लेखक : हरिमोहन झा

मण्डप पर बैसितहि मिस्टर सी० सी० मिश्रक नेत्र सभ सॅं पहिने ओहि सुपरिचित गुलाबी साड़ी क अन्वेषण मे इतस्ततः घूमय लागल। ई देखि पं० नमोनाथ झा बजलाह- ट ट ट ट टी टी टी टी टीक टीक टीक बान्हि लेल जाओ।

एतबहि में मिश्रजी देखैत छथि जे स्त्रीगण क झुण्ड ओहि गुलाबी साड़ी कैं चारू कात सॅं घेरने शनैः शनैः मण्डप दिशि अग्रसर भय रहल अछि। ई देखि मिश्रजी क मनमयूर नाचय लागल। थोड़बहि काल मे गुलाबी साड़ी मण्डप पर आनल गेलि और लालकका क दक्षिण पार्श्व मे बैसा देल गेलि। ओ लजौनी खढ जकाँ सकुचि भूमि में सटय लागलि। मिश्रजी मन मे कहय लगलाह-यह लड़की गजब की नखरेबाज मालूम होती है। अभी कैसी भींगी बिल्ली की तरह बैठी हुई है! इसका यह पोज (भाव) देखकर कौन कहेगा कि अभी कुछ मिनट पहले यह मुझे नाक पकड़कर नचाती फिरती थी?

एतबहि में पंडित नमोनाथ झा गोत्राध्याय क काण्ड प्रारम्भ कैलन्हि। लालकका, जाहि कागज पर वर क परिचय लिखल छलैन्ह, से बटुआ सॅं बाहर कय मिस्टर सी० सी० मिश्र क बाप, पितामह, प्रपितामह आदि क नामोच्चारण करय लगलाह।

गोत्राध्याय क उपरान्त लालकका जमायक हाथ अपना हाथ धय मैंया दिशि तकलथिन्ह। मैंया ओहि गुलाबी साड़ी क आवरण क भीतर सॅं एक लजाएल हाथ निकासि मिश्रजी क कम्पित हाथ पर राखि देलथिन्ह। पं० नमोनाथ झा ओहि पर अक्षत, चन्दन,पुष्प, और शंख राखि कन्यादान क मन्त्र पढाबय लगलथिन्ह-'इमां क क क क कन्या स स स स सालंकारां आदि पढा कय कहलथिन्ह- क क क क कन्या क न न न न नाम लियऽ।

ई सुनैत मिस्टर सी० सी० मिश्र कैं धक सॅं बिजली दौड़ि गेलैन्हि । हिनका मस्तिष्क मे तरह-तरह क अपटुडेट नाम सभ चक्कर लगाबय लगलैन्ह । ई उत्सुक भय सोचय लगलाह - देखा चाही, की सुनैत छी ! कुमारी बिजली बाइ ? अथवा नलिनीबाला ? अथवा विमलप्रतिभा देवी ? अथवा मिस अनारकली ?

एतबहि मे लालकका क मुँह सॅं 'बुचिया नाम्नीम' सूनि मि० सी० सी० मिश्र क कल्पना-लतिका पर तुषारपात भऽ गेलैन्ह ।

मिस्टर सी० सी० मिश्र अपन भावी ससुर क एहि प्रोजेक नेचर (अरसिकता पर छुब्ध भऽ उठलाह । मन मे सोचय लगलाह - 'संसार मे केहन-केहन सुन्दर नाम अछि - उषा ! प्रभा ! लीला ! लतिका ! मनोरमा ! शैलबाला ! चन्द्रकला ! हिरण्यमयी ! स्वर्णलता ! हेमाङ्गिनी ! पीयूषमयी ! तुषारवाला ! विश्वमोहिनी ! शिशिरसुन्दरी ! एहि मे सॅं एको टा नाम यदि ई बुढउ अपना कन्या क हेतु बिछने रहितथि त कि घर क आँटा गील भऽ जैतैन्ह ? अहा ! एहि चंचल सुन्दरी क नाम यदि कुमारी विद्युतप्रभा अथवा मञ्जुहासिनी देवी रहैत त हमर जीवन आइ केहन सुखमय बनि जाइत ! परन्तु एहि बुढउ कैं फुरलैन्ह मे फुरलैन्ह कि त 'बुचिया' ! छिः छिः ! आब हमर जीवन नष्ट भऽ गेल । पुनः अपना मोन कैं संतोष देमय लगलाह - 'अच्छा, आब त ई मिसेज मिश्रा कहौतीह । लेख, कविता आदि मे देवाक हेतु हम एक सुन्दर उपनाम अपना पसन्द सॅं चूनि कय राखि देबैन्ह ।'

