित होइत) आब बंधक रखबाक प्रयोजन की?

पं०-(गम्भीर मुद्रामे)ई कलश नहि जानि ककर धरोहरि थिकैक। आनक संचित कैल द्रव्य हमरा लोकनि अपन काजमे लगाबी से उचित नहि। धर्मशास्त्रक सिद्धांत छैक जे एहन द्रव्य राजकोषमे समर्पित कऽ दिऎक। राजा ओकरा प्रजाक उपकारमे लगाबथि। (स्त्रीकें उदास होइत देखि) की, अहाँँक मनमे विषाद त नहि होइत अछि?

स्त्री-नहि। जखन शास्त्रक एहने आज्ञा छैक तखन अनकर धन लय अधर्मक भागी के बनौ?

पं०-(प्रसन्न होइत) आब हम निश्चिन्त भेलहुँँ। कलशकें मुनि कऽ राखि दिऔक। ओकरा अनामति राजमे पठा देबैक।

(शंकर बाटीमे घृत लऽ कऽ अबैत छथि।)

पं०-(स्त्रीकें) आब अहाँँ चटपट सोहारी छानि लियगऽ। अतिथिकें भोजन करैबामे विलम्ब नहि होमक चाही। (स्त्री जाइत छथिन्ह।)

पं०-शंकर, काल्हि तोरा राज-सभामे जाय पड़तौह।

शं०-जे आज्ञा।

पं०-चलह, दलानपर। पाहुनकें देखिएनगऽ।

(दुहू गोटे जाइत छथि।)

तृतीय दृश्य

मिथिलेशक राजसभा-महाराज सिंहासनपर बैसल छथि। दरबार लागल छैन्ह। एक गायक तानपूरापर गबैत छथि।

(काफी)

          धन्य ई मिथिलेशक दरबार।
          लक्ष्मी तथा सरस्वती दूहू छथि जहॅं एकाकार। धन्य०
          जनिक विमल वंशक विरुदावलि विदित सकल संसार।
          वेद विहित शासन करैत छथि जे नृप विद्यागार। धन्य०
          गो-ब्राह्मण-रक्षक दीनक पालक धर्मक अवतार।
          करथि निरन्तर प्रजा वर्गकें धन-जन सौं उपकार। धन्य०
          सदा सनातन रीति-नीति सौं पालथि शुचि आचार।
          उचितक त्याग करथि नहि कहियो तजथि न कुल व्यवहार। धन्य०
          पंडित गुणी विशिष्ट व्यक्तिकें करथि सदा सत्कार।
          विद्वानक आदर करबामे जनिका हर्ष अपार। धन्य०
          दानी एहन हैत के जगमे के अछि एहन उदार?
          आर्त्त-दीनकें एना करै अछि दोसर के उद्धार। धन्य०
          कीर्त्ति-पताका होइछ जिनकर दिन-दिन जग विस्तार।
          युग-युग जीबथु अमर नाम कय सुखी रहथु सरकार। धन्य०
        

(संगीतक अनन्तर राजपंडित उठि कय)-श्रीमान्। एकटा नेना दरबार मे उपस्थित भेल छथि से किछु निवेदन करय चाहैत छथि।

महाराज-वेश। (बालक शंकर सामने आबि कय अभिवादन करैत छथिन्ह और आगाँमे कलश राखि पत्र दैत छथिन्ह।)

मंत्री पत्र पढि कहैत छथिन्ह-सरकार, सरिसवक एक ब्राह्मणक भूमिसॅं एक कलश अशर्फी बहराएल छन्हि सैह राजकोषमे जमा करबाक हेतु पठौने छथि।

(दरबारमे)-साधु साधु! धन्य ब्राह्मण! ओ के थिकाह?

महा०-(शंकरसॅं) अहाँक नाम?

