लेखक : हरिमोहन झा

भोजक प्राते भेने द्विरागमनक विचार होमय लागल । भोलानाथ और कंटीर वस्तुजात कीनक हेतु दरिभंगा बिदा भेलाह ।

चिट्ठा देखि बुच्चिदाइ माय कैं कहलथिन्ह - देहाती गहना त हम एकोटा पहिरबौक नहि । पौती- पेटारक हमरा कोन काज पड़त ? और तेल-फुलेल, मसाला; तिलौरी कि 'बनारस' सॅं बढ़ियाँ एहिठाम भेटतौक जे हमरा संग कऽ देबैं ? एहि सॅं दामे जोड़ि कऽ दऽ दे । हम ओतय अपना पसन्द सॅं बनारसी साड़ी और बर्त्तन सभ कीनि लेब ।

लालकाकी बेटीक बात सूनि गुम्म रहि गेलीह । एँ गे ! दुइए आखर अँगरेजी पढ़िकऽ तोरा एतेक बुद्धि भऽ गेलौक ! भरि जन्म एहीठाम रहलैं से सभटा बिसरि गेलहीक ? लेकिन कतबो अँगरेजी पढ़ि जैबें तैयो बेटी त हमरे कहैबें । जे सदाय सॅं भऽ एलैक अछि से तोरा मे कोना नहि होयतौक ?

बुच्चीदाइ - तों त देहाती जकाँ बजै छैं । अँगरेजी मे एहन बात कैं नानसेन्स (वाहियात) कहै छैक ।

ला० - गै बौआ ! त आब हमरो अँगरेजी सिखा दे । और अपना बापो कै एक घंटा कऽ पढ़ा देल करहुन !

एतबहि मे एक झुण्ड आइ माइ कैं अबैत देखि लालकाकी कहलथिन्ह - देख, सभक गर धऽ कऽ कानय पड़तौक । तैयार भऽ जाही ।

बुच्चीदाइ कहलथिन्ह - ई असभ्यता त हमरा बुतें नहि हैतौक जे 'कोरस' मे चिचिया कऽ कनबौक । हॅं, देखैबाक होउ त अड़ाॅचिक तेल आँखि मे लगा दे जे नोर चुबैत रहत ।

लालकाकी बेटीक मुँह झपैत, आइमाइक स्वागत करय गेलीह । ता बटुकजी आबि कहलथिन्ह - हम आठ गो कहरिया ठीक कऽ ऎली हऽ । आठ गो रुपैया लेत और सभ कोनी के सीधा देबे के पड़त । आब ओहार के बन्दोवस्त मे जाइ छी ।

ई सूनि सी० सी० मिश्र हुनका बजा कऽ बुझाबय लगलथिन्ह - छौ माइल सकरी साइकिल सॅं आधा घंटाक रास्ता । ओहि खातिर एतेक तुल-फजूल किएक कऽ रहल छी ? बीसम सताब्दी मे समय और मनुष्यक मूल्य एतेक कम नहि छैक एगोटा आठ मनुष्यक माथ पर लदा कऽ चलय । और वायु प्रकाश तथा प्राकृतिक दृश्य सॅं अहाँ कैं कोन शत्रुता अछि जे 'ओहार' क खोज मे बिदा भेलहुँ अछि ?

बटुकजी कैं सभटा बात त बूझय मे नहि ऎलन्हि । लाल कैं कहय गेलथिन्ह - गुरुजी ! ओहार त दमाद रोकै छथ । कहै छथ जे साइकिले पर विदागरी होयत ।

लालक क्रोधाग्नि मे जेना किरासन तेल पड़ि गेलैन्ह । बजलाह - अंग्रेजी पढ़ि कऽ हुनक बुद्धि भ्रष्ट भऽ गेलैन्ह अछि । तोंहू एहन बूड़ि छह जे ई सभ समाद हमरा कहऽ अबै छह । जाह ! कहुन गऽ जे ई सभ बात एहिठाम नहि चलतैन्ह । एक बेर त पाग खसा देलन्हि, आब कि नाको कटबौताह ?