एम्हर पं० नमोनाथ झा धुड़झाड़ अपन ठेलागाड़ी छोड़य लगलाह ।

वैवाहिक मन्त्र मे वर और कन्या क हेतु केहन पवित्र आदर्श भरल छैक ! अग्नि कैं साक्षी राखि दूहू कैं प्रतिज्ञा करय पड़ैत छैन्ह जे आब सॅं हम दूहू गोटा मिलि कय एक भय गेलहुँ और आजीवन मनसा-वाचा-कर्मणा एक भेल रहब । सुख-दुख मे, पाप-पुण्य मे, जीवन-मरण मे हम एक दोसरा क भागी रहब । संसार मे कोनो शक्ति हमरा दूहू गोटा कैं पृथक नहि कै सकत । प्राचीन युग मे वर ओ कन्या दुहू सम्यक रुपें अपन गम्भीर दायित्व ओ पूनीत कर्त्तव्य बूझि वैवाहिक प्रतिज्ञा सॅं आबद्ध होथि । एकरे नाम थिक वैदिक विवाह ।

किन्तु सम्प्रति की स्थिति भय रहल अछि ? ओहि पावन प्रतिज्ञा क अर्थ सॅं वर-कन्या कैं ततबहि सम्पर्क रहैत छैन्ह जतेक आधुनिक ग्रेजुएट लोकनि कैं मिथ्लाक्षर सॅं । पुरोहित महाराज क आँखि रहैत छैन्ह पद्धति पर मन रहैत छैन्ह 'रजतं चन्द्रदैवतम्' पर । यजमान चाहैत छथि जे कोनहुना झट दऽ छुतका छोड़ा कय पाक भय जाइ । रहि गेलाह वर-कन्या । से वर क मन मे रहै छैन्ह जे कखन विधि-वाध क बखेड़ा सॅं पिण्ड छुटय और फालतु लोक सभ घसकय जे कोबर कऽ आनन्द लूटी । और बेचारी कन्या बलिदान क छग जेना बैसलि भीतरे-भीतर औनाइत रहैत अछि । जाहि पुरुष कैं ओ कहियो देखने सुनने नहि, जनने बुझने नहि ओकरा एकाएक ऊक जकाँ आबि अपन भाग्य-विधाता-बनैत देखि कन्या क मन मे विद्वेष उत्पन्न होएब सर्बथा स्वाभाविक छैक। ओहि अपरिचित 'मालिक' क प्रति ओकरा प्रेम नहि भऽ प्रत्युत उपेक्षा और घृणा क भाव जागृत भऽ जाइत छैक। ओकरा हृदय मे एक एहन अज्ञात भय जड़ि पकड़ लैत छैक जे ओकरा आत्मा क स्वतन्त्रता कैं नष्ट कय ओकरा पराधीना दासी बना दैत छैक। ओ कुमारि अवस्था मे अपना कैं एक व्यक्ति बुझैत छलि, विवाह क राति सॅं ओ अपना कैं सम्पत्ति बुझय लागि जाइत अछि। कोनो कन्या क विवाह भेला पर ओकर चेष्टा क अध्ययन करू, ई परिवर्तन स्पष्ट देखय मे आओत। कन्या मे आब ओ स्फूर्ति कहाँ, ओ तेज कहाँ? पहिने ओ मुक्त चिड़इ जकाँ चहकैत फिरैत छलि। आब ओ पिजड़ा क पक्षहीन पक्षी जकाँ बॅंधुआ बनि जाइत अछि। ओ पहिने जीवित छलि, आब ओकर जीवनी शक्ति जाइत रहलैक।

