लेखक : हरिमोहन झा

विश्वविद्यालयक सभा-भवन आइ बिजलीक प्रकाश सॅं जगमगा रहल अछि। कारण जे भिन्न- भिन्न विद्यालयक छात्र-छात्रागण विवाद प्रतियोगिता मे भाग लेबक हेतु उपस्थित भेल छथि । एक प्रतिष्ठित विद्वान सभापतिक उच्च स्थान पर आसीन छथि । विवादक विषय थिक -

'नारीक कार्यक्षेत्र पुरुष सॅं भिन्न होबक चाही अथबा एक समान ?'

सभा-भवनक एक प्रमुख अंश महिलावृन्दक हेतु सुरक्षित अछि । ओहि मे रंग-विरंगक फैशन सॅं सुसज्जित युवतीगण वातावरण मे रंगीन मादकता भरि रहल छथि । तितलीक पाँखि मे जतेक रंग होइ छैक से सभ एहि ठाम सुकुमार नवयौवनाक परिधान बनि अपन-अपन सोभा कैं धन्य कय रहल अछि । अज्ञातयौवना, ज्ञातयौवना, मुग्धा, मध्या, प्रौढा प्रभृति नायिका भेदक लक्षण रटनिहार विद्यार्थी कैं एतय एक्के ठाम प्रायः समस्त उदाहरण साकार रूप मे भेटि जइतैन्ह ।

निर्दिष्ट समय पर विवाद प्रारम्भ भेल । सर्वप्रथम एक क्षीणकाय चश्माधारी नवयुवक मंच पर आबि भाषण करय लगलाह । हुनका वक्तव्यक आशय नीचा देल जाइछ.......

"पुरुष ओ नारी कऽ कार्यक्षेत्र एक नहि भऽ सकैछ । दूहू मे प्रकृतिगत विभिन्नता अछि । पुरुषक रचना कठोर तत्व सॅं भेल छैन्ह ; नारीक रचना कोमल उपादान सॅं । पुरुष मे बल और साहसक अधिकता होइ छैन्ह , त नारी मे प्रेम तथा त्यागक अधिकता होइ छैन्ह । पुरुष मे मस्तिष्क प्रधान होइ छैन्ह; नारी मे हृदय । एक उद्यमक अवतार होइ छथि त दोसर सहनशीलताक मूर्त्ति । एक जीवन-युद्धक सैनिक छथि, दोसर शान्तिक अधिष्ठात्री देवी ।

पुरुष तथा नारीक एहि नैसर्गिक विभिन्नताक कारण अनादि काल सॅं यैह व्यवस्था आबि रहल अछि जे पुरुष पराक्रम द्वारा बाहर सॅं प्राप्त कय आनथि; नारी घर मे यत्नपूर्वक ओकर संरक्षण करथि । पुरुषक सोभा छैन्ह बलिष्ठ भुजा, नारीक सोभा छैन्ह स्नेहपूर्ण हृदय । पुरुष सबल वृक्ष जकाँ स्वतंत्र रूपें अपना पैर पर ठाढ़ रहै छथि; नारी लताक समान अबला तथा आश्रयापेक्षिणी होइ छथि ।

"नारी गृहक लक्ष्मी थिकीह । हुनक कार्यक्षेत्र छैन्ह अपन घर । अपना घरक भीतर ओ स्नेहक गृहस्थी बसबै छथि। सरसता और माधुर्यक वर्षण कय ओ गृहक अभ्यंतर आनन्द-मन्दाकिनी प्रवाहित करैत रहैत छथि। जीवन-संग्रामक विकट संघर्ष सॅं श्रान्त पुरुष ओहि मे अवगाहन कय शीतल तथा सन्तापरहित भय जाइत छथि।

"नारी समग्र जीवन परिवार के स्नेहसूत्र मे आवद्ध कैने रहै छथि। एहि मे हुनक चित्त केन्द्रीभूत भेल रहै छैन्ह। यदि नारी घर सॅं बाहर भय पुरुष जकाँ सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होइतीह त आश्रमक श्रृंखला नष्ट भऽ जाएत। पारिवारिक जीवन छिन्न-भिन्न भऽ जाएत। सम्प्रति नारी भार्या तथा माता रूप मे घरक भीतर रहि गृह-प्रबन्ध ओ शिशु-पालन मे निरत रहै छथि। यदि ओ लोकनि घर छोड़ि जीविकोपार्जन हेतु बहराथि वा अपन बच्चा कैं छोड़ि सार्वजनिक कार्य में संलग्न रहथि त परिवार नष्ट भऽ जाएत। तखन स्त्री-पुरुष कैं भोजनक हेतु होटलक शरण लेबय पड़तैन्ह और राष्टक सुकुमार सन्तान कैं बोतलक दूध पर सन्तोष करय पड़तैन्ह। ई व्यवस्था समाजक हेतु कल्याणकर नहि।

"एहि विषय मे पाश्चात्य आदर्श हमरा लोकनिक हेतु अनुकरणीय नहि। यूरोप-अमेरिका मे जहिया सॅं स्त्रीगण पुरुष जकाँ प्रत्येक क्षेत्र मे भाग लेबय लगलीह अछि तहिया सॅं पारिवारिक जीवन उच्छृखल होबय लागि गेल छैन्ह । साहेब लोकक कारखाना मे मैनेजर छथि; मेम साहिबा बनारस क आफीस मे टाइपिस्टक काज करै छथि । दूहूक ड्युटी त बाहरे रहै छैन्ह । घरक कार्यभार के उठाबौ ? परिणामतः आश्रमक कार्यभार खानसामा ओ बाबर्ची पर पड़ैत छैन्ह । साहेब जखन ड्यूटी पर सॅं अबै छथि त घर मे मुस्कुराइत गृहिणीक स्थान पर एक डेरायल खानसामा भेटै छैन्ह । गृहस्थाश्रमक स्वच्छ शीतल वारि क अभाव मे ओ क्लबक मदिरा सॅं अपन तृषा शान्त करै छथि । ओम्हर मेम साहिबा जखन अपना आफिस सॅं अबैत छथि त वच्चाक स्थान मे कुकुर कैं कोर लय ओहि भाग्यवान चतुष्पद कैं अपन सरस स्नेहप्रसाद सॅं अभिषिक्त करैत नाश्तापानी करबैत छथिन्ह । 'घरक रानी' क स्थान मे ओ 'क्लबक परी' बनै छथि ।

