लेखक : हरिमोहन झा

आइ पण्डितजीक आङनमे हूलिमालि उठल छैन्ह। कारण जे एक पाहुन आबि गेल छथिन्ह। सेहो विशिष्ट लोक। दुलारपुरक चौधरी। हुनक सेवा-सत्कार मे कोनो भाङठ नहि होमक चाही। परन्तु समस्या ई जे पं० जी कैं कचहरीक काज सॅं ऎखन लहेरियासराय जैबाक छैन्ह। आब की हो?

पंडिताइन कहलथिन्ह और और ओरिआओन त हमरा लोकनि सभटा कय देबैन्ह। एकटा भाँटा-अदौड़ी भऽ जैतैन्ह। चारपर सजमनि छैहै। भॅंटवर हैतैन्ह। तिलकोरक पात तरि देबैन्ह। तखन बड़ - बड़ी, पापड़, तिलौरी। परन्तु भारी बात त ई जे भोजनक हेतु बजाबय के जैतैन्ह?

पं० जी किछु सोचि क बजलाह - जखन सभटा पीढ़ी पानि ठीक भऽ जाय तखन बचनू कें कहबैक । बजा अनतैन्ह । पाँच वर्षक अछि तैं की । बेस ढिठगर अछि ।ॱॱॱॱ की हौ बचनू ! पाहुनकें बजा अनबहुन से हैतौह कि ने ? कहिअहुन्ह- 'चलू, खाय लेल ।' तखन हम तोरा लेल बाजारसँ लट्टू नेने ऎबौह ।

ई कहि पं० जी बचनूकेँ दुलारसँ चुम्मा लेलथिन्ह और पनही पहिरि दलानपर ऎलाह। चौधरीजीके कहलथिन्ह - चौधरी जी, कहैत त संकोच होइत अछि। परन्तु एहन संयोग जे आइए एकटा मामिलाक तारीख छैक, से हमरा दस बजे कचहरी पहुँचब जरूरी अछि। अपने कैं एतय एसकर छोड़ि कऽ जाएब त महा अनर्गल लगैत अछि। परन्तु कैल की जाय? हम सायंकाल धरि वापस आबि जाएब। यदि अपनेक आज्ञा हो त ....

चौधरी जी कहलथिन्ह-नहि, नहि, कोनो बात नहि। अपने अवश्य गेल जाओ। ई त हमर अप्पन घर थीक। और धियापुता छैहे। संध्याकाल फेर गप्प हैबे करत। अपने कोनो बातक चिन्ता नहि कैल जाय। गेल जाओ।

पं० जी पुनः एक बेर उचिती ओ क्षमाप्रार्थना करैत झटकल कचहरी दिस बिदा भेलाह।

आब आङनक हाल सुनू। पंडिताइन चारू देयादिनी मिलि भानस-भातमे जुटि गेलीह। ओसारापर छनन-मनन होमय लागल। और थोड़बे कालमे बड़-बड़ी ओ तरुआक पथार लागि गेल। चारूजनी तेहन अपस्याँत रहथि जे किनको अपना देहक होश नहि रहैन्ह। सभ घामे पसीने तर। मुँहो धोएबाक अवकाश नहि। परन्तु घरक पुतोहु कर्णपुर वाली कनियाँ अविचलित भावसॅं स्नान कय अपन केश थकरि रहल छलीह। ई देखि सासु लोकनि अपनामे कनखी मटकी चलाबय लगलीह। आशय ई जे हमरा लोकनि त फाटि रहल छी और हिनका यैह सीटक बेरि छैन्ह। परंच कनियाँक स्वभाव सभ कैं जानल छलैन्ह, तैं किनको जोरसॅं बजबाक साहस नहि भेलैन्ह।

ता दलानपर पाहुन कैं झक्क लागि गेल छलैन्ह। परन्तु दैवी लीला! बचनू कोम्हरोसॅं खेलाइत-धुपाइत ओहिठाम पहुँचि गेलाह। हुनका ने हरलैन्ह ने फुरलैन्ह, पाहुनक पैर धऽ कऽ उठाबय लगलथिन्ह- की औ पाहुन! सुतले रहब? खाय लेल नहि चलब?