हमरा लोकनि मूलवस्तु कैं छोड़ि छाया क अनुसरण कय रहल छी। वर-कन्या क स्वभाव, शिक्षा ओ विचार मिलय वा नहिं, किन्तु उतेढि मिलि जैबाक चाही। वर-कन्या एको अक्षर प्रतिज्ञा क अर्थ बुझथु वा नहि, किन्तु मन्त्र पढल जैबाक चाही। वर-कन्या मे यथार्थ स्नेह-बन्धन हो वा नहि, किन्तु गठ-बन्धन भऽ जैबाक चाही। ई विवाह नहि, विवाह क स्वाँग थिक। और एही कनेयां-पुतरा क खेल क पाछाँ लाखो बिकाएल जा रहल छथि और एहि सारहीन स्वाँग सॅं एहि क्षणिक प्रहसन सॅं, जे दाम्पत्य-सम्बन्ध प्रारम्भ होइत अछि ओ प्रायः आजन्म रोदन क कारण बनि जाइत अछि।

एहि अनर्थमूलक नकली विवाह क अन्त कोना हो? समाज कैं सरोकार छैन्ह दहनही क अँकुरी सॅं, भार क बायन सॅं, चतुर्थी क भोज सॅं और घसकट्टी क सुपारी सॅं । वर-वधू क दाम्पत्य-जीवन कोना सफल और सुखमय बनतैक, ताहि दिशि समाज कनडेरिया आँखिये तकबा क प्रयोजन नहि बुझैत अछि। एहन स्वार्थी ओ अन्ध समाज सॅं कोनो लाभ नहि। जा धरि समाज क दृष्टिकोण उदार नहि होएतैक, जा धरि कन्या-घातक कुप्रथा सभ क मौलिक सुधार नहि होएत ता धरि देशोन्नति क आशा करब मृगमरीचिकावत् अछि। जखन मूर्खता ओ अन्धविश्वास क स्थानापन्न ज्ञान ओ तर्क क आधार पर विवाह-सम्बन्ध स्थापित होमय लागत, जखन कन्या-गण अपना कैं खुटा क बाछी जकाँ निरुपाय ओ पराधीन नहि बूझि अपना कैं मनुष्यता क अधिकार सॅं युक्त एक स्वतंत्र और मुक्त आत्मा बूझय लगलीह, जखन वर ओ कन्या मे जबर्दस्ती गॅंठजोड़ नहि भय प्रेम ओ सहानुभूति क सुत्र जोड़ाय लागत, तखन दाम्पत्य कर्त्तव्य चिरैता क काढा जकाँ तीत नहि लागि कुसियार क रस जकाँ मीठ लागत, और जे गृहस्थी एखन जंजाल क घर बूझि पड़ैत अछि, से स्वर्गीय सुख क केन्द्र बनि जाएत। परन्तु ई होएब तखने सम्भव जखन मैथिल कन्यागण जगजज्जननी जानकी, मंडन मिश्र क विदुषी भार्या सरस्वती ओ राजा शिवसिंह क पंडिता पत्नी लखिमा ट्कुराइन कैं अपन आदर्श मानि अपना मे आत्मबल ओ साहस क संचार करथि और अखिमुन्ना पर्दा कैं गर्दा में मिलाय, अबला सॅं सबला और मूर्खा सॅं शिक्षिता भय, मिथ्या लज्जा ओ भय कैं दूर भगवैत, सामाजिक अत्याचार क तीव्र प्रतीकार करबा क हेतु तत्पर भऽ जाथि । आब हुनका चाहिऎन्ह जे अनमेल विवाह-वेदी पर स्वयं बलिदान नहि भय, सामाजिक कुरीति क बलिदान करथि। यावत यावत धरि ओ शक्ति, साहस, शिक्षा और स्वावलम्बन सॅं वञ्चित रहतीह, तावत धरि ओ पशु क दशा मे प्राप्त रहतीह। मैथिल कन्या सभ पतिपावनी गंगा भय बहुत दुर्दशा सहैत गेलीह। आब हुनका असिधारिणी दुर्गा बनबा क प्रयोजन छैन्ह।

पाठक-पाठिकागण! हमरा लोकनि प्रस्तुत घटना सॅं बहुत दूर बहकि ऎलहुँ। आब देखू, लाबा छिड़िऎबाक बेरि पहुँचि गेल। गाइनि लोकनि परिहास क स्वर मे गायब लगलीह-

'लाबा छिड़ियाउ दाइ लाबा छिड़ियाउ, बाबू बिछि-बिछि खाउ।'