जाहि समय लंका मे साहेबक माथ दुखाइत रहतैन्ह ताहि समय बनारस मे मेम पियानो पर बॉल डान्स करैत रहतीह । एहन दाम्पत्य सम्बन्ध सॅं कोन फल ? परिणामतः स्नेहसूत्र दिनानुदिन शिथिल पड़ैत-पड़ैत अन्त मे प्रायः सम्बन्ध-विच्छेदो भऽ जाइत छैन्ह । पाश्चात्यो देशक अनुभवी विद्वान लोकनिक ध्यान आब एहि दिश आकृष्ट भऽ रहल छैन्ह ।

"एहि विषय मे हमरा लोकनिक भारतीय आदर्श सर्वश्रेष्ठ थिक । एतय गृहिणी पद कैं जे मर्यादा देल गेल छैक से प्रायः कोनो देश मे नहि । भारतीय नारी यथार्थतः 'गृहिणी' नाम कैं सार्थक करै छथि । हुनक आफिस, क्लब, सभटा अपना घरक अन्तर्गते अबस्थित रहै छैन्ह । गृहक सम्पूर्ण दायित्व अपना ऊपर रहै छैन्ह। गृहक सम्पूर्ण दायित्व अपना ऊपर लय ओ पुरुष कै गृहक चिन्ता सॅं उन्मुक्त कय जीवन संग्रामक हेतु स्वतंत्र छोरि दैत छथिन्ह।

'ई कहब भ्रम थिक जे भारतीय नारी परतंत्रदासी जकाँ जीवन व्यतीत करैत छथि। जे अपना स्वामी आ कि 'पर' कऽ कऽ बुझत से ने अपना कैं पराधीन कहत। भारतीय नारी त अपना पतिक कैं प्राणों सॅं बढ़ि बुझैत छथि। तखन ओ अपना कैं पराधीन किऎक कहथीन? यूरोपक नारी अधिकारक हेतु लरै छैत। किन्तु भारतीय नारी कैं केवल अपना धर्म -पालन टा सॅं प्रयोजन रहैत छैन्ह। आधुनिक शिक्षा सॅं प्रभावित महिला 'लेबाक' हेतु ललायित रहै छथि, प्राचीन आदर्शक अनुयायिनी गृहिणी केवल देबाक हाल जनि छथि। एक स्वार्थ ओ तृष्णाक मुर्त्ति थिकीह; दोसर त्याग ओ बलिदानक। सीता सावित्री सदृश पत्नी सेवा तथा प्रेमक बलैं ओ उच्चतम अधिकार प्राप्त कऽ चुकल छथि जे कोनो स्त्री कैं लरला सॅं नहि भेटि सकै छैन्ह।

"भारतीय नारी कैं दासी बुझब मूर्खता थिक। ओ दासी, मंत्री, रानी, सभ एके संग होई छथि।

'कार्येषु दासी, करणॆषु मन्त्री, भोज्येषु माता, शयनेषु रम्भा।'

'ओ यथार्थतः गृह-स्वामिनी होई छथि। अपन त्याग और प्रेमक बलें स्वामीक हृदय पर हुनक एकछत्र सम्राज्य रहैत छैन्ह। व्यक्तिगत स्वार्थक भावना हुनका मोन मे एको क्षण उदित नहि होई छैन्ह। विनु मङ्गने हुनका जे महत्वपूर्ण गृहणी पद प्राप्त भऽ जाइ छैन्ह से समानाधिकारक आन्दोलन ठानयवाली महिला कैं अलभ्य छैन्ह।

"नारीक मर्यादा गृहाभ्यन्तरे छैन्ह। पुरुषक प्रतियोगिता मे बहरैन्हे हुनक अपने प्रतिष्ठा-हानि हैतैन्ह। कारण जे स्त्री स्वभावतः अबला होइ छथि। जतय शारिरीक बलक काज छैक ततय कोनो क्षेत्र में ओ पुरुषक समकक्ष ओ ठाढ़ नहि भऽ सकै छथि। वल्कि पुरुषक सहायता बिना ओ अपना आत्मरक्षा करबा में प्रायः असमर्थे रहतीह। ओ सर्वदा सॅं पुरुष पर आश्रित रहैत आइलि छथि और प्रायः सदैव रहतीह। एही मे हुनक कल्याणों छैन्ह। यदि कोमल मृणाल-नलिका लोह कऽ देखाउस कय हथौराक चोट पर जाय त की परिणाम हैतैक? ओकर पत्तर त नहि बनतैक प्रत्युत सभटा लुगदी बाहर भऽ जैतैक। लाखो फूलक माला मिलि कय एक मजबूत सिक्कर काज नहि क सकै अछि। धेनु सॅं बड़द कऽ काज नहि लेल जा सकै छैक। दूहूक काज भिन्न-भिन्न छैक। अपना-अपना स्थान में दूहू उपयुक्त अछि। स्थानभ्रष्ट भेने दूहूक उपयोगिता नष्ट।