चौधरीजी धड़फड़ा कऽ आँखि मिड़ैत उठलाह। पुछलथिन्ह- की? भऽ गेलैक? बेस, चलू।

चौधरीजीक पैर खड़ाम खोजय लगलैन्ह। परन्तु से नहि छलैन्ह। एखन घरबैया रहितथि त एहन त्रुटि नहि होइत, ई सोचैत चौधरीजी खालिए पैर बचनूक संग विदा भऽ गेलाह।

ओम्हर आङनमे ककरो खबरि नहि जे बचनू पाहुन कैं बिझौ करौने आबि रहल छथि। फलस्वरूप तमाशा लागि गेल। ओसारापर नवहथवाली पलथा लगौने सजमनिक चक्का कटैत छलीह। एकाएक देखै छथि जे बीच आङनमे पाहुन ठाढ भेल छथि। ई देखितहि ओ पड़ैलीह। भारी भरकम शरीर। तलमलाइत दौड़लीह से बिसहथवालीसॅं टकरा गेलीह। दूनू गोटाक नाक थौआ भऽ गेलैन्ह। बिसहथबाली ठाढि भऽ कऽ अदौरी भाँटाक झोर लाड़ैत छलीह। ओहो करछु फेकि, आँचर सम्हारैत, कोनियाँ घरमे जा नुकैलीह। भटसिम्मरिवाली घाठि फेनैत छलीह। ओहो घठियाहे हाथे मरीत काढ़ि दुरुखा दिस पड़ैलीह। पंडिताइन आङन मे पीढीपर बैसि नहाइत छलीह। एक लोटा पानि देहपर देने रहथि और दोसर लोटा ढारैत रहथि तावत ई कांड उपस्थित भऽ गेल। ओ जहिना भीजल-तीतल रहथि तहिना लत्ते- पत्ते पछुआड़ दिस पड़ैलीह।

एक क्षणमे तेहन भगदड़ मचि गेल जेना कोनो बाघ आबि गेल हो। चौधरीजी बीच आङनमे किंकर्त्तव्यविमूढ ठाढ रहलाह । पाछाँ फिरि क' बचनूक दिस तकलन्हि, परन्तु एहि बिहाड़िमे बचनू कखन लंकल' क' पड़ैलाह तकर पता नहि । चौधरीजी 'शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ' जकाँ गह्वरित भेल ठाढ छलाह । ओ प्रायशः फिरि क' दलान पर चलि जैतथि, परंच एही कालमे एक अदभुत घटना भ' गेल । आङनसँ और-और स्त्रीगण त पड़ा गेलीह परन्तु कर्णपुरवाली कनियाँ दही चूड़ा चीनी जलपान करैत छलीह से करिते रहलीह। पछुआड़सॅं सासु थपरी पाड़ि इशारा देमय लगलथिन्ह। कनियाँ घरसॅं दूनू देयादिनी चुटकी बजाबय लगलथिन्ह। दुरुखासॅं भटसिम्मरिवाली गर जाँति कऽ कहलथिन्ह-ऎ! अहाँके पड़ा नहि होइ अछि? पाहुन देखैत छथि। केहन गब्बर छी?

परन्तु कर्णपुरवाली किनको दिस कर्णपात नहि कैलन्हि। ओ निर्बिकार भावसॅं पाहुनकेँ सम्बोधित कय बजलीह-चौधरीजी! ओना थकमकाएल ठाढ किऎक छी आउ।

चौधरीजी स्तम्भित रहि गेलाह। मैथिलक आङनमे अट्ठारह वर्षक नवयौवना पुतोहुमे एतबा साहस भय सकैत छैक, ई कहियो कल्पनामे नहि आएल छलैन्ह। आइ जीवनमे प्रथम बेर ई दृश्य देखि विस्मय-विमुग्ध भऽ गेलाह।

युवती अपन जलखइ समाप्त करैत कहलथिन्ह-अहाँकेँ बचनू किछु पहिनहि बजा अनलक। बेस, कोनो हर्ज नहि। अहाँ ताबत बैसू। हम पाँच मिनटमे सभटा ठीक कय दैत छी।

ई कहि युवती हुनका एक छोट चौकीपर बैसाय हाथ मुँह धोबक हेतु एक लोटा जल देलबिन्ह और आसन लगाकऽ थारीमे भात साँठय लगलीह। चौधरीजी लाजे कठुआ कऽ धड़ नीचा कय लेलन्हि। एहन अभूतपूर्व दृश्य देखि स्त्रीगण दाँत तर जीभ काटय लगलीह। पंडिताइन तामसे भूत भऽ गेलीह। ओ बारंबार पछुआड़ मे खखसय लगलीह। अभिप्राय ई जे -हे औ पाहुन! कनियाँ त सहजें बताहिए अछि, परन्तु अहाँ त सज्ञान छी। आबो जा कऽ कनेकाल बाहर बैसूग'। एम्हर सभ ठीक भऽ जाएत तखन आयब! ई बतही कोना परसत, की देत, की नहि देत, तकर कोन ठेकान?

परन्तु पंडिताइन खखसिते रहि गेलीह। एम्हर कर्णपुरवाली बेस सुभ्यस्त भऽ चौधरीक संग गप्प करैत हुनका भोजन करबय लगलथिन्ह। पछुआड़मे पंडिताइन छाती पीटि बाजय लगलीह-बाप रे बाप। ई कलियुगही जग जीति लेलक। एहि घरक आइ नाक काटि लेलक। हमरा लोकनि एना करितहुँ तॅं सासु जिबितहि माटि तर गाड़ि दितथि!