शं०-शंकर।

महा०-किनकर बालक।

शं०-पं० भवनाथ मिश्रक।

राजपंडित-श्रीमान्। सम्प्रति ओहन विद्वान देश भरिमे केओ नहि अछि और संतोषी तेहन छथि जे सवा कट्ठा बाड़ी मात्र छैन्ह ताहीसॅं निर्वाह करैत छथि। ओ ककरोसॅं किछु नहि मॅंगैत छथिन्ह। तैं अयाची मिश्रक नामसॅं प्रसिद्ध छथि। सरकार त हुनकर नाम सुननहि हैबैन्ह।

महा०-हॅं, हॅं। वैह थिकाह? अहा! धन्य छथि। एहन विद्वानक पुण्य सॅं ई मिथिला देश तीर्थ बनल अछि। मंत्री, कतेक स्वर्ण-मुद्रा छैक?

(मंत्रीक संकेतसॅं दीवान जी आगाँ बढि ओ कलश उझिलैत छथि तथा जल्दी-जल्दी अशर्फीक थाक लगबैत गनैत छथि।) सरकार एक हजार आठ टा बड़का मोहर छैक।

महा०-(राज पंडितसॅं) एहि द्रव्यक की होमक चाही?

राज पं०-कोनो लोकोपकारी कार्यमे लगाओल जाय। जाहिसॅं ओहि ठामक जनताकें विशेष उपकार होइक।

महा०-हमर विचार जे ओहिठाम एक विद्यापाठ स्थापित कैल जाय जाहिमे विद्यार्थीगणकें निःशुल्क शिक्षा ओ भोजन भेटैन्ह। विद्यालय ओ सत्रमे और जे खर्च पड़तैक से राज्यसॅं देल जैतैक।

दरबारी सभ-बहुत उत्तम विचार!

राज पं०-ई विद्यापीठ हुनकहि नामपर खोलल जाय-अयाची विद्यापीठ।

महा०-मंत्री! एकर प्रबंध शीघ्र होमक चाही।

मंत्री-जे आज्ञा।

महा०-बालक! अहाँ की पढैत छी! एकटा श्लोक त सुनाउ।

शं०-सरकार, अपन बनाओल की अनकर?

महा०-(आश्चर्य) अहाँ एही अवस्थामे श्लोक-रचना करैत छी! बेश, त बना कऽ सुनाउ त एकटा।

शं०-

         बालोऽहं जगदानन्द ! नमे बाला सरस्वती
         अपूर्णे पञ्चमे वर्षे वर्णयामि जगत् त्रयम्।
        

महा०-(चकित होइत) वाह! की अपूर्व संस्कार! एहन नेनाकें पुरस्कार भेटक चाही।

राज पं०-अवश्य।

एक दरबारी-ई श्लोक हिनकर बनाओल कथमपि नहि भऽ सकैत अछि। निश्चय केओ सिखा पढा कऽ विदा कैलकैन्ह।

दोसर दरबारी-यदि ई वास्तवमे श्लोक बनबैत छथि त एही ठाम समस्यापूर्त्ति कऽ कऽ देखाबथु।

महा०-की औ बालक! अहाँ तत्काल समस्या पूर्त्ति कऽ सकैत छी?

शं०-सरकार, ऎखन परीक्षा लऽ लेल जाय।

महा०-वेश, त कोनो समस्या दिऔन्ह।

(दुनू दरबारी आपसमे विचार कय)- हमरा लोकनि एकटा समस्या दैत छिऎन्ह-सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्

शं०-(तुरन्त)

          चलितश्चकितश्छन्नः प्रयाणे तव भूपते
          सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्
        

सकल दरबारी-वाह! वाह! वाह! की विलक्षण चमत्कार! (महाराज मुग्ध भय अपन रत्नमाला उतारि बालकक गरमे पहिरा दैत छथिन्ह। दुष्ट दरबारी हाथ मलैत छथि।)

महा०-शंकर! अहाँक माता पिता धन्य छथि जे अहाँ सन बालक-रत्न भेटलैन्ह अछि। हम आशीर्वाद दैत छी जे अहाँ अपने पिता समान यशस्वी होउ और देशक गौरव बढाउ।

(शंकर हाथ जोड़ि विनयपूर्वक अभिवादन करैत छथिन्ह।)

महा०-(राजपंडितसॅं) हिनक पिता वस्तुतः एहि देशक रत्न थिकाह। हमरा अभिलाषा होइत अछि जे हुनकासॅं

राज पं०-(सभय) परंतु श्रीमान्! ओ तऽ कतहु जाइ नहि छथि।

एक दरबारी-ऎं! एतबा दर्प!