"यदि नारी कैं पुरुषोचित्त अधिकार प्रदानों कैल जाइन्ह त प्राकृतिक नियम नहि बदलि सकैत छैन्ह। नारी-शरीरक रचना गर्भाधान, सन्तानोत्पादन तथा स्तन्यपानक, अभिप्राय सॅं कैल गेल छैन्ह लाखो प्रयत्न कैन्हे स्त्री एहि भार सॅं निस्तार नहीं भऽ सकैत छथि। ई श्रृष्टि कर्ता क विधान बुझू अथबा प्रकृतिक पक्षपात, नारी घरेक हेतू निर्मित भेल छथि। कार्य क्षेत्रक ई सनातन विभाग जे अटल प्रकृति द्वारा निर्धारित भेल अछि से मनुख कऽ हस्तक्षेप सॅं परिवर्तित नहिं भऽ सकैत अछि। प्रकृत्ति अनुकूलें चलबा में बुद्धि मत्ता छैक। प्रतिकूल चलनें लोक नष्ट भऽ जाइत अछि।

अतएब शिक्षित भारतीय महिला समाज कैं पश्चात्य देशक अंधानुकरण नहि कय अपन वास्तविक कार्य क्षेत्र कैं अपनाबक चाहिऎन्ह। पफ पाउडर, लिपिस्टिक और ऊँच एड़ीक शू, स्वच्छंद बिहारिणी अपसरा क हेतु अमोघ शस्त्र भऽ सकैत छैन्ह, किन्तु आश्रम संचालिका गृहणीक हेतु ओ आवश्यक उपकरण नहि।

हमरा लोकनिक स्त्रीगण रम्भा, उर्वशी बनय चाहैथ छथि वा सीता - सावित्री? भोग्या नारीक मार्ग भिन्न छैन्ह; 'पुज्या' नारीक मार्ग भिन्न शारीरिक सुख मे बाधा होयबाक कारणे तालाक देमयवाली मेम ओहि स्वर्गीय देवीक आत्मा कैं नहि पाबि सकै छथि जे अपना जीवन संगीक चिता पर चढ़ि सति भऽ जाइ छथि।

सा भार्याया गृहे दक्षा सा भार्याया प्रजावती। सा भार्याया पतिप्राणा सा भार्याया पतिव्रता।।

जाहि दिन भारतीय गृहणीक ई उज्जव आदर्श सम्पूर्ण संसार में प्रचलीत भऽ जायत ताहि दिन पृथ्वी स्वर्ग बनि जायत।

एहि प्रकारें पूर्व पक्ष समाप्त भेल। तदनंतर एम० ए० क्लासक एक तेजस्वीनी छात्रा मिस बिजली बोस उत्तर पक्ष करक हेतु ठाढ़ि भेलीह। हुनका उठतहिं सम्पूर्ण सभा भवन करतल ध्वनिं सॅं गूँजि उठल। मिस बिजली प्रतिपक्षौ क एक-एक तर्क कैं युक्ति द्वारा खंडण करैत अपना पक्षक मंडन करय लगलीह। हुनक ओजस्वी भाषण, धारा प्रवाह वाक्यावली तथा निर्भीक विचार शैली सॅं समस्त सभा चकित रहि गेलै।

मिस बिजलीक भाषणक सारांश नीचा देल जाइछ-

पूर्व वक्ता महोदय नारीत्वक संकुचित व्याख्या द्वारा समस्त नारी जातीक जे अपमान कैलन्हि अछि ताहि सॅं प्रत्येक शिक्षित महिलाक मर्मस्थल पर चोट पड़ब स्वाभाविक थीक। हुनक विचार-सरणी परम्परागत मानसिक संकीर्णता सॅं ओत प्रोत छैन्ह। हुनका बूझक चाहिऎन्ह जे नवीन युगक नारी "दासी" शब्द कैं घोर कलंक कऽ कऽ बुझैत छथि। हुनक एहि सॅं अधिक अपमान दोसर कोनो शब्द सॅं नहि भऽ सकैत छैन्ह। जाहि युग में स्त्री पुरुष कैं "नाथ" और अपना कैं दासी कहबा में गौरब बोध करै छलीह से अन्धकार युग मानब सभ्यताक विकास होइतहि विलीन भऽ गेल बीसम शताब्दीक मध्य महिला क सामने ओहि बरबर दुर्गक गुलामी-स्तव कैनाय अक्षम्य धृष्टता थीक।

" आधुनिक जागृत नारी अपन जन्मसिद्ध स्वतंत्रताक अधिकार प्राप्त करक हेतु कटिबद्ध छथि। पुरुष निर्मित खला कै कड़ा तोरी क दूर फेकैक ओ हुंकार कऽ रहल छैथि। एहि निमित्त ओ भीषण सॅं भीषण क्रांति करक हेतु तैयार छथि।

"अनेकानेक शताब्दी सॅं स्वार्थी पुरुष-समाज, स्त्री-समाजक शारिरीक निर्बलता तथा मानसिक अंधकार सॅं अनुचित लाभ उठबैत अपन अरामक हेतु हुनका दासी बना कऽ रखने अछि। हजारों वर्ष सॅं मूर्ख स्त्री जाति पुरुषक चेरी बनि गुलामक जीवन व्यतीत करैत रहलीह।

स्वार्थी पुरुष -समाज नाना प्रकारक छल बल सॅं स्त्री कैं नथने रहल। सब कानून, वेद, पुराण, स्मृति, धर्मशास्त्र,-पुरुषॆक हाथ मे। जेहन-जेहन नियम मोन भेलै बनबैत गेल। मूर्खा स्त्री भेड़ी-बकरी जकाँ ओही कानून क अपन धर्म मानय लगली।

स्मृति कार कहलथिन्ह - "न स्त्री शुद्रो वेदम धीयताम्"। अर्थात स्त्री और शुद्र विद्या नै पढ़य। कोना कहितथिन्ह जे पढौ़ तखन शुद्र खबासी कोना कैरतैन? स्त्री भैर जन्म चूल्ही कोना फुकितैन्ह? मुर्खा स्त्री बुझिलन्हि जे हम त शुद्रक समान छी, विद्या पढ़बाक हमरा कोन अधिकार? बस, समस्त स्त्री जातिक माथ पर सर्वदा कऽ हेतु मूर्खताक ठप्पा ठोका गेलैन्ह ओ भरि जन्म अज्ञानक अंधकार में टोइया मारैत रहि गेलीह। पुरुषक जीवैत भरि ओकर दासी और ओकरा मुइला पर ओकरे संग चिता में भस्म। जन्म सॅं मृत्यु पर्यन्त कहियो हुनका गुलामीक पट्टा सॅं छुट्कारा नहि। हैरे स्वार्थी और निष्ठूर पुरुष-समाज।