बटुकजी सी० सी० मिश्र कैं जा कऽ कहलथिन्ह - गुरुजी खिसियाइ छथ जे साइकिल पर चढ़ला से नाक-कान कटा जतैन ।

सी० सी० मिश्र कनेक सोचि कऽ कहलथिन्ह - नवसिखुआ कैं नाक-कानक डर रहै छैक । अहाँक बहिन त आब खूब नीक जकाँ सीखि गेली अछि । हॅं, दू टा बाइक इन्तिजाम होबक चाही ।

बटुकजी अपना गुरुजीक समक्ष जा कऽ निवेदन कैलथिन्ह - लिउ । आब दोसरे ताल लागल । ऊ कहै छथ जे आब दूगो 'बाई' के इन्तिजाम होबे के चाही । लेकिन ई बनारस है कि दू गो भाइ चार गो बाईजी बोलैला से पहुँच जैतन !

लालक धधकैत क्रोधाग्नि मे जेना भरलो बोतल स्पिरिट उझिला गेलैन्ह । बटुकजी पर जोर सॅं खिसियाय लगलथिन्ह - तों गदहा आदमी छह । जाह । भागह एहिठाम सॅं !

बटुकजी भनभनाइत ओहिठाम सॅं बिदा भेलाह - ले बलैया ! देखू धन्धा ! उलटे हमरे डाँटे लगलन ! दामाद के कोह हमरे पर सधवै छथ । एह घर मे आब अजबे हाल सभ देखे मे अबैयऽ । इहाँ हमर पढ़नाइ न उजिया सकैयऽ ।

ई कहैत बटुकजी अपन 'शीघ्रबोध'क गत्ता सरियाबऽ लगलाह । 'द्विरागमन' प्रकरणक श्लोक कैं रटब आब व्यर्थ बूझि ओ यत्नपूर्वक पुस्तक कैं बस्ता मे बान्हि चक्का पर राखि देलन्हि ।

बटुकजी कैं बिरुझल जकाँ देखि लाल कहलथिन्ह - तोरा दूनू सार-बहनोइ मे जे हँसी-ठट्ठा होइ छौह से हमरा की कहऽ अबै छह ? बहुत पाठ क्षति भऽ गेल छौह । आवृत्ति त सुनाबह ।

आब बटुकजी गोङियाय लगलाह -

'डेवत्युत्तड़ रोहिणी मिडिग मग्धा ....मिडिग मग्धा...ऊँ ऊँ ऊँ मिडिग मग्धा....

एवं प्रकारें 'मघा' 'मघा' करैत करैत बटुकजीक स्मरणशक्ति कैं बघा लागि गेलैन्ह । कतबो मस्तिष्क-मंथन कैने अग्रिम चरणरुपी रत्न नहि बहरा सकलैन्ह । एहने संकटावस्थाक समय बटुकजीक भाग्य सॅं लालक वयोवृद्ध ससुर पं० धर्मानन्द शास्त्री पहुँचि गेलथिन्ह । अत्यन्त धर्मनिष्ठ, आचारी ओ तपस्वी होयबाक कारण ओ 'महात्माजी' कहबैत छलाह । हुनका देखितहि लाल अभ्यर्थना करक हेतु उठि कऽ ठाढ़ भेलथिन्ह । बटुकजी कै उसास भेटि गेलैन्ह । ओ 'मूलानुराधा'क पौकी छोड़बैत फुर्ती सॅं समाद देबक हेतु आङ्गन दौड़लाह ।