चारिटा कमैनिहारि जे ऎंठकटार लग ओसारा पर ढाढि छलि, से ओत्तहि सॅं डहकनि गाबय लागलि।

अश्लील गारि सुनि रेवतीरमण ओकरा सभ कैं मना करय लगलथिन्ह, लेकिन ओ सभ हिनका बात कैं मोजर नहि कय पूर्ववत उमङ्ग सॅं गवैत रहलि।

शनैः शनैः हवन, सप्तपदी आदि सभ वैवाहिकी प्रक्रिया सम्पन्न भय गेल।

मिश्रजी क हाथ मे सन, साख-सिहुली और मटिया सिन्दूर देल गेलैन्हि। स्त्रीगण 'शुभे हो शुभे' कहैत कन्या क झाँपल-तोपल सिउथि कैं कनेक उघारि मिश्रजी क औंठा सॅं सिन्दूर देया देलथिन्ह।

सिन्दूर दान ओ चुमाओन विधि क उपरान्त मिश्रजी कोबरघर मे पहुँचाओल गेलाह। ओतय नाना प्रकार क हावभाववाली अज्ञातयौवना, ज्ञातयौवना, मुग्धा, प्रौढा आदि नायिका सभ तरह-तरह क हास-परिहास ओ वचन-विलास सॅं मिस्टर सी०सी० मिश्र कैं चकित करय लगलीह। एहना स्थिति मे हमरा लोकनि आब एहि ठाम क दृश्य देखी से उचित नहि। त चलू, देखू जे बड़कागामबाली की कय रहल छथि। प्रायः ओ दोसरा घर मे ककरो संग किछु एकान्ती कय रहल छथि। यदि कोनटा लगबा मे कोनो विशेष अधर्म नहि होइत होइ, त सुनू जे की सभ गप्प-सप्प भय रहल अछि।

रेवती रमण-अहाँ त इनाम पैबा क योग्य काज कैलहुँ अछि। वाह! हमरा एतेक आशा नहि छल। किन्तु मंडप पर क हेतु अहाँ कोन युक्ति रचलहुँ?

ब० वाली-हम साहेब बहादुर कैं पहिनहि चेता देलिऎन्ह जे खबरदार, आप मंडप पर भूलकर भी मेरी ओर घूमकर मत देखिएगा।' और एन्हर दोसरा घर मे जा कऽ गुलाबी रंग क साड़ी छोटकी दाइ कैं पहिरा देलिऎन्ह। बस, माड़ब पर हिनका ओ साड़ी देखि अस-तस क विश्वास भऽ गेलैन्ह जे हमहीं बैसल छी।

रे०र०- किन्तु सिन्दूरो देबक काल हिनका ई नहि बूझि पड़लैन्ह जे कनेंया एतक छोट कोना भऽ गेलि?

ब० वाली-से त हम पहिनहि कहि देलिऎन्ह जे हम लोकलज्जा क रक्षार्थ खूब निहु कय बैसब। तखन सन्देह कोना होउन्ह?

रे० र०-त ई एखन धरि यैह बुझैत छथि जे अहीं हिनक कनेयाँ छिऎन्ह?

ब०-हॅं एखन, धरि त सैह बुझैत छथि।

रे० र०-त देखब, यैह बुझैत-बुझैत गोटेक बेरि हाथो ने साफ कय बैसथि!

ब०-ईह! से कि अखतियार छैन्ह? हम चेता देने छिऎन्ह जे चतुर्थी भरि वर कन्या क स्पर्श नहि करैत छैक। तैं चारि दिन धरि हाथ-पैर नहि पसारू। बेचारे धैर्यपूर्वक दिन गनि रहल छथि।

रे० र०-हॅं, तखन त ओहि राति अहाँ कैं नहिए छोड़ताह?

ब०-अहीं क बहिन हुनका नहि छोड़थिन्ह। हुनका की होश रहतैन्ह जे हमर खोज करताह?

ई सरस प्रश्नोत्तर शनैः-शनैः मृदुल हास्य ओ नूपुर क झंकार मे परिणय होमय लागल। एहि रसिक दम्पति क एकान्त विहार मे आब हमरा लोकनि कैं बाधा देब उचित नहि। अतएव आब एहू ठाम सॅं हटबाक चाही।