यदि स्त्री मरि जाथि तॅं पुरुष पुनर्विवाह कय पुनः ओहिना रंग-रभस करथि। किन्तु यदि पुरुष मरि जाय त स्त्री आमरण वैभव्यक दंड भोगौ। जीवनक समस्त आमोद -प्रमोदक द्वार ओकरा हेतु बन्द। ओ पान नहि खाय, रंगीन साड़ी नहि पहिरय। ओकरा माछ खैबाक अधिकार नहि। तेल-फुलेल लगैबाक आज्ञा नहि। पुरुषक जीवितो मे दुःख, पुरुषक मुइलो मे दुःख। स्त्री कैं कहियो उद्धार नहि!

"स्त्री कैं जन्महिं सॅं सिखाओल गेलैन्ह जे अहाँ लोकनि आँखि मुनि क पुरुषक सेवा करु यैह टा एक मात्र धर्म थीक। एहि में जीवनक चरम सार्थकता बुझू।

'एकै धर्म एक व्रत नेमा। काय वचन मन पति पद प्रेमा।'

कर्ता, हर्ता, विधाता सभटा पुरुषे कैं बुझू। किऎक जे "पतिरेको गुरुः स्त्रीणाम्" यदि पुरुष कैं सन्तुष्ट राखि सकलहुँ तखन त अहाँ सन उत्तम केओ नहि और यदि से नहि त अहाँ सन अधम केओ नहि।

'न सा भार्येति वक्तव्या यस्या भर्ता न तुष्यति। तुष्टं भर्त्तरि नारीणां संतुष्टा सर्व देवताः ।'

पुरुष पाप करौ वा पुण्य, घर रहौ वा बाहर, अहाँ आखि मूनि कै ओकर पुजा करु ताहि सॅं सब जग जीत लेब।

'नगरस्थौ वनस्थौ वा पापोवा यदि वा शुचिः। यासां स्त्रीणां प्रियौ भर्त्ता तासां लोका महोदयाः।'

से यदि करब त लाठीक हाथ सॅं स्वर्ग पहुँच जायब। बल्कि अहींक धर्मे स्वामीयों पार उतरि जेता।

'व्यालग्राही यथा व्यालं बलादुद्धरते विलात्। तद्वद्भर्त्तारमादाय स्वर्गेलोके महीयते।'

स्वर्गक फाटक टा नहिं खुजत बल्कि देह में जतेक करोड़ रोंआँ अछि ततेक करोड़ वर्ष धरि स्वर्गक सुखो लुटैत रहब।

'तिंस्त्रः कोट्योऽर्धकोटॊ च यानि लोभानि मानवे। तावत्कालं वसेत स्वर्गे भर्त्तारं यानुगच्छति।'

"अतएव पुरुषक जीवने जीवू, पुरुषक मुइने मरू। परुषक संग जरि कय सति होएब त सैकड़ो पाप कैने रहलो पर सद्यः सुर लोकक पासपोर्ट भेटि जायत।

'चितौ परिष्वज्य विचेतनं पतिं प्रिया हि मुञ्चति देहमात्मनः। कृत्वापि पापं शतसंख्यमप्यसौ पतिं गृहित्वा सुरलोकमाप्नुयात्।'

और कोनो तरहें आहाँ क गति नहिं । "सहज अपावन नारी पति सेवत सुभगति लहई।"

"तैं जागल में अपना पुरुषक सेवा करू, सुतलो में अपने पुरुषक स्वप्न देखू।" यदि से नहिं करब त -

"रौरव नरक कल्प शत पड़ई।'

तुलसीदासक कथनानुसार करोड़ो वर्ष धरि रौरव नरक में पड़ल कष्ट भोगैत रहब।

पुरुष केहनो आन्हर, बहिर, बूढ, बकलेल हो, कतबो दुख अहाँ कैं देबय तथापि अहाँ एक शब्द नहि बाजू, नहि त मूइलो पर यमदूत घीसिया कऽ मारत।

'वृद्ध रोग वस जड़ धन हीना अन्ध बधिर क्रोधी अति दीना ऎसेहु पतिकर किय अपमाना नारी पाव यमपुर दुःख नाना ।'

पुरुष कतबो डाँटय, मारय, लाल-लाल आँखि करय, तथापि अहाँ कानू नहि, बल्कि पुरुषक प्रसन्नार्थ हँसिते रहू! यैह अहाँक धर्म थीक। तखन स्वर्ग भेटत ।

"पुरुषाण्यपि या प्रोक्त दृष्टा च क्रोध चक्षुषा सुप्रसन्नमुखी भर्तुः सा नारी धर्म भागिनी।"

एतबे नहि। पुरुष हुनका एना क परतारै लगलैन्ह जे 'तों स्वाधीन रहऽ योग्य नहिं छह। तोहर जन्मे एहि हेतु भेल छ। जे बाल्यावस्था सॅं लऽ कऽ वृद्धावस्था पर्यन्त पराधीन भेल रहह। तों कहियो बालिग नहि भै सकैत छह।

"पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने। रक्षति स्थविरे पुत्रः, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।"

धर्म क नाम पर तेहन-तेहन अत्याचार स्त्री पर केल गेल छैन्ह। जकर वर्णन कैने पोथा तैयार भऽ जाएत। स्त्री कैं सोमवारी व्रत कहि कऽ गाछ्क चारू कात एक से आठि वेरि कोल्हुआपेरान कराओल गेलैन्ह । 'मधुश्रावणी' कहि कऽ दीपक टेमी सॅं हाथ-पैर दागल गेलैन्ह। 'निर्जला एकादशी' कहि कऽ प्रचण्ड गर्मी मे कण्ठ सुखाओल गेलैन्ह। 'हरितारिका व्रत' कहि कऽ भूख, पियास, निन्द, सभ सॅं हड़ताल कराओल गैलेन्ह। ताहि पर पोंगापन्थी पुराणक परतारनाइ त देखू।

