लेखक : हरिमोहन झा

महामहोपाध्याय पं. धुरन्धर शास्त्री धर्मशास्त्रक कट्टर अनुयायी छलाह। ओ सभ कार्य स्मृतिक अनुसारे करैत छलाह। षट्कर्मी तेहन, जे जारनो कैं बिनु धोएने भानस मे नहि जाय दैत छलाह। नित्य अरबे-अरबान भोजन। अछिंजलक व्यवहार। कहियो फलाहार, कहियो पंचगव्य। ककरो सॅं किछु त्रुटि भेलैक कि लगले प्रायश्चित्त। हुनका ओहि ठाम चीनी-गुड़ सॅं बेशी बालुए-गोबरक खर्च छलैन्ह।

शास्त्रीजीक धर्मशास्त्र सॅं लोक त्राहि-त्राहि करैत रहैत छल। जहाँ केओ एक रत्ती चिरचिरिओ पारलक कि-हुम! न चैव प्रलिखेद्भूमिम्। ककरो खढ़ो खोटैत देखलथिन्ह त- हुम्! न छिन्द्यात् करजैस्तृणम्। केओ गुनगुनैबो कैल त -हुम्! न नृत्येदथवा गायेत्। ककरो पैरो सेदैत देखलथिन्ह त -हुम! न च पादौ प्रतापयेत्।

एवं प्रकारे जैह कार्य लोक करौ ताही मे हुम् कऽ कऽ टोकि दैत छलथिन्ह और कोनो-ने-कोनो वचन पढ़ि दैत छलथिन्ह। ई'हुम' सभक होश गुम कैने रहैत छल।

विद्यार्थी कैं त प्रत्येक बात मे हुथाइ सहय पड़ैत छलैन्ह। कोन तरहें, तकर दृष्टान्त लियऽ।

एक गदाधर नामक विद्यार्थी रहथिन्ह। पढबाक हेतु लग मे बैसलथिन्ह। शास्त्रीजी टोकलथिन्ह-हुम्! ई बैसब अशुद्ध भेलौह। कारण जे- प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह। -मनु

एखन जे बसात बहैत छैक से तोरा दिशि सॅं हमरा दिशि आबि रहल अछि। अतएव ओहि ठाम सॅं उठि जाह।

गदाधर उठि कऽ दोसरा दिशि जाय लगलाह कि शास्त्रीजी फेर टोकलथिन्ह- हुम। इहो अशुद्ध किऎक त-

          देवतानां  गुरोराज्ञः  स्नातकाचार्ययोस्तथा ।
          नाक्रमेत् कामतश्छायां वभ्रुणोदीक्षितस्य च ॥ -मनु
        

गुरुक छाया नाँघि कऽ चलबा मे दोष होइत छैक।

गदाधर फराक भऽ कऽ एक कात जा बैसलाह कि शास्त्रीजी पुनः टोकलथिन्ह -हुम्! इहो अशुद्ध भेलौह। कारण जे तों आब अनुवात सॅं प्रतिवात मे आबि गेलाह अर्थात् हमर बसात तोरा दिशि जैतौह। तैं ओहू ठाम सॅं उठि जाह।

तावत एक बिलाड़ि दुनू गोटाक बीच दऽ कऽ छड़पैत चलि गेलैन्ह।

शास्त्रीजी कहलथिन्ह-बस, आब एक अहोरात्रक अनध्याय भऽ गेलौह। किऎक त-

           पशुमण्डूकमार्जारश्वसर्पनकुलाखुभिः ।
           अन्तरागमने विद्यादनध्यायमहर्निशम ॥ -  मनु
        

यदि गुरु शिष्यक बीच दऽ कऽ बिलाड़ि वा बेंङ आदि जन्तु निकसि जाय त ओहि दिन अध्ययन वर्जित । अतएव ग्रन्थ बंद करह ।

गदाधर कैं चौबीस घंटाक छुट्टी भेटि गेलैन्ह । किन्तु संगहि संग एकटा बखेड़ो लागि गेलैन्ह । शास्त्रीजी कहलथिन्ह - बिलाड़ि तोरा देह मे ठेकि गेल छलौह । अतएव तोरा स्नान करय पड़तौह । किएक त लिखल छैक जे -

           अभोज्यसूतिकाषण्डमार्जाराखुश्वकुक्कुटान् ।
           संस्पृश्य शुध्यति  स्नानादुदक्या ग्रामशूकरौ ॥   - मनु
        

