लेखक : हरिमोहन झा

घोर अन्धकार व्याप्त भय रहल अछि। आकाश मे समुद्र क लहरि जकाँ चारू कात सॅं कारी-कारी मेघ उमड़ रहल अछि। बीच-बीच मे बिजली चमकि उठैत अछि। थोड़बहि काल मे टिप-टिप कय पानि पड़य लागल। ई घटाटोप देखि जे गाइन लोकनि सौजन्य क सॅंचार देखय और उचिती गाबक हेतु आइलि छलीह से सभ झटकि कय अपना-अपना आङन दिशि पड़ैलीह।

मिस्टर सी०सी- मिश्र क समस्त अभिलाषा क गजट आइये राति बहरैबा लेल छैन्ह। कोबर घर मे पलंग पर ओंठगल ओ मनहि मन हनीमून क रिहर्सल (पूर्वाभ्यास) करय लगलाह। तरह-तरह क काल्पनिक दृश्य सिनेमा क फिल्म जहाँ हिनका हृत्पटल पर उदित और विलीन होमय लागल। मिश्रजी कल्पना जगत मे विचरण करैत निम्नलिखित प्रोग्राम बनाबय लगलाह-

जैखन श्रीमतीजी क एकटा रञ्जित कोमल पद-कमल चौकठि क भीतर पहुँचि जैतैन्ह, तैखन हुनक स्वागतार्थ झट द उठि कय ठाढ भऽ जैबाक चाही। ता दोसरो पद-कमल भीतर पहुचि जैतैन्ह। पदुपरान्त एवं प्रकारें कार्यवाही होमक चाही-

मि० मिश्र(पत्नी क समक्ष ठेहुनिया दऽ कऽ)-

ओ फेयर एञ्जिल! दाउ आर्ट माइ ऑल, माइ हार्ट माइ सोल, माइ लव, माइ लाइफ! हाउ रेयर ए ब्लिस इट इज टु काॅल, दिस डॅजलिंग फाॅर्म ऑफ दाइन माइ वाइफ!

[अरे यह भक से सौ पावर की बिजली आ गई कैसे? कनेक्सन के बिना लाइट एलेक्ट्रिक छा गई कैसे? जरा-सा स्विच दबाने से लगेगा शाॅक फौरन ही समझ में है न आता इसको पकड़ूँ हाथ से कैसे?]

मिसेज मिश्रा (मुस्कुराइत)- कुछ खौफ नहीं है साहब! आप बेखटे इस बिजलि को छू सकते हैं। अगर आपको डर मालूम होता है तो लीजिए, मैं ही आपका हाथ पकड़ लेती हूँ।

मिस्टर मिश्र (हाथ क चुम्बन करैत) - क्या मै जीता-जागता हूँ या स्वप्न देख रहा हूँ अथवा स्वर्गलोक में पहुँच गया हूँ ?

मिसेज मिश्रा (हिनका उठाकय छाती सॅं लगबैत) - मेरे काँपते हुए हृदय के मालिक ! तुम्हे इसी तरह चिपटाकर रखूँगी । (भुजा-पाश मे जोर सॅं कसि कय) क्या मजाल जो तुम इस बन्धन से अपने को तिल भर भी छुड़ा सको !

मिस्टर मिश्रा (आनन्दोन्मत्त भय) गाँड ! इफ यू एक्जिस्ट एनीह्वेयर, आइ चैलेंज यू टु कम फॉरवर्ड एण्ड क्रियेट ए स्वीटर प्लेजर दैन दिस टाइट एम्ब्रेस !

[ईश्वर! तुम कहीं भी मौजूद हो तो मैं तुम्हे सामने आने के लिए चुनौती देता हूँ । इस गाढ-आलिङ्गन मे जो मधुर आनन्द है सो देखो, और इससे बढकर कोई भी आनन्द उत्पन्न कर सको तो मैं समझू ।]

मिसेज मिश्रा - (मिश्राजी क केश फेरैत) प्यारे ! क्या तुम सच्चे दिल से मुझे 'लव' करते हो ?