"अन्नाहारात शूकरी स्यात् फलभक्षेण मर्कटी। जलौका जलपानेन क्षीराहारेण सर्पिणी। मांसाहाराद्भवेत व्याघ्री, मार्जारी दधिभक्षनात्। पिपीलिका तु मिष्ठान्नात् मक्षिका सर्वभक्षनात्। निद्रावशेनाजगरी कुक्कुटी पतिवञ्चनात्।"

'अर्थात जौं स्त्री तीज मे अन्न खा लेथि त सुगरनी भऽ कऽ जन्म होइन्ह और फल खा लेथि त बनरिनी भऽ कऽ। पानि पीबथि त जोंक होथि और दूध पिबथि त साँपिन मिठाइ खाथि त चुट्टी-पिपड़ी होथि और किछु मुँह में देथि त माछि होथि जौं सूति रहतीह त जन्मान्तर में अजगर होइतीह अपना स्वामी सॅं फूसि बजतीह त जन्मान्तर मे मुर्गी होइतीह।

एहि तरहें स्वर्गक लोभ तथा नरकक भय देखाकय पुरुष स्त्री कैं कोन - कोन नाच नहि नचौलक। बुद्धविहीना नारी पुरुषक प्रताड़न-वाक्य मे आबि कठपुतरी जकाँ नाचय लगलीह। ओ अपना कैं पुरुषक हाथें बेचि देलन पुरुष हुनका माँग में गुलामीक टीका लगा देलकैन्ह और कहलकैन्ह जे यैह तोहर सौभाग्यसिंदूर छह । अज्ञानी नारी ई नहि बुझलनि जे ई लाल सिंदूर नहि, प्रत्युत स्वाधीनताक हत्या जनित लाल रक्त थीक। ओ अफ्रिकाक हबशी गुलाम जकाँ गुलामीक चिन्ह कैं गर्व सॅं मस्तक पर धारण करय लगलीह।

स्त्रीक हेतु त एहन फाँस रचल गेल और पुरुषक हेतु कोन नीति गढल गेल से देखू। देखब यदि कदाचित काल-क्रमे स्त्री विद्या-बुद्धि मे बढ़ि जायत त अपना हाथ सॅं निकसि जाएत। तैं एहन उपाय करु जे स्त्री विद्या पढ़बे नहिं करय। 'न रहय बाँस न बाजय बाँसुरी। ' बस, फतबा दऽ देल गेल। "न स्त्री शूद्रौ वेदमधीयताम्। " एहि तरहक अन्यायपूर्ण नियम बना पुरुष-समाज स्त्री-जातिक मानसिक नेत्र पर सर्वदा कऽ हेतु टप्पर बान्हि देलकैन्ह।

पुरुष कैं प्रारम्भहि सॅं शिक्षा देलगेलैक -'छल-वल सॅं जेना हो, तेना स्त्री कैं अपना अधीन रखने रहब। विद्यापढ़ने ई होशियार भऽ जायत तैं एकरा पढ़ नहि देब। संसार देखने एकरा अनुभव भऽ जैतैक, तैं एकरा पर्दाक चहारदीवारी में बंद कैंने रहब। देखब, एकरा बाहरि हाबा नहि लागय पबैक स्वतंत्र भऽ कऽ ई कहियो घूमय नहि पाबय। और एहन करू जे अपना पैर पर ई ठाढ़ नहि भऽ सकय। उपार्जन करबाक शक्ति एकरा मे आबि जेतैक त अपना मुठ्ठी मे नहि रहत। तैं एहन करू जे घरक काज सॅं एकरा कौखनि छुट्टिये नहि होइक। हम जे आनि क दियैक सैह खाय, हम जे कीनि कै आनि दियैक सैह पहिरय हम जतय लऽ जैयैक तत्तहि जाय। बस,किछु दिन मे ई स्वयं पंगु बनि जाएत। और एहि तरहें अकर्मण्य भय ई सर्वदा पुरुषक मुखापेक्षणी बनल रहत। फेर ई जा कतय सकति?

पुरुष-रचित एहि षडयंत्र में फँसि बेचारी स्त्री शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दासताक जिंजिर में बन्हा गेलीह। हुनक स्वतंत्र व्यक्तित्व तथा आत्मगौरव नष्ट भऽ गेलैन्ह।

स्त्री-जाति पर एतेक अत्याचार कैलो पर जखन धृष्ट पुरुष-समाज कैं संतोष नहि भेलैक तखन ओ लागल नारी-निन्दा पुराण गढ़य। स्त्री-जाति कैं नीच, कलंकित और निन्दनीय सिद्ध करवाक हेतु एहन-एहन वाक्य गढ़ल गेल जे घृणित प्रचारक निकृष्टतम उदाहरण कहल जा सकै अछि। किछु बानगी लियऽ-

असत्यं साहसं माया, मात्सर्यं चातिलुब्धता। निर्गुणत्वमशौचत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः।

नारी स्वभाव सत्य कपि कहही अवगुण आठ सदा उर रहही ।

अर्थात स्त्री सकल अवगुणक खानि थिक . एहन-एहन नितीकार सॅं कियो पुछियाइन्ह जे अहाँ अपने कोन खानि सॅं बहरायल छी?