लालकाकी एतेक दिन पर हरिद्वार सॅं आएल अपन पिता कैं देखबाक हेतु दौड़लीह । आशीर्वाद दैत कहलथिन्ह - हमरा बड़ जोर भूख लागल अछि। पहिने भोजन कराबह। कोनो अडवाल करबाक काज नहि। हमरा आइ अनोना अछि। अछिंजल मे सिंहाड़ाक आँटा सानि कय दस टा सोहारी छानि लय। थोडे़क हलुआ बना लय। मखानक खीर संग खा लेब। पानि पीबक हेतु केरा-परोरक अनोर तरकारी दऽ दिहऽ। बेशी मन होऔ त कोनो मधुरो बना लिहऽ। विन्यास करबाक कोन काज ? जा, झट द ठाँव-बाट कराबह।'

लालकाकी हड़बड़ा कऽ विदा भेलीह। तखन महात्मा जी हॅंसि कऽ कहलथिन्ह- गै बताहि! हँसि कैलिऔक अछि। एखन हमरा सन्ध्या-तर्पण, पूजा-पाठ मे तीन-चारि घंटा लागत। तखन किछु फलाहार करबौक।

महात्माजी स्पष्टवक्ता तथा विनोदी प्रकृतिक छलाह।

सी० सी० मिश्रक परिचय पाबि ओ पुछलथिन्ह-'अहाँ अपन वेश-भूषा छोड़ि विलायत पोशाक किऎक पहिरने छी? विलायतक साहेब त अपना देश सॅं हजारो कोस दूर रहि कऽ अपन पतलून छोडि अहाँक धोती नहि पहिरैत अछि, और अहाँ भारतीय सन्तान भऽ अपन देश मे अपन धोती छोड़ि पतलून पहिरैत छी! अहाँ पाग कै लज्जा तथा टोप कै गौरवक विषय बुझै छी। ई लज्जाक विषय थिक वा गौरवक?

सी० सी० मिश्र चुप्प!

महात्माजी पुनः कहय लगलथिन्ह-'अहाँ आर्यसभ्यता क सम्पादक छि अथवा व्यापादक? अहीं सन-सन व्यक्ति आर्यावर्तक 'आचार' कैं विलायती सिरका मे फुला अँचार बना दैत छथि। अपन भाषा-भूषा भोजन-भाव कैं छोड़ि साहेबक नकल पर दौडै़ छथि और ताही मे महत्त्व बुझै छथि। कतौक व्यक्ति स्वयं सिंहचर्मावृत रासभ बनि स्त्रीओ कैं नीलवर्ण श्रृगाली बनाबक चाहै छथि और स्त्रीओक मुँह सॅं मातृभाषाक स्थान मे पातृभाषा सुनक चाहै छथि। ई दासत्व बुद्धिक पराकाष्ठा थिक।

सी० सी० मिश्र चुप्प!

शास्त्रीजी फेरि बजलाह - अहाँ शिक्षिता स्त्री ककरा कहै छिऎक ? यदि भारतीय स्त्रीक हेतु अँगरेजी मे गप्प केनाइ वा अँगरेजी फैशन मे रहनाइ शिक्षिता होयबाक प्रमाण मानल जाय त मेमोक हेतु मिथिला-भाषा मे गप्प केनाइ वा मैथिल नारी जकाँ रहनाइ शिक्षाक मापदण्ड किएक नहि मानल जाय ? और राजभाषा सीखक हेतु जखन एतेक प्रजा मौजूदे छथि त प्रजावतीक नहिए सिखने कोन हानि ?