मि० मिश्र (उत्तेजित स्वर सॅं) - यदि मजनू सचमुच लैला से प्रेम रखता था, फरहाद शीरी के लिए जान देता था, यूसूफ जुलेखा पर मरता था, रोमियों जूलियट को प्यार करता था, अंटोनी किल्योपेट्रा पर फिदा था, बसैनियो पोर्शिया पर मोहित था, और उन लोगों को तराजू के एक पलड़े पर बैठा दिया जाय और दूसरे पलड़े पर मुझे बिठा दिया जाय, तो सब के सब एकबारगी ऊपर उठ जायेंगे और आसमान मे लटकते ही रह जायेंगे ।

मिसेज मिश्रा - अहा ! अब मुझे क्या चाहिए ? (मुखचुम्बन करैत) मैने प्रेम की यह मुहर-छाप जो लगा दी है वह टूटने न पावे ।

मिस्टर मिश्र (अधर क रसपान करैत) - मालूम होता है अंगूरी शरबत का प्याला चूस रहा हूँ ।

मिसेज मिश्रा (गाल पर गाल रखैत) - मेरे प्यारे, मेरे मालिक, मेरे दिल में रहा करना । कलेजा काटकर तेरे लिए मैं घर बनाऊँगी ॥ मेरे हीरा, मेरे मोती, गले का हार बन जाओ । रहूँगी रात-दिन पहने, न पल-भर भी हटाऊँगी ॥ मेरे सुग्गा, मेरे तोता, मेरे पिंजरे में आ जाओ । मैं चुनकर खेत से दाना तेरे मुँह मे खिलाऊँगी ॥ मेरे साथी, मेरे शौहर, मेरी गोदी मे आ बैठो । करुँगी प्यार मैं तुमको कलेजे से सटाऊँगी ॥

मिस्टर मिश्र - अहा ! मालूम होता है, इस मुखरूपी चन्द्रमा से सभी अमृत छन-छनकर मेरे ही कानो मे आ रहा है । अहा ! वन्स मोर (एक बेरि और सुनाउ) !

तखन मिसेज मिश्रा कला पूर्वक पैर सॅं ताल देमय लगतीह । डान्स करबा मे हुनका पैर क नूपुर छम-छम बाजय लगतैन्ह ।

मि० मिश्र ई कल्पना करितहि छलाह कि यथार्थहि मे छम-छम क शब्द सुनि पड़लैन्ह । जेना केओ ताल दैत नृत्य करैत चलि अबैत हो ।

मिश्रजी क हृतन्त्री एके बेरि झन्न दऽ बाजि उठलैन्ह । जाहि समय क प्रतिक्षा ओ चौरासी घंटा सॅं कय रहल छलाह से समय आब नाक क सोझां आबि रहल छैन्ह । मिश्रजी क हृदय धक्-धक् करय लगलैन्ह । जेना वोट क गिनती होमय काल भावी मेम्बर लोकनि क हृदय धक्-धक् करय लगैत छैन्ह । ओ पुर्णतः नर्वस (किंकर्तव्यविमूढ) भऽ गेलाह । पहिलका सोचल सभटा प्रोग्राम गड़बड़ा गेलैन्ह ।

एतबहि मे गुलाबी साड़ी वाली सुन्दरी आबि कहलथिन्ह - मिश्रजी ! हमरा सॅं जे किछु कसूर भेल हो से क्षमा करब । और हमरा ननदि एखन बड़ सुकुमारि छथि । देखब, काँच कली तोड़ब उचित नहि । बेश, त अपन वस्तु सुनझा लियऽ ।

ई कहि बड़कागामवाली बुच्चीदाइ कैं घर मे धकेलि बाहर सॅं जिंजीर लगाय देलथिन्ह और विहुँसैत अपना घर दिशि चलि गेलीह ।