जे स्त्री जन्महिं सॅं सन्तोष, सहनशीलता, संयम एवं आत्मदमनक पाठ पढथि तनिका चरित्रक संबंध मे पुरुषक धारणा देखू बच्चे सॅं पुरुष कैं चाणक्यक एहन-एहन श्लोक रटाओल जाय छैक -

स्त्रीयश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवौ न जानाति कुतो मनुष्यः।

अर्थात स्त्री-चरित्रक अन्त केओ नहि पाबि सकैत अछि। तैं नारीक विश्वास कथमपि नहि करी।

नदीनां शस्त्रपाणीनां, नखिनां श्रृङ्गिनां तथा। विश्वासों नैव कर्त्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च ।

जहिना गाय महिष सॅं सशंकित रही तहिना स्त्रीयो सॅं।

न दानेन न मानेन नार्जवेन न सेवया । न शस्त्रेण न शास्त्रेण सर्वथा विषमाः स्त्रीयः।

कतबो मानन, दानने, सेवने, परबोधने या कोनो तरहें डेबने स्त्री कैं सोझ नहिं कैल जा सकैत अछि।

तैं अपना मे त निश्छल व्यवहार रखै जाउ, किन्तु स्त्री गण सॅं बराबरि ठकि-फुसिया कऽ काजि लियऽ।

दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने नारीजने धूर्त्तता।

'जे स्त्री आजीवन पुरुषक स्वार्थवेदी पर अपना कैं आहुति करैत-करैत मरि जाथि, तनिका प्रति केहन उदार व्यवहार नीतिकार लोकनि सिखबै छथिन्ह! यदि यैह नीतिशास्त्र, त अनीति ककरा कहबैक?

जे स्त्री कोमलता और स्नेहक मूर्त्ति भय पुरुषक छयानुवंतिनी बनल रहथि तनिका प्रति एहन घोर विश्वासघात! हाय रे प्रपंची पुरुष-समाज!

गोस्वामी तुलसीदास कैं अहू सॅं संन्तोष नहि भेलैन्ह त आखिरी दर्जा पर स्त्रीक ईज्जत कैं पहुंचा देलथिन्ह।

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी।

"गोस्वामी" रहथि तैं एहन चौपाय बनेबाक साहस भेलैन्ह। जौं आधुनिक सिहिनी सॅं पाला पड़तैन्ह त तुरंन्त काटि कै ई पाठान्तर करय पैड़तैन्ह जे-

नारीनिन्दक निपट अनाड़ी । ते जन ताडन के अधिकारी।

'नारी चरित्र पर तेहन-तेहन घृणीत आक्षेप पुरुष द्वारा भेल अछि जे सुनि प्रत्येक स्वाभिमानी युवतीक शोणीत खौलि उठतैन्ह।

आहारो द्विगुणः स्त्रीणां, भयं चापि चतुर्गुणम् । साहसं षडगुणं चैव, कामश्चाष्टगुणः स्मृतः । नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां न पुंसा वामलोचना । स्थानं नास्ति क्षणं नास्ति नास्ति प्रार्थयिता नरः । तेन नारद नारीणां सतीत्वमुपजायते । न लज्जा न विनीतत्वं न दाक्षिण्यं न भीरुता । प्रार्थना भाव एवैकं सतीत्वं कारणं स्त्रीयाः । न स्त्रीणामप्रियः कश्चित् प्रियो वापि न विद्यते। गावस्तृणमिवारण्य़ं प्रार्थयन्ति नवं नवम्। न तादृशी प्रीतिमुपैति नारी, विचित्रशय्यां शयितापि कामम्। यथा हि दूर्वादिविकीर्णभुमौ, प्रयाति सौख्यं परकान्तसङ्गात्। एहन-एहन लज्जाजनक अपशब्दक व्याख्या वा आलोचना सॅं हम अपन वाणी अपवित्र नहि करय चाहै छी ।

अफसोस! जे हमरा हाथ में कलम नै रहल नहि त हमहुँ पुरुषक विषय में एहन-एहन श्लोकक रचना करितहुँ जे-

कामोदश गुणः पुसां, क्रोधः शतगुणस्तथा। स्वार्थः सहस्रधा प्रोक्तो नीचता लक्ष्यधा स्मृता। नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां न स्त्रीणां पुरुषस्तथा। स्थानं नास्ति क्षणं नास्ति, सुलभा नास्ति कामिनी। तेन सन्यासिना मूद्धवरता योगः प्रजायते । न लज्जा न विनीतत्वं न दाक्षिण्यं न भीरुता। अस्वीकृतिः स्त्रियः पुंसा ब्रह्मचर्यस्य कारणम्। न पुंसामप्रया काचित् प्रिया वापि न विद्यते । अलयः कलिकामध्ये प्रार्थयन्ति नवां नवाम्। न तादृशी प्रीति मुपैति कामी, पत्न्यां निजायां पदसेविकायाम्, यथाहि पद्भयामवताडितोऽपि, प्रयाति सौख्यं पन्दारसङ्गात्।

यदि धर्मशास्त्रक निर्माण स्त्रीक हाथ मे देल जइतैन्ह त ओहो एहन कानून बनबितथि जे पुरुष आजन्म स्त्रीक तरबा रगड़ैत रहय और जौं स्त्री मरि जाथि त पुरुष ओहि चिता पर जरि कय भस्म भऽ जाय। से नहि कैने जतेक रोम नारीक शरीर में होइ छैक ततेक करोड़ वर्ष धरि कुंभी पाक नरक में छटपटाइत रहि जाय। जखन स्त्री विरचित पत्नीव्रत -पुराणक पालन पुरुष -समाज कैं करय पड़ितैन्ह तखन बुझि पैड़ितैन्ह जे जबर्दस्तिक ठेंगा केहन होइ छैक। किन्तु पुरुष जबरदस्त छल, स्त्री कमजोर छलीह। तैं अभाग्य बस ई ठेंगा हुनके माथ बजरलैन्ह।

