लेखक : हरिमोहन झा

पन्डितजी विद्यालयसॅं ऎलाह त देखै छथि जे डेरामे ताला बंद अछि। बाहर कलपर पनिभरनीकेँ पानि भरैत देखि पुछलथिन्ह- की गय! मलकीनी कतय गेलथुन्ह अछि ?

परन्तु ओ जेना सुनबाहिए नहि कैलकैन्ह। चमकि कऽ घैल माथपर उठौलक और दोसरा दिस विदा भऽ गेलि।

तखन पण्डितजी मनचनमाकेँ सोर कैलन्हि। ओ चबूतरापर बैसि तमाकक गर्दी बनबैत छल। पं० जी पुछलथिन्ह- रौ! मलकीनी कतय गेलथुन्ह अछि?

परन्तु मनचनमाक मुँहसॅं बाते नहि बहरैलैक।

पं० जी खिसिया कऽ कहलथिन्ह रौ! बजैत की होइ छौक?

मनचनमा किछु गोङिया कऽ बाजल, परन्तु पं० जीकेँ स्पष्ट बुझना नहि गेलैन्ह। तमसा कय कहलथिन्ह- रौ! कंठमे महादेव अटकल छथुन्ह की? एना गरा-बकौर किऎक लागि गेलौक अछि?

एहि बेर मनचनमा साहस कय बाजल ओ सिनेमा गेल छथि।

ई सुनितहि पं० जीकेँ लेसि देलकैन्ह। थरथर कॅंपैत पुछलथिन्ह-कखन गेलथुन्ह?

मन०-करीब दू-अढाइ बजे।

पं० जी- ककरा संग?

मन-एहिठामसॅं त एसकरिए गेल छथि।

आब पं० जीके नहि रहि भेलैन्ह। मनचनमाक कान पकड़ि कहलथिन्ह- रौ! तों किएक जाय देलहुन? दुनू साँझ अढाइ सेर कऽ गिरै छैं से एही खातिर? नमकहराम नहितन!

मनचनमा कहलकैन्ह मालिक! हमर हिसाब दऽ दिय। आब एहिठाम गुजारा नहि हैत। खेत खाय गदहा, मारि खाय जोलहा!

ई कहि मनचनमा चारमे खोंसल अपन कुर्ता उतारि कऽ पहिरय लागल।

ताबत पाछाँसॅं नहूँ - नहूँ डेग दैत सशंकित चित्तसॅं पंडिताइन अबैत दृष्टि-गोचर भेलीह। ओ चुपचाप आँचरसॅं कुंजी बाहर कय ताला खोलय लगलीह।

आब पं० जीक बुमकार छूटल-खबरदार जॅं आब एहि घरमे पैर रखलहुँ।

पण्डिताइन स्तंभित रहि गेलीह।

पं० जी कड़कि कऽ पुछलथिन्ह अहाँ कतय गेल छलहुँ ?

पण्डिताइन आर्त्त स्वरमे कहलथिन्ह कनेक 'झाँसीक रानी' देखय चल गेलिऎक। रातिमे त भानस-भातसॅं छुट्टी हैब कठिन। तैं कहलहुँ जे दिनेमे भऽ आबी।

पं० जीक अग्निवर्षा होमय लगलैन्ह- अहाँ सभ टा लाज-धाख घोरि कऽ पीबि गेलहुँ ! आँखिमे एकोरत्ती पानि नहि रहल? दिन दहाड़े पैर घालि कऽ विदा भऽ गेलहुँ! से की हम मरि गेल छलहुँ? और सिनेमा कि कोनो तीर्थ छलैक जे पुण्य लूटक हेतु धड़फड़ा कऽ विदा भऽ गेलहुँ। बाटमे कतेको लोक देखने हैत से सभ की कहने हैत? हमरा एहिठाम के नहि चिन्हैत अछि? अहाँ हमर नाक कटा देलहुँ!

पण्डिताइन गटगट सभटा सुनैत रहलीह।

पं० जी प्रश्न कैलथिन्ह-ककरा संग छलहुँ?

पण्डिताइन नम्रतापूर्वक कहलथिन्ह- वोकील साहेबक आङनसॅं सेहो छलथीन्ह।

पं जी पुनः वाण-वर्षा करय लगलाह- ओकिलाइन इनारमे खसि पड़तीह त अहूँ खसि पड़ब? सभ सखी झुम्मर पाड़य, लुल्ही कहय हमहूँ! अहाँ सिंह कटा कऽ पड़रूमे मिझराइत छी? खंजन चललीह बगराक चालि, अपनो चालि बिसरि गेलीह! देसी कुत्ती, विलायती बोल! अहाँ नव-नव चालि सिखैत छी? सिनेमामे एकसॅं एक गुंडा-अवारा रहैत अछि। बिना पुरुषें केओ नीक घरक स्त्री ओतय जाइ अछि? ओहिठाम टिकट के कटौलक? केओ चिन्हार त नहि भेटल?

पण्डिताइन किछु साहस कऽ कहलथिन्ह-टिकट त हम अपने कटा लेलिऎक। और चिन्हारमे एकटा कविराजकेँ देखलिऎन्ह।

पं० जीक क्रोधाग्निमे जेना घृत पड़ि गेलैन्ह। कविराज जी हुनक अनन्य मित्र छलथिन्ह। आइ ओ पण्डिताइनकेँ अपनहिसॅं सिनेमामे टिकट कटबैत देखि मनमे की बुझने होइथिन्ह? पं० जी ग्लानिसॅं मरय लगलाह। क्रोधान्ध होइत बजलाह-कुलटा ! राक्षसी ! बाप भरि जन्म सामवेद पाठ कैलथिन्ह और ई दुनू कुलक मर्यादा धो बहा कऽ कर्मनाशामे भसा ऎलीह! भला कविराज जी की कहन हैताह? आइ हमर पाग खसि पड़ल!