बिलाड़ि, मूस आदिक स्पर्श भेला सन्ताँ स्नान कैने शुद्ध हो ।

गदाधर पोखरि सॅं स्नान कऽ कऽ एलाह त गुरु पूजा पर बैसल रहथिन्ह । शंख दीप लाबक हेतु कहलथिन्ह । गदाधर शंख आनि कऽ राखि देलथिन्ह ।

पं० जी हाँ-हाँ करैत बजलाह - हुम् ! तों आब अग्रिम जन्म मे कोढ़ी हैबह ।

गदाधर कानय लगलाह ।

शास्त्रीजी कहलथिन्ह - हम शाप नहि दैत छिऔह । ई ब्रह्मवैवर्त्त पुराणक वचन छैक - भूमौ शंखं च संस्थाप्य कुष्टं जन्मान्तरे लभेत् । शंख कै भूमि पर रखने जन्मान्तर मे कुष्ट-व्याधि सॅं पीड़ित हो ।

गदाधर भयभीत भऽ शंख उठा माथ पर राखि लेलन्हि ।

शास्त्रीजी कहलथिन्ह - ओकरा पीढ़ी पर राखह और दीप लेसि कऽ लाबह ।

गदाधर दीप लेसि कऽ लैलाह और एक कात मे राखि देलथिन्ह ।

शास्त्रीजी बजलाह - हुम्-हुम् ! तों आब सात जन्म धरि आन्हर होयबह । किऎक त लिखैत छैक जे-

          भूमौ दीपं योऽर्पयति  सोऽन्धः सप्तसु  जन्मसु । - ब्रह्मवैवर्त्त
        

भूमि पर दीप रखने सात जन्म आन्हर हो । दीप तर एकटा खढ़ राखि दितहौक त बाँचि जैतह ।

गदाधर फक दऽ दीप कैं मिझौलन्हि ।

शास्त्रीजी कहलथिन्ह - हुम् ! हुम् ! हुम् ! ई की कैलह ? आब तोरा सात जन्म धरि भगजोगनीक योनि मे जन्म लेबय पड़तौह । किऎक त लिखल छैक जे -

           कुष्माण्डच्देदिका नारि, दीपनिर्वापकः पुमान् ।
           वंशच्छेदमवाप्नॊति वंशच्छेदमवाप्नॊति   खद्योतः  सप्तजन्मसु  ॥
        

स्त्री कुम्हर काटय त कुलक नाश करय और पुरुष दीप मिझाबय त सात जन्म भगजोगनी हो ।

गदाधर कैं एतबे काल मे पन्द्रह जन्मक हिसाब लागि गेलैन्ह । भय सॅं थर-थर काँपय लगलाह ।

ताबत शास्त्रीजी हुनक फाटल ठोर मे कनेक घी लागल देखलथिन्ह । पुछलथिन्ह - ई घृत कतय सॅं लैलह ?

विद्यार्थी डेराइत-डेराइत उत्तर देलथिन्ह - अपनेक चुक्की मे सॅं ।

शास्त्रीजी कहलथिन्ह - हुम ! आब तोरा सपनौर भऽ कऽ जन्म हैतौह । किएक त लिखल छैक जे -

           धान्यं हृत्या भवेत्याखुः कास्यं हंसो  जलं प्लवः ।
           मधुः दंशः पयः काको रसं श्वा नकुलो  घृतम ॥
        

दूध चोरौने कौआ, रस चोरौने कुक्कुर और घृत चोरौने सेपनौरक कोखि मे जन्म होइक ।

विद्यार्थी गुरुक पैर धय कहलथिन्ह - आब हमर उद्धार कैल जाओ ।

शास्त्रीजी हुम ! हुम ! करैत कहलथिन्ह - इहो अशुद्ध भेलौह । किऎक त लिखलकैक अछि -

           व्यत्यस्तपाणिना     कुर्यादुपसंग्रहणं   गुरोः   ।
           सव्येन  सव्यः स्प्रष्टव्यः दक्षिणेन च दक्षिणः  ॥
        

गुरुक वाम चरण कैं वाम हस्त और दक्षिण चरण कैं दक्षिण हस्त सॅं स्पर्श करक चाही ।

गदाधर शास्त्रोक्त पद्धति सॅं गुरुक चरण स्पर्श कैलन्हि । शास्त्रीजीक दूनू हाथ मे पूजाक फूल रहैन्ह । अतएव माथक संकेत सॅं आशीर्वाद दैत कहलथिन्ह - शुभं भूयात् । ताबत शास्त्रक वचन मन परि गेलैन्ह -