परंतु आब पुरुषक अत्याचार बहुत दिन धरि नहि चैल सकैत छैन्ह। आधुनिक महिला इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान तथा राजनीति विज्ञानक अध्ययन कय अपन न्यायोचित अधिकार बुझयलागि गेल छथि। हुनका आब अपन यथार्थ आत्म-परिचय भेल जाय छैन्ह जीवन में स्वतंत्रता सब सॅं अधिक मुल्यवान वस्तु होइ छैक। प्रत्येक स्त्री-पुरुषक ई जन्म सिद्ध अधिकार छैक। ताहि स्वतंत्रता सॅं आबक शिक्षित नारी समुदाय वञ्चित नहि राखल जाय सकै छथि।

आँखि पर सॅं अज्ञानक परदा हटनें टर्कीक महिला युग-युगान्तरीन पर्दाकैं फाड़ि कय गर्दा में मिला देलनि। आब स्त्री घर में कैद नहि रहि सकैत छथि। ओ पिपरमिण्टक सत्त नहि छथि जे बाहरी हवा लगने गलि जैतीह। संसारक सब वस्तु घूमि-फिरी कय देखवाक जतबेक अधिकार पुरुष कऽ छैन्ह ततबे स्त्रीयों कैं। पुरुषे जकाँ स्त्रीओ, कै अपन बल, विद्या, बुद्धि और योग्यता बढैबाक अधिकार छैन्ह। आत्मनिर्भता और स्वावलम्बनक महत्व आब ओहो बुझय लगलीह अछि। अन्न-वस्त्रक हेतु आब ओ पुरुष पर निर्भर रहब अपन अपमान बुझैत छथि। आधुनिक स्त्री पुरुषक सङ्गिनी बनि कय रहि सकै छथि, 'दासी' बनि कय नहि ।

नवयुगक जे निर्माण हैत ताहि मे स्त्री-पुरुषक सामान हाथ रहत । यदि पुरुषक क्षेत्र सम्पूर्ण संसार छैन्ह, त नारी केवल घरक भीतर किएक सीमित रहतीह ? जे स्त्री कैं अबला और आत्मरक्षा मे असमर्थ कहै छथि तनिका लक्ष्मीबाई तथा अहिल्याबाई सन विराङ्गनाक नाम नहि बिसरक चाहिऎन्ह । आत्मरक्षा शक्ति और साहस सॅं होई छैक और से जीवन-संघर्ष मे पड़ने बढै छैक । परिस्थिति मनुष्य कैं बनबैत वा बिगाडै़त अछि । यदि मर्दों कैं आजीवन एक घरक अन्दर बन्द कऽ देल जाइन्हि और चुल्हि फूँकय पडै़न्हि त ओहो निस्तेज और शक्तिहीन भय आन कार्यक हेतु अयोग्य भऽ जैताह । आइयो हिन्दुस्तान मे कतेको मर्द एहन भेटताह जे स्वतंत्र विचरण करयबाली तातारी स्त्रीक हाथ सॅं अपन गट्टा नहि छोड़ा सकताह ।

रहल सन्तानोत्पादन कऽ विषय । एहू सॅं मातृजातिक श्रेष्ठते सिद्ध होइत अछि । स्त्री मे असीम धैर्य ओ सहन-शक्ति होयबाक कारण सन्तति-प्रजनन तथा संबर्धनक भार प्रकृति हुनके पर छोड़ने छैन्ह । किन्तु एकर अर्थ ई नहि जे ओ सन्तान बढि कय भस्मासुर जकाँ स्त्रीए कऽ माथ पर हाथ देबए और जाहि खानि सॅं बहराय तकरे सकल अवगुनक खानि कहय ।

ई बात सत्य जे बिना स्त्री और पुरुषक संयोग सॅं श्रृष्टि नहि चलि सकैत अछि । परिवारिक जीवनक हेतु दूहूक प्रयोजन समान रूप मे पडै़ छैक । गृहस्थीक गाड़ी चलैवाक हेतु दूहू पहिया आवश्यक होइत छैक । किन्तु तकर अर्थ ई नहि जे एक पहिया दोसरा कैं दबौने रहय ।

यदि पुरुष नारीक हार्दिक सहयोग चाहै छथि त हुनका अपन स्वामित्व छोड़य पड़तैन्ह और नारीक सखा बनय पड़तैन्ह। आधुनिक स्त्री "सहचारी" भय रहि सकै छथि, "अनुचरि" बनि कय नहि। सीता-सावित्रीक आदर्श आब पुरान पड़ि गेलैन्ह। आधुनिक नारी कैं केहनो प्रतापि रावण हरण नहि कऽ सकै छैन्ह। जे हुनका पर आक्रमण करतैन्ह से एक सकेण्ड में रिवाल्वर द्वारा जवाब पाबि जायत। आब द्रौपदी चीर-हरण काल कृष्णक गोहारी नहि करय लगतीह; दन दऽ पिस्तौल फायर कऽ देतीह। एहि वैज्ञानिक युग में जेखन यंत्र-बलक आगाँ शारीरिक बलक किछु नहि चलि सकैत छैक, तखन पुरुष कैं पशु बलक घमंड करब तथा नारी कैं आत्मरक्षा में असमर्थ बुझब मुर्खता थिकैन्ह।

हमर ई कथ्य नहि जे हम पुरुष सॅं युद्ध करी वा अकारण विरोध ठानी। किन्तु हमर मन्तव्य जे पुरुष हमरा उन्नति मार्ग मे -हमरा व्यक्तित्वक विकास में बाधक नहि होथि। यदि स्वतंत्र घुमने ओ अपना चरित्र कैं शुद्ध राखि सकैत छथि त हमहूँ अपना कैं निष्कलंक राखि सकैत छी। संदूक में ताला बंद कय जकर रखवाली कैल जाय तेहन पातित्यक एको कौड़ी मोल नहि। जीवन संघर्षक बीच जे चरित्र-वल असली सान जकाँ चमकैत रहै सैह अमूल्य वस्तु थीक।

"पुरुष स्वभावतः स्वार्थी, संदेही तथा ईर्ष्यालु प्रकृतिक होइ छथि; तैं ओ स्त्री कैं अपन व्यक्तिगत सम्पत्ति जकाँ ताला-कुंजी में जकड़ि कऽ बंद रखैत एलाह अछि। स्पष्टवक्ता चार्वाक त साफ शब्दे कहने छथिन्ह-