पण्डिताइन अपराधिनी जकाँ मूर्त्तिवत् ठाढि रहलीह।

पं० जी हुनका दिस आग्नेय नेत्रसॅं तकैत बजलाह-अहाँ ऎखन निकलि जाउ हमरा घरसॅं। अपन मोटा-चोटा बान्हू और जहाँ मन होय चलि जाउ। तावत् पर्यन्त हम एहि घरमे अन्न-जल ग्रहण नहि कय सकै छी।

ई कहैत पं० जी तमकि कय कविराज जी दिस विदा भेलाह। थोड़बे दूर पर कविराज जीक बासा रहैन्ह। जखन पं० जी हुनका पछुआड़मे पहुँचलाह तऽ भीतरसॅं कविराज जीक उत्तेजित स्वर सुनाइ पड़लैन्ह। पं० जी कान पाति कऽ सुनय लगलाह।

कविराज जी अपना पत्नीपर बरसि रहल छलाह- अहाँ भरि जन्म मूर्खा रहि गेलहुँ! हम कहैत छी जे अहूँ ओ फिल्म देखि आउ। आइ आखिरी दिन छैक। परन्तु अहाँके साहसे नहि होइत अछि। बिना रखबारकेँ कतहु जाइए नहि सकैत छी। मालजाल जकाँ सभठाम एकटा चरबाह चाही। एहि पशुजीवन सॅं त मरणे नीक।

पत्नी मैही स्वरमे उत्तर देलथिन्ह- सिनेमामे कतेक लोक रहैत छैक। गुंडा अवारा.....

कविराज जी भाषण देमय लगलाह - गुंडा अवारा कि अहाँ कें उड़ा क लऽ जाएत ? लोक देखि लेत ताहि सॅं कि अहाँक सौन्दर्य खिया जाएत ? जे देखत तकरा अहूँ देखि लेबैक । अपना कें लोक कऽ क बूझू । ई बीसम शताब्दी थिकैक । दुनियाँ बहुत आगाँ बढ़ि गेल छैक जे 'पैर देथि नहि चैखट बाहर , नहि एकसरि बहराथि । आनक आंगन अपर द्वीप सम जानि न कौखन जाथि ।' बल्कि आब ओ समय आबि गेल छैक जे 'पैर देथि ओ चौखट बाहर, खूब एकसरि बहराथि । घर आंगन सन बूझि रेलकेँ, कलकत्ता चलि जाथि।' और सिनेमा हाउस त एहि ठामसॅं पाँच मिनटक रास्ता छैक। जखन हम कहै छी तखन अहाँकेँ तारतम्य किएक होइ अछि?

पुनः मेंही आवाज सुनाइ पड़ल-हमरा बुतें एसकरि जाएब पार नहि लागत। केओ चिन्हार भेटि जाएत त की कहत? नहि, नहि, हमरा सॅं ई नहि हैत। एहि सॅं बरु कंठ दबाकऽ मारि दियऽ।

कविराजजी और अधिक उत्तेजित होइत बजलाह- मूर्खा! साहसहीना! हमरा खातिर अहीं बथाएल छलहुँ? एहीठाम पण्डिताइनकेँ देखू! आइ मैटिनीशो मे देखल- की शान सॅं जा कऽ 'लेडीज क्लास कऽ टिकट कटौलक जे वाह। की चुमकी! की फुर्त्ती! की तेजी! हम दू-मिनट धरि देखिते रहि गेलहुँ। और एक अहाँ छी! घंटा भरिसॅं हम कहि रह्ल छी जे अहूँ भऽ आउ, देखबा योग्य 'पिक्चर' छैक परन्तु अहाँक पैरे नहि उठैत अछि। अपना-अपना कर्मक बात पंडितबा अपने ओहन भुसकौल अछि, तकर स्त्री त एहन होशियार और हमरा कपारपर अहाँ सन बेवकूफ। धन्य भाग्य पण्डितबाक छैक जे ओहन स्त्री-रत्न भेटलैक अछि। झाँसीक रानी सन निर्भिक! ओहन वीरांगना हमरा भेटैत त पूजा करितिऎक। ओकर पैरधोअनो एहि जन्ममे अहाँके भय सकैत अछि?

ततः पर मेंही कंठसॅं सिसकब प्रारंभ भेल और कविराज जीक खड़ाम जोर सॅं खटखटाय लगलैन्ह। आब पं० जी ओहिठाम रहब उचित नहि बुझलन्हि। चुप्पहि घसकलाह और बाजार होइत डेरा दिस ऎलाह।

पं० जी अपना फाटकपर पहुँचै छथि त देखै छथि जे एकटा रिक्शा लागल अछि और मनचनमा ओहिपर पेटी चढा रहल अछि। पुछलापर कहलकैन्ह-मलकीनी एही ट्रेनसॅं नैहर जा रहल छथि।

पं० जी कहलथिन्ह- आब नैहर जैबाक काज नहि। पेटी उतार। और हे! ई दोना दऽ अबहुन! ओ दुइए बजेसॅं पियासल होइथुन्ह से कहून जे पहिने जलखै कऽ लेथि।