सी० सी० मिश्र चुप्प ।

महात्माजी पुनः बजलाह - हमरा लोकनि गृहिणीक हेतु शिक्षाक अर्थ बुझै छी कर्त्तव्य-शिक्षा जे स्त्री अनुशासनक महत्व बूझय, मर्यादा पालन मे गौरव मानय, कर्त्तव्यक वेदी पर भोगलिप्साक बलिदान करय, वैह यथार्थतः शिक्षिता थिक । सीताजी अपना आदर्श पर सती भेलीह, तैं हम हुनकर पूजा करैत छिऎन्ह । यदि ओ लंकाक बाजब नाचब सीखि कऽ अशोकवाटिका मे टहलितथि त शुर्पणखा सॅं बेशी महत्व नहि पबितथि । यथार्थ शिक्षा ओ थिक जे आत्मा मे धर्म-ज्ञानक प्रकाश जगा जीवन कैं पवित्र और उच्च बनाबय । भारत-भूमि मे भारतीय ललनाक सर्वोच्च आदर्श थिकीह मैथिली, जनिका समक्ष समस्त संसारक स्त्री वर्ग नतमस्तक भऽ जाइ छथि । ओहन श्रेष्ठ आदर्श कैं बिसरि अहाँ भारतीय कन्या कैं मेम जकाँ नचाबक चाहै छी ? पाश्चात्य भोगवादक मृगमरीचिका पाछाँ दौडै़त-दौडै़त स्त्रीओ कैं दौड़ाबय चाहै छी ? यूरोपक बुद्धिवाद और उपयोगितावाद अन्ततोगत्वा भारतक अध्यात्मवाद मे आबि कऽ शान्ति ढूँढ़त से अहाँ देखि लेब । विलायती काचक चमक-दमक पर लट्टू भऽ अहाँ अपना घरक सोन कैं टलहा बूझि फेंकि रहल छी ! ई केहन भारी व्यामोह थीक ?

सी० सी० मिश्र चुप्प !

महात्माजी - केवल अहीं टाक दोष नहि थिक । एखन प्रकृति-नटी मादक अँगरेजी वेष धारण कय अहाँ सन-सन अनेको पुरुष कैं लट्टू जकाँ नचा रहल छथि । सम्प्रति आदिशक्ति पुरुषक गोष्ठी मे रंगविरंगी वेष-भूषाक छटा देखा, हँसि-हँसि अँगरेजी मे बाजि टेबुल पर छुरी-काँटा सॅं पावरोटी कटैत कतेको हृदय कतरि दैत छथि । महामायाक एहि छाया पर अहाँ सन-सन व्यक्ति मोहित भऽ काया पर्यन्त अर्पित करय लागि जाइ छथि । किन्तु ज्ञानी पुरुष शान्त भाव सॅं सभ लीला देखि एक बेरि मुस्कुरा दैत छथि; अहाँ जकाँ नचै छथि नहि । ओ तरह-तरहक नाच कैं निःसार बूझि सृष्टिक मूल तत्व पर ध्यान दऽ प्रजापतिक आदेश पालन करै छथि । हमरा लोकनि त स्त्रीक योग्यताक अर्थ बुझै छी सत्सन्तानोत्पादनक योग्यता । "पुत्रार्थ क्रियते भार्या ।" एहि सिद्धान्त पर अहाँ सन-सन अङ्गरेजिया हँसथु, किन्तु घुरि फिरि कऽ अंत मे फेरि ओही पर आबऽ पड़तैन्ह । नारीक मुख्यकार्य पुत्र-प्रसविनी होयबाक छैन्ह, पुस्तक-प्रसविनी होयबाक नहि । पुरुषक देखाउस कय ओ कोनो-कोनो युग मे लिखनाइ पढ़नाइ सीखि ज्ञान-विज्ञान उपार्जन कऽ लेथु, किन्तु ओ योग्यता विकास-क्रम मे क्षणिक फेन मात्र थिक, असली प्रवाहक श्रोत नहि । कठोर विज्ञानक दुरूह भार वहन करबाक हेतु स्त्रीक कोमल मस्तिष्क नहि बनल छैन्ह । जंगल, पहाड़ और बादशाहक नाम रटा, रेखागणित तथा बीजगणितक सूत्र कंठस्थ करा और विदेशी भाषाक शब्दकोष मुखस्थ करा, हम नारीक ओ बहुमूल्य समय नष्ट नहि करक चाहैत छिऎन्ह जाहि मे ओ सुकन्या, सुपत्नी वा सुमाता होयबाक संस्कार कैं पुष्ट कऽ अपन नारी जीवन कैं सार्थक कऽ सकै छथि । सीताजी गणित वा पदार्थ विज्ञान नहि पढ़ने छलीह । परन्तु के हुनका अशिक्षिता कहबाक धृष्टता कऽ सकै अछि ? भिन्न-भिन्न विज्ञानक संकलन तथा उपयोग सांसारिक जीवन युद्धक हेतु जीवनक अन्तिम ध्येय नहि, किन्तु उपकरण मात्र थिक और तदर्थ पुरुष लोकनि छथिए । कोमलांगी कैं और और कोमल गुणक विकास करऽ दिऔन्ह जाहि सॅं माधुर्य प्रदान करतीह । यदि हुनको अपने सन कठोर बना देबैन्ह त जीवनक रस सुखा जाएत । अहाँ अपने खेत जोतू , हुनका फलक आनन्द दिऔन्ह । अपने साइकिल दौड़ाउ, हुनका महफाक आदर दिऔन्ह । ओ सभ सॅं पुनीत और महत्वपूर्ण कार्य सम्पादन करै छथि - "मानव-सृष्टि"। हुनकर समुचित आदर करब सीखू तखन पुरुषार्थ । स्त्री सॅं पुरुषवत कार्य कराएब स्त्रैणताक लक्षण थिक ।