          पुष्पहस्तः  पयोहस्तस्तैलाभ्यङ्गे  जले  तथा  ।
          आशीः कर्त्ता नमस्कर्त्ता भवेतां पापभागिनौ ॥   - स्मृतिसंग्रह
        

हाथ मे फूल अछैत जे प्रणाम वा आशीर्वाद करथि से पापभागी होथि । बस, लगले शास्त्रीजीक मुद्रा बदलि गेलैन्ह । विद्यार्थी कैं दुसैत कहलथिन्ह - हौ भुसकौल ! जखन हमरा हाथ मे फूल छल तखन प्रणाम किऎक कैलह ? तोरा आशीर्वाद देनि आब हमरो माथपर पाप चढ़ि गेल । तों अपनो गेलाह और संगे-संग हमरो लेलह !

ताबत गदाधर कैं छीक भेलैन्ह । शास्त्रीजी कहलथिन्ह - हुम ! हुम ! दहिन कान छुबह । किऎक त -

         क्षुते पतितसंभाषे  दक्षिणश्रवणं स्पृशेत्  ।   - शातातपस्मृति
       

छिका भेला उत्तर तुरन्त दक्षिण कान स्पर्श करक चाही ।

गदाधर अपन कान धैलन्हि तथापि शास्त्रीजी नहि छोड़लथिन्ह । कहलथिन्ह तकै छह की ? धोती बदलि कऽ आचमन करह गऽ । किऎक त वृद्ध-शातातप कहैत छथि-

           क्षुत्वा निष्ठीव्य वासं तु परिधायाचमेत  बुधः  ।
           कुर्यादाचमनं  स्पर्शं    गोपृष्ठस्यार्कदर्शनम्    ॥
        

गदाधर त ई सभ करय गेलाह ओम्हर शास्त्रीजी भोजन करय बैसलाह सुलबाहिक कारणे एक मुट्ठी मड़गिल भात ओ केराक साना मात्र खैलन्हि ।

पं० जी कैं मंदाग्नि रहैन्ह । किन्तु विद्यार्थी बुद्धिक मंद रहलो उत्तर जठराग्निक तीव्र रहथिन्ह । जखन गदाधर भोजन करय बैसलाह त पं० जी देखलथिन्ह जे आगाँ में तीन पाव चाउरक भात, राहड़िक दालि, कटहरक तरकारी और मरचाइक अँचार । ई देखितहि पं० जी कैं फूँकि देलकैन्ह । विद्यार्थीक एहन धृष्टता !

पं० जी हुनका रेड़ि कऽ सोझ करय लगलाह - हुम ! हुम ! मनुजी लिखैत छथि - हीनान्नवस्त्रवेषः स्यात्सर्वदा गुरु सन्निधौ । विद्यार्थी कैं सर्वदा गुरु सॅं न्यून भोजन करक चाही । हमरा लोकनि छुच्छ भात खा कऽ फक्किका पढ़ने रही । गर लागय त दालिक जल सॅं कण्ठ सिक्त कय ली । और तरकारी त भोजनान्त मे कनेक जीभ दगबा लेल होइत छैक । परन्तु हिनका ने देखिऔन्ह । ग्रास-ग्रास में तरकारी और उपर सॅं अँचारो ! हिनका के एतेक परसि देलकैन्ह अछि ? काल्हि सॅं ई हमरा अध्यक्षता मे भोजन कैल करथु ।

गदाधर कैं गरा बकौर लागि गेलैन्ह । मुँहम कौर ने घोंटैत बनैन्ह ने उगिलैत । जहाँ ओ परसन लितथि तहाँ वेचारे कैं सानलो भात छोड़ि क उठि जाय पड़लैन्ह ।

ओही राति गदाधर अपन वस्ता समेटि घसकलाह ।

एवं प्रकारे जे विद्यार्थी आबथि से थोड़बे दिन में अपना घरक बाट धरथि ।

परन्तु पंडिताइन कतय जाथु ? पं. जीक सम्पूर्ण धर्मशास्त्रक भार हुनके सहियारक पड़ैत छलैन्ह। आइ रवि कैं अनोना, त काल्हि सोम कैं सोमवारी। परसू एकादशीक उपवास, त चारिम दिन द्वादशीक पारण। एवं प्रकारे तीसो दिन, बारहो मास, किछु ने किछु टंट-घंट लगले रहैत छलैन्ह।