पातिव्रत्यादि संकेतो बुद्धिमद्दुर्बलैः कृतः। रूपवीर्यवता सार्द्ध स्त्रीकेलिमसहिष्णुभिः।

" चारित्रिक गुणक मूल्य हम बुझैत छी, किन्तु जे चरित्र भयक भित्ति पर निर्मित हो तकर किछु महत्त्व नहि। चतुर्दिश प्रलोभन रहलो उत्तर जे अविचलित रहय तकरे असली चरित्र-बल बुझक चाही। 'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः।

'गृहक देवी' कहि पुरुष स्त्री कैं बहुत दिन धरि परतारलथिन्ह। -

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः

'एहन-एहन वाक्य सुनि स्त्री फुच्च भऽ गेलीह। किन्तु आबक नारी 'देवी' नहि 'मानवी' बनि कय रहऽ चाहै छथि। ओ आब मानवोचित अधिकार ग्रहण करतीह। साहसपूर्वक जीवन-युद्धक प्रत्येक क्षेत्र में आगाँ बढ़तीह और सामाजिक तथा राजनीतिक कार्य में समान भाग लेतीह। ओ 'अर्द्धाङ्गिनी' क बदला मे 'पूर्णाङ्गिनी' बनतीह। तखन समाजक जे अर्द्धाङ्ग पक्षाघात-पीड़ित अछि ताहि मे नवशोणितक सञ्चार होएत और मानव समाज पूर्ण रूप सॅं विकसित भऽ जाएत। जाहि दिन नारी नरक भय सॅं मुक्त भऽ जैतिह ताहि दिन सॅं मानव सभ्यता द्विगुण वेग सॅं बढ़य लागत।

पुरुष-समाज एतेक दिन धरि जे पाप कैने छथि तकर प्रायश्चितक करबाक समय आब आबि गेल छैन्ह। यदि ओ सोझ तरहें नारी कैं स्वाधीन नहि करथिन्ह त समुन्नत महिला-समाज पुरुषक विरूद्ध विद्रोहक झंण्डा उठा लड़ि कय अपन अधिकार हासिल करतैन्ह। नारी आब गृह लक्ष्मी सॅं रन चण्डीक स्वरूप धारण करतीह। ओ आब पुरुषक हाथ में कठपुतलीह भेल अपन आत्माक हनन नहि होमय दऽ सकैत छथि। आदिम समय सॅं पुरुषक अत्याचार सॅं पीडित, प्रवञ्चित तथा शोषित स्त्री-जाति में आब भीषण प्रतिक्रियाक भय उत्पन्न भेल छैन्ह। शक्ति स्वरूपा नारी ज्वालामुखी जकाँ भभकि रहल छथि। जे एहि ज्वालामुखीक मार्ग में परत से भस्मीभूत भऽ जायत।

अन्तिम वाक्य बजैत-बजैत भाव वेष में मिस बिजली बोसक दूनू गाल लाल उठलैन्ह। बिजली देवीक भाषण समाप्त होइतहि सम्पूर्ण सभा-भवन करतलध्वनिक तुमुल नाद सॅं गूँजि उठल। तेजस्विनी बिजली बिजलीक प्रकाश म बिजली जकाँ चमकैत छलीह। प्रखर प्रतिभाशालिनी श्वेतवस्त्रावृता बिजली साक्षात सरस्वतीक मूर्तिवत प्रतिभासित होइ छलीह। हुनक दिव्य कान्ति ओ अपूर्व संस्कार देखि समस्त सभासद मन्त्रमुग्ध रहि गेलाह।

सभ सॅं अधिक प्रभावित भेलाह एक नवयुवक जे एकाग्रचित सॅं तन्मय भेल बिजलीक एक-एक छटा कैं नेत्र-पथ सॅं अपना हृदय में उतारने जायत छलाह। ई छलाह पाठक लोकनिक सुपरिचित सी० सी० मिश्र।

बिजली देवीक बाद पक्ष-विपक्ष में कतिपय भाषण भेल। किन्तु जे रंग बिजलीक जमलैन्ह से किनको नहि। अन्त में विचारकगणक सर्व सम्मति सॅं बिजली प्रथम घोषित भेलीह। जखन सभापति महोदय मिस बिजलीक पशमदार कोट मे सोनक मेडल खोंसय लगलथिन्ह तखन सभा हर्षध्वनि सॅं गूँजय लागल।

बिजली देवी नम्रता पूर्वक सभा कैं अभिवादन कय मुस्कुराइत मंच सॅं नीचा उतरलीह। विजय-गर्वक उल्लास सॅं हुनका विकसित वदन पर जे गुलाबी आभा प्रकट भेलैन्ह से भक दऽ सी० सी० मिश्रक हृतपिण्ड मे प्रवेश कऽ गेलैन्ह। बिजलीक वक्षस्थल पर ईषत कम्पायमान स्वर्णपदक कऽ स्पन्दन सॅं हुनको हृदय में स्पन्दन होबय लगलैन्ह। ओ किछु क्षण धरि आत्मविस्मृत भेल रहलाह। हुनक मोहतन्द्रा तखन भंग भेलैन्ह जखन एक मित्र हुनका पकड़ि कय डोलाबय लगलथिन्ह। तावत सभा- भवन रिक्तप्राय भऽ चुकल छल।

सी० सी० मिश्र विषण्ण चित्त सॅं अपना होस्टल में एलाह। मेसक भनसिया आबि कय कहलकैन्ह, 'बाबू! खाना बड़ी देर सॅं राखल अछि।' मिश्रजी कहलथिन्ह-"छोर दो, अभी तबियत ठीक नहीं है। '

तदनन्तर ओ केवाड़ बंद कय बड़ी राति धरि एक टा चिट्ठी लिखैत रहलाह।

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