सी० सी० मिश्र सोचय लगलाह ।

महात्माजी - महिलाक यथार्थ सम्मान नकली शिष्टाचार सॅं नहि होइत छैक । परपुरुष सॅं करमर्दन कैं हम सभ्यताक चिह्न नहि, बल्कि असभ्यताक चिह्न बुझै छी । स्त्रीक सहशिक्षा तथा स्वतंत्रताक आंदोलन कैं हम अधिकांशतः पुरुषक उद्दाम लालसाक छद्मवेश मात्र बुझै छी । स्त्रीक वास्तविक शिक्षा घर मे होइ छैक । बाहरी चमक-दमक क शान सिखा, तथा स्वच्छन्दताक मादक नशा पिया हम ओकरा बनबैत नहि, बिगाडै़त छिऎक । यथार्थ शिक्षा ओ थिक जे भोगवृत्ति कैं उदीप्त नहि कय त्यागवृत्ति कैं प्रोत्साहित करय । अहाँ पहिने स्वतः शिक्षित होउ तखन स्त्री-शिक्षाक असली अर्थ बुझबैक ।

महात्माजी उठि कऽ पूजाक आसन पर गेलाह । सी० सी० मिश्र मनहिंमन विवेचना करय लगलाह - आधुनिक प्रगतिशील युगक क्रान्तिकारी विचार और एहि वृद्धक प्राचीन स्सत्वि आदर्श मे कतेक अन्तर अछि ? एक मदिराक समान मनोहर, दोसर जलक समान शीतल । एहि दूनू मे सत्य कोन ?

सी० सी० मिश्र मनहि मन मिस बिजली तथा महात्माजीक व्यक्तित्त्वक तुलना करय लगलाह। एक चञ्चल निर्झरिणी, दोसर शान्त महासागर। एक रजोगुणक मूर्त्ति, दोसर सत्त्वगुणक अवतार। एक देहाभिमानी सुखाराधिका, दोसर देह और सुख कैं तुच्छ बूझि तपस्यामे निरत। मिश्रजी जतेक अधिक चिन्तन करय लगलाह, ततेक अधिक महात्माजीक प्रति हुनक श्रद्धा बढ़य लगलैन्ह।

बुच्चीदाइ तुलसी चौरा लग माय कै कहैत रहथि- "आङन मे ई तुलसी की रोपने छैं? दू-चारिटा