मिश्रजी क पैर तर सॅं पृथ्वी ससरि गेलैन्ह । ओ क्षमा कऽ आकाश पर सॅं खसलाह । आँखि क आगाँ अन्धकार भऽ गेलैन्ह । जतेक हवाइ महल बनौने छलाह से सभ एके बेरि बालु क धसना जकाँ खसि पड़लैन्ह । मुँ सॅं केवल दू टा शब्द बाहर भय रहि गेलैन्ह - 'माई गाॉड' (हे भगवान) एहि सॅं आगाँ ओ और किछु नहि बाजि सकलाह ।

देखैत-देखैत पश्चिम दिशा सॅं भारी बिहाड़ि उठल । संगहि-संग मूसरधार वृष्टियो होमय लागल । चार क खपरा पर अदौरी सन-सन बङ्गौरी पड़य लागल । बुच्चीदाइ भिड़ियाएल पटिया जकाँ ठाढ़ि रहि गेलीह और लस्सा जकाँ केबाड़ क दोग सॅं सटि गेलीह ।

मिस्टर मिश्र मन मे सोचय लगलाह - 'हाय-हाय ! क्या यही क्रीचर (जन्तु) मेरी वाइफ है ? इसमे तो कुछ भी पर्सनलिटी (व्यक्तित्व) नहीं है । मामूली एटीकेट मैनर्स (शिष्टाचार) तक नहीं जानती । न यह क्लब मे जा सकती है, न पार्क में घूम सकती है, न मीटिंग मे बैठ सकती है । मेरी लेडीफ्रेण्ड्स (मित्राणियाँ) कैसी शोख और चुलबुली है ? कोई परी की तरह नाचती है, कोई चिड़िया की तरह चहकती है, कोई बिजली की तरह चमकती है, कोई तितली की तरह उड़ती फिरती है । मगर यह कम्बख्त तो हिलने तक का नाम नही लेती । जबसे आई है, अशोक पिलर (स्तम्भ) की तरह वही गड़ी हुई है । इसमे जरा सा भी लाइफ का साइन (चिन्ह) नही जान पड़ता । मालूम होता है जैसे लगेज (गट्ठर) खड़ा कर दिया गया हो । क्या कोई भी जेन्टिलमेन (भद्र व्यक्ति) इसके साथ एक मिनट रहना पसन्द कर सकता है? हाय-हाय! मैं फाँसी पड़ गया। मेरी सभी आकांक्षाओं का खून हो गया।

बुच्चीदाइ मन मे सोचैत छलीह-'ईह! बाहर मे केहन-केहन बङौरी खसैत छैक। ओसारा पर रहितहुँ त एखन खूब बिछि-बिछि कय खैतहुँ!

मिस्टर मिश्र क नैराश्यरूपी अन्धकार मे सहसा एक आशा क क्षीण प्रकाश उदित भेलैन्ह। सोचय लगलाह-अच्छा, ऎसा भी तो हो सकता है कि इस ओढनी के अन्दर एक नाजनीन परी छिपी हो, घूँघट हटाते ही एक चाँद-सा मुखड़ा निकल आवे!

मिस्टर मिश्र भावना करय लगलाह-'इस पर्दे के अन्दर से मलाई-सी गोरी और मुलाइय एक सुन्दर कलाई निकलेगी जिसमे सुनहली रिस्टवाॅच (घड़ी ) चमकती रहेगी। पलाश के फूलों के समान कानों के समान कानों में छोटे-छोटे ईयररिंग चकमक करते रहेंगे और उनकी आभा गुलाबी गालों पर पड़ती रहेगी। फीरोजी रंग का ब्लाउज इतना नीचे से कटा रहेगा कि खुली हुई सफेद छाती दूध से धोये हुए संगमरमर की तरह जान पड़ेगी और उस पर गिनी गोल्ड का नेकलेस(सोने का हार) या मोती की माला छक-छककर अपनी ज्योत्स्ना छिटकाती रहेगी और कंघी-चोटी किये हुए काले-काले बालों की टेढी-मेढी माँग और लहरदार जुल्फें ऎसी बहार दिखलाती रहेंगी कि चेहरे की रौनक सौगुनी बढ जायगी और मालूम होगा कि काले-काले बादलों के बीच में चाँद निकल आया है। उस चाँद को हाथ में पाकर किसको किस करने की इच्छा नहीं हो जायगी!