दोसर-एहन अभिमान!

महा०-हम स्वयं जा कऽ हुनक दर्शन करबैन्ह। जाहिठाम ओ सवा कट्ठा भूमि अछि से पृथ्वी स्वर्ग तुल्य थीक। मंत्री, हौदा कसबाउ।

राज पं०-ई विचार महाराजेसॅं हो!

सम्पूर्ण दरबार-महाराजक जय हो!

चतुर्थ दृश्य

(पं० अयाची मिश्रक घर। पंडित अयाची मिश्र कोनो प्राचीन ताल-पत्रमे लिखित ग्रन्थक मनन कय रहल छथि। चारूकात बहुत रासे पुस्तक धैल छैन्ह। स्त्री एक सीकीक डालीमे पिउर रखने टकुरी काटि रहल छथिन्ह।)

स्त्री-(टकुरी कटैत) एखन धरि शंकर ऎलाह नहि!

पं०-अबितहि हैताह।

स्त्री-द्रव्य लऽ गेल छथि तैं अन्देशा होइछ।

पं०-एखन देशमे ततबा धर्मक लेश छैक। कोनो चिन्ता नहि।

(नेपथ्यमे घंटा ध्वनि)

स्त्री-बुझि पड़ैत अछि जेना हाथी आबि रहल हो।

पं०-हॅं, प्रायः एही दिस आबि रहल अछि।

(शंकर अबैत छथि)

शं०-(पैर छूबि) बाबूजी, मिथिलेश स्वयं ऎलाह अछि।

पं०-ऎं! मिथिलेश? ओ किएक कष्ट कैलन्हि? (हड़बड़ा कऽ उठैत छथि। स्त्रीकें)-ऎ! झट द ई सभ समेटू। महाराज आबि रहल छथि। छोटकी चौकीपर नवका कुशासन बिछा दिऔन्ह। शंकर, पैर धोबक हेतु पीढी पानि आनह।

(शंकर मायकें प्रणाम कय एक लोटा पानि, पीढी तथा खड़ाम अनैत छथि। पंडिताइन पुस्तक सभकें यथास्थान राखि आसन लगबैत छथि।)

पं०-ऎ! हम अरियाति अनै छिऎन्ह। अतिथिकें सत्कार कथी लऽ कऽ करबैन्ह?

स्त्री-घरमे जनउ सुपारी त अछि। परन्तु....

पं०-जलपानक आग्रह कथी लऽ कऽ करबैन्ह? घरमे मखान हैत?

स्त्री-चारि गोट रहैक से लक्ष्मी-पूजामे भऽ गेलैक।

पं०-बाड़ीसॅं किछु बहराएत?

स्त्री-दू एकटा शरीफा पाकल होइ से सम्भव!

पं०-(प्रसन्न भय) वेश, त अहाँ सराइमे जलपान पठा देब! शंकर, तोहूँ जाह।

(स्त्री और शंकर दुनू भीतर जाइत छथि। पं० अयाची मिश्र महाराजकें बाहरसॅं अरियाति अनै छथिन्ह।)

पं०-बैसल होऔ (हाथसॅं लोटा उठाय पैर धोआबक हेतु उद्यत होइ छथिन्ह।)

महा०-(हाथसॅं लोटा लैत) हाँ-हाँ! ई की! अपने श्रेष्ठ थिकहुँ। हम त अपनेक दर्शनक हैतु आएल छी।

पं०-हम त सरकारक एक साधारण प्रजा थिकहुँ।

महा०-अहाँ सन प्रजा जाहि देशमे रहथि से देश धन्य थीक।

पं०-और अपने सन सहृदय राजा जाहि राज्यमे रहथि से राज्यो धन्य थीक।

(दुहू गोटे बैसैत छथि।)

महा०-हम अपनेसॅं किछु माङय आएल छी।

पं०-हम कोन योग्य छी? तथापि जहाँ धरि साध्य हैत ताहिमे अन्यथा नहि करब।

महा०-हमरा किछ सेवा करबाक आज्ञा भेटौ।

पं०-कोन सेवा?