कोनियाँ घर मे दूनू देयादिनी फुसफुसाय लगलीह-कुलबोरना नाश कऽ देलक। हमरा सभ भरि थारी भात जाँति कऽ परसितिऎक। से ई छुच्छी पाव भरि चाउरक भात देलकैक अछि। बापरे बाप! पाहुन मनमे की कहैत हैतैक!

देखथुन्ह ऎ दीदी ! तरकारी जे चीखि क' दैत छैक हथकट्टीकेँ जी नहि सहैत छैक । हे देखथुन्ह, सभटा तरकारी एके तश्तरीमे परसि देलकैक । हमरा लोकनि सात टा बाटी लगबितिऎक ।

दुरुखासँ भटसिम्मरिवाली कनफुसकीक स्वरमे बाजय लगलीह-हे भगवान ! नैवेद्य उत्सर्गक हेतु पात कहाँ पड़लैन्ह ? घृत फराक बाटीमे परसल जइतैन्ह ।

ताबत कर्णपुरवाली घी कड़कड़ा क' दालि-भात पर ध' देलथिन्ह ।

ओम्हर पछुआड़मे पंडिताइन पुतोहुकेँ गारि देबय लगलीह - जो गय धोंछी ! केशो झाँपि लेबै से नहि होइत छौ । माथ उघारने बैसल छैँ । आब कनेक पाहुनकेँ जाय दहीक तखन ने तोहर दशा करैत छिऔक ।

कर्णपुरवाली पंद्रह मिनटमे पाहुनकेँ खोआ-पिया कऽ विदा कऽ देलथिन्ह।

पाहुनक बाहर होइतहि चारू सासु पुतोहुपर छुटलन्हि। परन्तु कर्णपुरवाली कोनो बात मे अपन गलती मानय लेल तैयार नहि भेलथिन्ह। तखन पंडिताइन खिसिया कऽ पीढीसॅं अपन कपार फोड़ि लेलन्हि। देयादिनी सभ हरदि-चून लगाबय लगलथिन्ह। बचनू कतय पतनुकान लेलक तकर ठेकान नहि। कनियाँ कालेजक पतासॅं अपना स्वामीकेँ चिट्ठी लिखय लगलीह। केओ अन्नजल ग्रहण नहि कैलक।

पं० जी संध्याकाल गाम ऎलाह। ता पहुन जलाशय दिस गेल छलाह। पं० जी आङन आबि देखै छथि त चारू कात सुन्न। पंडिताइनकेँ सोर कय पुछलथिन्ह- ऎ की बात छैक? ई कपार पर टोपर किएक लगौने छी।

पंडिताइन के पहिने त कंठे नहि फुटलैन्ह। पश्चात् आँचरसॅं नोर पोछैत बजलीह-कर्मक बात! आइ एहि घरक मर्यादा नष्ट हैबाक छलैक से नष्ट भऽ गेलैक।

पं० जी सशंकित चित्तसॅं बजलाह- से की?

ततः पर पंडिताइन कनैत-कनैत सभटा कथा आद्योपान्त कहि सुनौलथिन्ह। पं०जी किछु काल धरि गुम्म रहि गेलाह। तदनन्तर दीर्घ श्वास छोड़ैत बजलाह- अनका बतहे हॅंसी, अपना बतहे कानी। एहि बतहीकेँ नैहर पठा दैबक चाही। नहि त समाजमे रहब कठिन भऽ जाएत। कनटिरबूक दोसर विवाह करौनाइ आवश्यक भऽ गेल।

तावत् पाहुन पोखरि दिससॅं आबि गेल छलाह। पं० जी संकुचित होइत हुनका लग जा कहलथिन्ह- चौधरीजी, हमरा परोक्षमे त आइ अपनेकेँ बड्ड कष्ट भेल।

चौधरीजी बजलाह- नहि, कष्ट किऎक हैत?

पं० जी किछु अप्रतिभ होइत कहलथिन्ह- हमरा घरमे एकटा कनियाँ छथि से किछु झनकाहि जकाँ छथि! ओहि बताहिसॅं यदि किछु अनट-बिलट भेल हो त से प्रकाश नहि कैल जाय।

चौधरीजी नाकक पूरामे नसि लैत गंभीर भावसॅं बजलाह-हमरा त एहि घरमे सभसॅं बेसी सम्मत वैह बूझि पड़ैत छथि। बूझि पड़ल जेना हमर अपने कन्या होथि। यैह चाही। आइ हमरो आँखि फुजि गेल। यदि प्रत्येक घरमे एहने तेजस्विनी बेटी-पुतहु बहराथि त फेर मिथिलाकेँ शिथिला के कहि सकैत अछि।

पं जी मुँह बौने अवाक् रहि गेलाह।