'क्रोटन' क गमला मङा ले।

ता सी० सी० मिश्र आङ्गन मे पहुँचलाह। उपयुक्त वाक्य सुनि एक चिन्ता मन मे उत्पन्न भऽ गेलैन्ह। बड़ी काल धरि सोचैत रहलाह। अन्त मे किछु निश्चय कैलन्हि।

बटुकजी क बजा कय कहलथिन्ह-अहाँ जा कऽ महफा ओ कहार लऽ आउ।

बटुकजी आश्चर्य चकित भऽ बजलाह-ले बलैया! देखू धंधा! अपनही रोकियो देलन और आब फेन लाबहू कहै छथ! अहाँ त बोलैत रही जे साइकिले पर जाइ जाएब!

सी० सी० मिश्र कहलथिन्ह-हम त साइकिल पर जाएब, लेकिन अहाँक बहिन विना पर्दाक कोना कऽ जैतीह?

बटुकजी कैं ई नहि बूझि पड़लैन्ह जे बहिनोइ यथार्थ कहै छथि वा हँसी करै छथि। ओ मन मे सोचय लगलाह-ई त अजगूते बात आइ हिनका मुँह से सुनाइ पड़ल। जाने कैसे पच्छिम मे सूरज उग गेलन!

द्विरागमनक वस्तुजात आबि गेल। लालकाकी दुइए टा काज आब करय लगलीह। पौती साँठब और कानब।

नियत दिन मे दरबाजा पर महफा आबि गेलैन्ह। बुच्चीदाइक नैहर आब छूटय लगलैन्ह। करुण क्रन्दन सॅं आङ्गन घर प्रतिध्वनित होबय लागल। आब बुच्ची दाइ कैं एक-एक कऽ बाप, माय, भाइ, बहिन सभक गुण मन पड़य लगलैन्ह।

महात्माजी आङ्गन मे आबि लालकाकी कैं चुप करैत बजलाह-सनातन काल सॅं एहिना होइत एलैक अछि। तोंहू त एहिना हमरा घर सॅं विदा भेल रहह। केओ सर्वदा एकठाम नहि रहि सकै अछि। सभ सॅं सभक बिछोह भेनाइ अवश्यंभावी छैक। यैह संसारक नियम थिकैक। यावत धरि लोक एक ठाम रहै अछि, तावत धरि एक दोसराक मोह रहै छैक। किन्तु कालचक्र ककरो बराबरि एक ठाम नहि रहय दऽ सकै छैक। कतेक कनै जैबह?

बुच्चीदाइ कैं आशीर्वाद दैत कहलथिन्ह-सीता समान होइहऽ। एहि सॅं उत्तम आशीर्वाद विवाहिता स्त्रीक हेतु नहि भऽ सकै छैक।

बुच्चीदाइ आँचर सॅं हुनका पैरक धूलि हँसोथि माथ मे लगा लेलन्हि। आब हुनका माय- पितिआइन गर लगौने महफा मे चढ़ा देलथिन्ह।

सी० सी० मिश्र चलय काल महात्माजीक चरण छूबि प्रणाम कैलथिन्ह। महात्माजी आशीर्वाद देलथिन्ह-माता चंडी अहाँ कैं सी० सी० सॅं चंडीचरण बनाबथु।

तावत लाल कहरिया सभक दिशि ताकि कहलथिन्ह-'आब मुहूर्त्त बीतल जाइ छैक। महफा उठो।

कहार सभ कान्ह लगौलक। बुच्ची दाइ और जोर सॅं बाबू, बाबू कहि आक्रोश करय लागि गेलीह। तावत लाल कनैत-कनैत बजलाह-चुप रहह! मँगा लेबौह।

गाइन दल कनैत-कनैत समदाउनिक करुण स्वर उठा देलन्हि-

"बड़ रे जतन सॅं सियाजी कैं पोसलहुँ सेहो रघुवर नेने जाय ! "

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