महा०-अपनेक नामसॅं ई परगन्ना लिखि देबक चाहैत छी।

पं०-परगन्ना लऽ कऽ हम की करब? सवा कट्ठा ब्रह्मोत्तर अछि। ओहिमे जे साग-पात बहराइत अछि ताहिसॅं उदरपूर्त्ति भऽ जाइत अछि। तखन बेशी भूमिक प्रयोजने की?

महा०-तखन और जे इच्छा हो सैह आदेश कैल जाय।

पं०-महाराज! हमर नाम थीक अयाची मिश्र। आइ धरि एहि जीवनमे ककरोसॅं किछु याचना नहि कैल। साठि वर्ष एहि तरहें निमहि गेल। तखन आब थोड़ेक दिनक हेतु एहि संकल्पकें भंग कऽ दी, ई उचित नहि। अपनेक दानशीलता सॅं लाभ उठाबक हेतु अनेको ब्राह्मण भेटि जैताह। हमर टेक आब टूटय नहि सैह प्रार्थना।

महा०-धन्य थिकहुँ अपने। एतबा दिनसॅं हमर हाथ सर्वदा ऊपर रहैत आएल अछि। आइ हम अपनेक समक्ष नत भऽ गेलहुँ।

पं०-ई अपनेक सौजन्य थीक। (तावत शंकर एक सराइमे दू टा पाकल शरीफा नेने अबैत छथि।)

पं०-मिथिलेश जानि कऽ कहबाक साहस त नहि होइत अछि। परन्तु, एखन अपने हमर अतिथि रूपमे छी। तैं एतबा साहस करैत छी। (आगाँमे सराइ राखि दैत छथिन्ह।)

महा०-ई अनुपम प्रसाद थीक। अमृत तुल्य। एकरा हम अवश्य ग्रहण करब। परन्तु एहि प्रसादकें हम सभ गोटे बाँटि कऽ खाएब, तैं अपना संग नेने जाएब। (महाराज आदरपूर्वक शरीफाकें उठा लैत छथि।)

शंकर-गाछमे बहुत रासे फरल छैक। और नेने आउ?

पं०-बताह! एतेक रासे पढि गेलाह, तथापि नेनमति नहि छुटलौह अछि?

महा०-अपने त हमरासॅं नहिए किछु मङलहुँ। आब हमही अपनेसॅं किछु मङैत छी।

पं०-मिथिलेश और हमरासॅं माङथि?

महा०-हॅं। अपनेक बाड़ीक साग-पातक जे मूल्य अछि से हमर सम्पूर्ण रत्न-भंडारक नहि। हम अपनेसॅं यैह मङैत छी जे ओहि बाड़ीक थोड़ेक साग हमरा भेटय।

पं०-शंकर ! (शंकर दौड़िकऽ जाइ छथि और एक चगेंरी साग तोड़िकऽ नेने अबैत छथि। महाराज आदरपूर्वक दोशालामे लपेटि लैत छथि। पं० जी भीतर जा कऽ सराइमे जनेउ सुपारी नेने अबैत छथिन्ह।)

महा०-हम अपनेक दर्शनसॅं कृतार्थ भेलहुँ।

पं०-और अपनेक चरणसॅं ई कुटी धन्य भऽ गेल।

(सभगोटे उठैत छथि।)

पञ्चम दृश्य

(अयाची मिश्रक बाड़ी। शंकर तथा भवानी साग तोड़ैत छथि। पं० अयाची ओहि ठाम बान्हल धेनुक पीठपर हाथ फेरैत छथि और ओकरा मुँहमे सागक डाँट-पात दैत छथिन्ह।)

शं०-बाबूजी! हमरा जे पुरस्कार भेटल से त नहि देखल? (माला बहार कय देखबैत छथिन्ह।)

पं०-ई रत्नक माला थिकैक। राजा महाराजक पहिरबाक वस्तु।

स्त्री-(हाथमे माला लय) एकर कतेक मूल्य हैतैक?

पं०-हमरा लोकनि की बुझबैक? परन्तु लाख टकासॅं कम त नहिए हैतैक।

स्त्री-तखन त एहीसॅं सभटा दुःख-द्रारिद्रय पार?

पं०-ताहिमे कोन सन्देह? अहाँ भाग्यवती छी जे पुत्रक प्रथमे कमाइमे जीवन भरिक कष्ट दूर भऽ गेल।

स्त्री-(एकाएक किछु स्मरण कय) अरे, ई त बेश मन पड़ल, नहि त भारी पाप लगैत!