ई भावना करैत-करैत मिस्टर मिश्र एतेक विह्वल भय उठलाह जे दन सॅं नेवाड़ क पलंग पर सॅं कूदि पड़लाह और लपकि कय बुच्चीदाइ क घोघ हटाय, माथ क नूआ सर्र द' खीचि लेलथिन्ह। बुच्चीदाइ ठामहि चुक्कीमाली बैसि गेलीह और ठेहुन क बीच मे मुँह नुका लेलन्हि। परन्तु मिस्टर मिश्र कैं देखबाक जे सिहन्ता छलैन्ह से पूर्ण भय गेलैन्हि। बुच्चीदाइ क पहुँची मे रिस्टवाच त नहि छलैन्ह, किन्तु छौ टा मोट-मोट लहठी और कँगना सुशोभित छलैन्ह। कान मे ईयररिंग क स्थानापन्न वीरझुम्मक लटकल छलैन्ह। बुच्चीदाइ क छाती क जे अंश मिश्रजी कैं देखना गेलैन्ह से संगमरमर जकाँ झलकैत त नहि बूझि पड़लैन्ह, किन्तु गोदना क रंग सॅं रंजित भेला क कारणें संगमूसा क समान भासित भेलैन्ह। ओहि पर नेकलेस त नहि छलैन्ह, किन्तु कारी डोरा मे गाँथल चानी क पैघ-पैघ चकती विराजमान छलैन्ह। फैशनदार माँगपट्टी और चोटी क बदला मे पाछा मे खोंपा बान्हल छलैन्ह और ललाट पर एक सिन्दूर-बिन्दु क स्थान में सौंसे कपार पर पटमासी सिन्दूर कैल छलैन्ह।

मिस्टर मिश्र क हृदय मे ज्वालामुखी भभकि उठलैन्ह। ओ छिलमिला कऽ केवाड़ खोलय लगलाह। किन्तु बाहर सॅं जिंजिर बन्द छलैन्ह। अन्त में हारिदारि कय खाट पर आबि कय बैसि गेलाह। तदुपरान्त नवदम्पति मे निम्नलिखित प्रश्नोत्तरी होमय लागल-

मि० मिश्र-क्या तुम्हारा ही नाम बुचिया है?

बुचिया(मनहि मन)-इह देखू ने, उर्दुए छॅंटै छथि।

मि० मिश्र-तुम बोलती क्यों नहीं? मैं जानना चाहता हूँ कि क्या सचमुच तुम्हारे ही साथ मेरा विवाह हुआ है?

बुचिया (मनहि मन)-मनुसा केहन भारी मुँहफट्ट अछि! एतेक जोर सॅं बजैत लाजो ने होइत छैक।

मि० मिश्र-देखो, इस तरह का पर्दा मैं पसन्द नहीं करता, अगर तुम सचमुच ही मेरी स्त्री हो तो मेरे नजदीक आकर क्यों नही बैठती?

बुच्चीदाइ मनहि मन डरैलीह जे ई कतहु फेरि आबोइ कय बेपर्द नहि करय। ई सोचि ओ अपन कोंचा और आँचर कैं सक्कत कय लेलन्हि।

मि० मिश्र- क्या तुम हारमोनियम बजाना जानती हो?

बुच्चीदाइ चुप्प।

मि० मिश्र-क्या तुम नर्सिंग(परिचर्या) जानती हो?

बुच्चीदाइ मन मे सोचय लगलीह-नरसिंह त गाम क कोतबाल क नाम छैक। देखू त भला, कोतवाल लगा क' हमरा गारि पड़ैत अछि!