ताहि पर भक्ष्याभक्ष्यक विचार त और जान मारैत छल। पड़िब कैं कुम्हर नहि। द्वितीया कैं परोर नहि। तृतीया-चौठ कैं मुरइ नहि। पंचमी कैं बेल नहि। इत्यादि।

        प्रतिपत्सु    च    कूष्माण्डमभक्ष्यमर्थनाशनम्  ।
        द्वितीयायां    पटोलंच   शत्रुवृद्धिकरं     परम्  ।
        तृतीयायां चतुर्थ्याञ्च  मूलकं    धननाशकम्! ।
        कलङ्ककारणञ्चैव पञ्चम्यां विल्वभक्षणम्! ।
        नारिकेल फलं भक्ष्यमष्टभ्यां    बुद्धि नाशनम   ।
        तुम्बी नवम्यां  गोमांसं दशम्यां च कलाम्बिका  ।
        त्रयोदश्यां  तु   वार्ताकीभक्षणण  पुत्रनाशनम्   ॥- ब्रह्मवैवर्त
      

अर्थात पड़िव कैं कुम्हर खैने धनक नाश हो । द्वितिया कैं परोर खैने शत्रुक बृद्धि हो । तृतिया चौठ कैं मुरइ खैने धनक नाश हो । पंचमी कैं बेल खाइ त कलंक लागय । अष्टमी कैं नारिकेर खाइ त बुद्धि भ्रष्ट हो । नवमी कैं सजमनि और दशमी कैं करमीक साग महापाप कारक हो । त्रयोदशी कैं भाँटा खाइ त पुत्र नाश हो । इत्यादि ।

एहि हिसाब-किताब मे जहाँ कनेको गड़बड़ भेलैन्ह कि मचय महाभारत।

एक दिन पंडिताइन अपना मन सॅं खीर-पूड़ी बनौलन्हि। जखन पं. जीक थारी मे पड़लैन्ह त खाइत-खाइत पुछलथिन्ह- वाह! वेश स्वादिष्ट भेल अछि। कोन देवताक निमित्त बनौने छलहुँ?

पंडिताइन उत्तर देलथिन्ह- ओहिना अपने सभ लेल बनल छैक।

पं. जी बजलाह- जाह! तखन त प्रायश्चित्त लागि गेल। किऎक त शंखमुनि कहैत छथि जे-

         वृथा कृषरसंयावपयसापूपशष्कुलीः।
         भुक्त्वा त्रिरां कुवीत, व्रतमेतत् समाहितः॥
          

बिना निमित्तक खीर- पूड़ी खा नेने आब त्रिरात्रक व्रत करय पड़त।

फलतः जे-जे लोकनि खीर-पूड़ी खैने रहथि तनिका सभ गोटा कैं बालुगोबर गिड़य पड़लैन्ह।

पंडिताइन पर केहन कठोर अनुशासन रहैन्ह तकर दृष्टान्त लियऽ। जाड़कालाक राति रहैक। पंडिताइन पोआरक सेजौटपर सूतलि रहथि। आधा राति कऽ एक बिलाड़ म्यों-म्यों करैत आएल और पंडिताइनक सीरक तर सन्हिया गेलैन्ह। भरि राति हुनके संग गरमा कऽ सूतल रहलैन्ह।

प्रातःकाल जखन पं. जी कैं ई समाचार विदित भेलैन्ह त गंभीर भाव सॅं पंडिताइन कैं कहलथिन्ह- आब अहाँक सतीत्व भंग भऽ गेल। आइ सॅं भानस मे जुनि जाउ। पंडिताइन पुछलथिन्ह-से हमरा की भेल अछि?

पं. जी - अहाँक पातिव्रत्य धर्म नष्ट भऽ गेल।

स्त्री - हमर धर्म कोना नष्ट भेल?