पं०-से की?

स्त्री-ई धन हम नहि राखि सकैत छी।

पं०-से किऎक?

स्त्री-जाहि दिन शंकरक जन्म भेल रहैन्ह तहिया चमैनिकें निछाउर देबाक हेतु घरमे किछु नहि रहय।

पं०-तखन ?

स्त्री-तखन ओ करार करा लेलक जे हिनक पहिल कमाइ जे होइन्हि से हमरा दऽ देब।

पं०-तखन ऎखन ओकरा बजा पठबिऔक।

स्त्री-शंकर, जाह, मरनी मायकें बजा लबहौक।

(शंकर दौड़ल जाइ छथि।)

पं०- ई त बड़ रक्ष रहल जे अहाँकें समयपर मन पड़ि गेल। नहि त भारी प्रत्यावाय लगैत।

स्त्री-अहाँ 'प्रथम कमाइ' शब्द जे कहलिऎक ताहिसॅं मन पड़ि गेल। आब मरनी माय नेहाल भऽ जाइति ।

(शंकरक संग मरनी मायक प्रवेश)

स्त्री - मरनी माय । शंकरक निछाउर त तोरा बाँकिए छौह !

मरनी माय - की हैतैक मालकिनी ? जखन ई कमाय लगताह ` ` ` `

स्त्री - हिनक पहिल कमाइ घर मे आबि गेल से लैह । ( माला हाथ मे दैत छथिन्ह ) तोरा ऋण सॅं आइ उऋण भऽ गेलहुँ ।

मरनी माय - ई लाल पियर नग लऽ कऽ हम की करब ? एहि सॅं बरु दू पसेरी मडुए दऽ दितहुँ त `` ` ` ` ।

स्त्री - बताहि ! ई बेचला पर एक मोटा रुपैया भऽ जैतौह ।

म० माय - ओतेक रुपैया लऽ कऽ हम की करब ?

स्त्री - और नहि किछु त एकटा पोखरिए खुना लिहऽ । नाम त रहि जैतौह ।

म० माय - हॅं, मलकीनी, ई त बेस कहल । अहीं सभक प्रसादें किछु हमरो धर्म भऽ जाएत । भगवान एहने बेटा सभ कैं देथुन्ह ।

छठम दृश्य

(अयाची मिश्रक डीह । तत्समीप चमैनिया पोखरिक भीड़क किछु अंश ।)

एक ब्राह्मण ओहि डीहपर आबि भक्तिपूर्वक थोड़ेक माटि लय माथ मे लगबैत छथि । तदनन्तर हाथ जोड़ि वन्दना करैत छथि -

         हे  डीह ! अमर किर्त्तिक  निधान !
        जकरा  कण-कण मे  स्वाभिमान
        थिक  विप्र  अयाचिक   वर्त्तमान
        से माटि  थीक  चन्दन     समान
        

           सावा   कट्ठा   बाड़ीक  साग
           रखने छल जे ब्राह्मणक पाग
           तकरा सन बाड़ी कोन  अन्य
           सन्तोषमयी  तों  भूमि  धन्य
        

          हे  धन्य  धन्य  प्राचीन  डीह ।
          तों  पूजनीय  धरणी थिकीह ।
          जकरा पर कैलन्हि नाम अमर,
          भवनाथ, भवानी  ओ  शंकर ।
        

         पोखरि   चमैनिया   विद्यमान
         एखनो करैत अछि कीर्त्तिगान
         भूदेव   तथा   भूपति   देशक
         होइत छलाह  केहन   महान  !
        

          प्रकटाउ  अयाची  मिश्र  फेरि
          जानू   शंकर  कें   एक    बेरि
          गृहिणी पुनि होथि भवानी सन
          आदर्श  भेल  जिनकर जीवन !
        

         हे  डीह !  सत्वगुण  मुर्त्तिमान
         पदरज  जकरा  मे   विद्यमान
         होएत   ब्रह्मर्षिक  ठाम   ठाम
        हे धूलि !अहाँ कैं अछि प्रणाम !
        

                          (पटाक्षेप)