मि० मिश्र-क्या तुम निटिङ्ग (जाली बुनना) वगैरह भी सीखा है?

बुच्चीदाइ चुप्प।

मि० मिश्र-तो क्या तुम मेरी किसी बात का जवाब देना नहीं चाहती? बुच्चीदाइ चुप्प।

मि० मिश्र- अच्छा तो मैं यहाँ से जाऊँ? बुच्चीदाइ चुप्प।

मि० मिश्र मन मे सोचय लगलाह- क्या यह बहरी या गूंगी तो नहीं है? अथवा जान-बूझकर 'इनसल्ट' (अपमान) कर रही है? खैर, जो हो, इसे अब आखिरी दफे पूछ लेना चाहिये कि यह क्या चाहती है।

मिस्टर मि० क धारण छलैन्ह जे एकान्त शयनागार में पति क प्रथम स्पर्श सँ पुलकित भय नववधू प्रेममग्न भय पति क छाती सॅं लपटि जाइत अछि। एहि भावना सॅं प्रेरित भय मिश्रजी अपन नवोढा पत्नी क समीप पहुँचलाह। किन्तु जैखन ओ निहुरि कय बुच्चीदाइ क बाँहि दिशि हाथ बढोलथिन्ह कि दुलार सॅं बहसल बुच्चीदाइ छिड़ियाएल नेना जकाँ हिनक हाथ जोर सॅं झटकि देलथिन्ह। मिस्टर मिश्र क नाक मे हीराकाट क चोख कॅंगना एतेक झोंक सॅं लगलैन्ह जे ओहि सॅं टप्-टप् शोणित खसय लगलैन्ह।

मिश्रजी रूमाल सॅं आखि-नाक पोछैत पुनः पलंग पर जा बैसलाह और अपना कर्त्तव्य पर गम्भीर रूपें विचार करय लगलाह। मन में नाना प्रकार क तर्क-वितर्क उठय लगलैन्ह। सोचय लगलाह- इस लड़की का स्टैण्डर्ड (दर्जा) तो मालूम हो गया। यह देहाती, मूर्ख, असभ्य और उजड्ड है। इसमें कुछ भी शौउर नहीं है। यह इतनी खराब सोसाइटी में पली है, इसमें इतना जंगलीपन भरा है कि इसको मनुष्य बनाते-बनाते मेरी सारी उम्र खतम हो जाएगी। फिर इससे मैं सुख कब उठाऊँगा? ऎसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए।

एहि प्रकारे तारतम्य करैत मिस्टर मिश्र कोट क पाकेट सॅं फाउण्टेन पेन बाहर कैलन्हि और रेवतीरमण क नाम सॅं चिट्ठी लिखय लगलाह। पत्र क भावार्थ नीचा देल जाइछ-

'प्रिय रेवती बाबू!

मुझे इस तरह धोखा देकर आपलोगों ने अच्छा नहीं किया। मै प्रत्येक दृष्टिकोण से विचार कर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि आपकी बहन मेरी पत्नी होने के योग्य नहीं है। मै गैस का इञ्जिन चाहता हूँ और वह बैलगाड़ी का पहिया है। उसके सहारे मेरा जीवन-रूपी हवाई जहाज ऊपर नहीं उड़ सकता, उल्टे जमीन पर गिरकर चूर-चूर हो जाएगा।

मैंने हर एक पहलू से आपकी बहन को जाँच लिया है। वह मेरे लिये सर्वथा अनुपयुक्त है। मुझे अभी तक समझ में नही आता है कि वह जिन्दा है या मुर्दा; बेवकूफ है या पागल, बहरी है या गूँगी, आदमी है या कोई दूसरी चीज, उसके साथ मेरा रह सकना बिलकुल असम्भव है ।

आपकी बहन न लिटरेचर (साहित्य) समझ सकती है, न पोलिटिक्स (राजनीति) डिस्कस (बहस) कर सकती है, न पियानो बजाकर मेरा दिल बहला सकती है । जिस समय मैं कालिदास और शेक्सपीयर कि कविताओं का रसास्वादन करता रहुँगा, उस समय जी तड़प उठेगा - होती कोई ऎसी आत्मा जो मेरे साथ बैठ छक-छककर यह अमृत पीती और मुझे भी पिलाती ! तब कितना विमल और स्वर्गीय आनन्द मिलता ! लेकिन आपके बहन के आगे शेक्सपीयर का नाटक रखना वैसा हि होगा जैसा भैंस के आगे रविवर्मा के चित्रों का अलबम रख देना । जिस समय मैं मिल और कांट के दार्शनिक विचारों की तुलनात्मक विवेचना करता रहूँगा, उस समय मन मे एक कसक उठेगी - होती कोई ऎसी आत्मा जो मेरे साथ इन सुक्ष्म भावों की बारीकियाँ समझकर जटिल-गुत्थियों को सुलझाने में मेरी सहायता करती, विचार-वारिधि मे मेरे साथ गोते लगाकर नये-नये रत्न ढूंढकर निकालती ! लेकिन उस समय आपकी बहन उलझे हुए बालों के गन्दे जंगल मे गोते लगाकर रत्नों के स्थान में जूँ ढूँढकर निकालती रहेगी । और फिर आपकी बहन के साथ मेरा कैसे निभ सकता है ? न वह फाइन सेन्टीमेण्ट्स (सूक्ष्म भावों) को समझ सकती है, न मेरे लॉफ्टी एम्बिशन्स (महत्वाकाक्षाओं) को अप्रीसिएट (अनुमोदन) कर सकती है । जीवन के जो सबसे बड़े-बड़े आनन्द है, उनमे वह मेरा साथ नहीं दे सकती, जीवन के किसी भी महत्वपूर्ण कार्य मे मेरा हाथ नही बॅंटा सकती । फिर आपकी बहन मेरा जीवन-सङ्गिनी क्योंकर हो सकती है ?

मैने माना कि आपकी बहन दोनो शाम रसोई बनाकर मुझे खिला सकती है, किन्तु यह काम तो पाँच रुपए के रसोइये से भी हो सकता है । मैने माना कि वह चौका-चुल्हे का मोटा काम कर ले सकती है, किन्तु यह काम तो दो रुपये के दाई से भी चल सकता है, मने माना कि वह मेरी क्षणिक वासनाओं की पुर्ति कर सकती है, किन्तु मेरी स्थायी वृत्तियों मे सहयोग तो नहीं दे सकती । आपकी बहन से मुझे मिला क्या ? एक रसोई बनानेवाली और वच्चा पैदा करनेवाली मशीन, किन्तु जीवन-यात्रा मे साथ देनेवाली सहचरी नहीं । वह मेरे शरीर के भूख-प्यास बुझा सकती है, मेरे आत्मा की नही । वह मजदूरिन बनकर भले ही रह सके, हृदय-साम्राज्य मे शासन करने वाली रानी बनकर नही रह सकती । थोड़े में यों समझिए वह मेरी पालिता हो सकती है, पत्नी नही ।

मैं जानती हूँ कि लड़की का कोई दोष नहीं है । वह अबोध है, अशिक्षिता है । लेकिन आपलोगों के पाप का प्रायश्चित उसे अवश्य ही करना पड़ेगा । आपलोगों ने उसके प्रति घोर अन्याय किया है। उसके प्रति अपने कर्त्तव्य की निष्ठुर अवहेलना की है। उसको आपने मनुष्योचित सभी अधिकारों से वञ्चित रखा है। सन्तान को केवल जन्म देने से ही माता-पिता के दायित्व की इति श्री नहीं हो जाती। सन्तान को सुशिक्षित और जीवन-युद्ध के योग्य बना देना माता-पिता का अनिवार्य कर्त्तव्य है। आपके पिता ने कन्या को 'सालङ्काराम' और 'प्रजापतिदैवताम' तो बना दिया, किन्तु उसे 'सुशिक्षिताम्' और 'सुयोग्याम' नहीं बनाया। कर्त्तव्य की इस अक्षम्य अवहेलना का प्रतिफल तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा।

मैं इतना स्वार्थी और हृदयहीन नहीं हूँ कि कहीं जाकर पुनर्विवाह कर लूँगा। मैं आपसे प्रतिज्ञा करता हूँ कि आजन्म ब्रह्मचारी रहूँगा। मैंने अपने जीवन का संकल्प निश्चय कर लिया है। जबतक जीता रहूँगा, घूम-घूमकर कन्याओं के जीवन को सुधारने की चेष्टा करता रहूँगा और स्वार्थ की वेदी, पर कन्याओं की जो हत्या हो रही है, उसके विरुद्ध आन्दोलन करते-करते अपना प्राण त्याग करूँगा। अपने देश की यदि एक भी कन्या को मूर्खता और अन्धविश्वास के चंगुल से छुड़ा सका, तो अपने जीवन को सफल समझूँगा।

जिस अभागिनी लड़की के साथ मेरा वैवाहिक नाटक किया गया है, उसको कह दीजिएगा कि वह अपने को कुमारी ही समझे और अब से भी शिक्षित बनने की चेष्टा करे। जिस दिन वह अपने को मेरे योग्य बना सकेगी, उसी दिन उसके साथ मेरा सच्चा विवाह होगा। यदि वह ऎसा करने में असमर्थ हो, तो उसे उसी के अनुरूप किसी वर के हाथ सौंप दीजिएगा।

अच्छा अब मैं चला। मेरा पता लगाने की चेष्टा मत कीजियेगा। और अपने पिता को कह दीजियेगा कि भविष्य में इस तरह का कन्या दान कर वर कन्या के जीवन का बलिदान नहीं करेंगे।

मिस्टर सी० सी० मिश्र चिट्ठी क मोड़ि सीरम मे राखि देलथिन्ह और विवक्षित जकाँ घर में इतस्ततः टहलय लगलाह। हुनका हृदय मे घोर अन्तर्द्वन्द मचय लगलैन्ह। अन्त में ओ मोह पर विजय प्राप्त कैलन्हि। पछबरिया भीत मे एकटा जंगल छलैक। बुढियाक दाँत जकाँ ओकर सभ छड़ टूटल छलैक। मिश्रजी बाकस पर पैर दय जंगल पर चढि गेलाह। हुनका हृदय में ज्वालामुखी भभकल छलैन्ह तकरा आगाँ पनिया-बिहाड़िक झटक किछु नहि बूझि पड़लैन्ह। मिश्र जी फाँड़ बान्हि साहसपूर्वक कूदय लेल तैयार भऽ गेलाह।

अभागलि बुचिया! ताँ चतुर्थीक कोन सुख बुझलह? ह ! तोहर सर्वनाश भय रहल छौह और तों औखन धरि अपन मुँह घोघ सॅं बाहर नहि करैत छह। कनेक आँखि खोलि कय ताकह जे केहन भारी वस्तु हेराय रहल छौह।

बुच्चीदाइ! आबहुँ चेतू। अन्तिम अवसर हाथ सॅं जा रहल अछि। औखन यदि अहाँ लपकि कय पतिक पैर पकड़ि ली त की मजाल जे ओ छोड़ा कय चलि जाथि। किन्तु अहाँ त संकोचे आँखिक पट्टी बन्द कैने छी।

निविड़ अन्धकार मे, घनघोर वर्षा मे, मिस्टर सी०सी० मिश्र एक बेरि पाछाँ तकलन्हि और धम्म् दऽ पछुआड़ मे कूदि पड़लाह। बिहाड़िक प्रचण्ड झोंक में किछु शब्द नहि सुनाइ पड़ल। एतबहि मे कड़कड़ा कय मेघ गरजल और लगहि मे कतहु ठनका खसि पड़ल।