पंडित और किछु सहन कय सकैत छथि किन्तु अपना वचनक खण्डन नहि सहन कय सकैत छथि । ताहू मे स्त्रीक मुँह सॅं । पत्नीक मुँह सॅं प्रश्न सुनैत देरी महामहोपाध्यायक वीर-मुद्रा जागल । बजलाह - तखन शास्त्रार्थ कऽ लियऽ -

किं नाम सतीत्व लक्षणम् ? परपुरुषसंसर्गाभावः । मार्जारस्तु पतिभिन्नः । तस्याङ्कशयने शरीर संयोगः । अत्राक्षिप्येत । 'कथं नाम मार्जारस्य जरत्वम् ? पशोः नार्या गमनाशक्यत्वात् ।' इति चेन्न । नृपशुसम्बन्धसम्भवात् । यथाऽश्वमेधे । छद्मवेषे देवागमनसंभवाच्च । यथेन्द्राचन्द्रमसोः । उभयथा व्यभिचारशङ्का । व्यभिचाराभावप्रमाणानुपपत्तेः ।

पुनः कहलथिन्ह - अहाँ ई सब की बुझबैक ? सोझेसोझ बूझू जे आब अहाँ 'धर्मपत्नी'नहि रहलहुँ । 'पत्युनो यज्ञ संयोगे ।' से कोनो यज्ञकार्य आब हमरा संग बैसि कय अहाँ नहि कय सकैत छी ।

पंडिताइन बजलीह - परन्तु हम की कैलहुँ अछि ?

पं० जी रुष्ट होइत कहलथिन्ह - पुनः अहाँ तर्क करय लगलहुँ । हम जे कही से आखि मुनि कऽ मानने जाउ । अहाँ क्षेदक्षेम करय लगैत छी तैं पुत्र नहि होइत अछि । और अपुत्रस्य गतिर्नास्ति । अहाँ पुत्र प्रसव नहि करब त हमरो नरक मे जाय पड़त । पुम् नाम नरकात् त्रायते इति पुत्रः । अहीक चलते हमरो गति नहि हैत । पुत्रार्थे क्रियते भर्या । जखन अहाँ सॅं पुत्रे नहि भेल तखन फल कोन ?

पंडिताइन विषन्न होइत बजलीह - तखन एहि मे हमर कोन दोष ?

पं. जी कहलथिन्ह-दोष यैह जे अहाँ पुत्रप्राप्तिक हेतु पूर्ण यत्न नहि करैत छी।

स्त्री- कोना यत्न करू?

पं. जी- शालिवाहनक बेटा जीमूतवाहनक पूजा करू।

         शालिवाहनराजस्य पुत्रो जीमूतवाहनः।
         तस्यां पूज्यः स नारीभिः पुत्रसौभाग्यलिप्सया॥-भविष्यपुराण
        

कार्त्तिक मे आकाश दीपू लेसू।

        यस्तु केशवमुद्दिश्य दीपं दद्यात्तु कार्त्तिके।
        आकाशस्थं ज्वलन्तं च श्रृणु तस्यापि यत्फलम्।
        धनधान्यसमृद्धस्तु    पुत्रवानीश्वरो      भवेत्  ॥-वर्षकृत्य
      

अपना पितामहक पिंड खाउ।

       मध्यमं तु ततः पिंडमद्यात सम्यक् सुतार्थिनी। -मनुस्मृति
      

जखन पंडिताइन बहुत कनलीह-कलपलीह त पं. जी कहलथिन्ह-वेश, जाउ एक तप्तकृच्छ्र पर अहाँ कैं स्वस्ति दऽ दैत छी।

स्त्री- तप्तकृच्छ्र की?

पं. जी - शास्त्रक वचन छैक-

       त्र्यहमुष्णं पिबेत्तोयं त्र्यहमुष्णं घृतं पिबेत्।
       त्र्यहमुष्णं पयः पीत्वा वायुभक्ष्यस्त्र्यहं भवेत्॥ -शंखस्मृति।
     

तीन दिन गर्म पानि पीबि कऽ रहय पड़त। तीन दिन गर्म घी पीबि कऽ रहय पड़त। तीन दिन गर्म दूध पीबि कऽ रहय पड़त। और तीन दिन धरि केवल बसात पीबि कऽ रहय पड़त। तखन जा कऽ शुद्ध हैब।

एवं प्रकारें पंडिताइनक प्रायश्चित्त भेलैन्ह।

ई बात प्रायः अनुभवसिद्ध अछि जे अधिक पूजा-पाठ करयवला पंडित कैं कन्या अधिक होइ छैन्ह, बालक कम। एहू पं. जी कैं पाँच टा कन्ये मात्र छलथिन्ह, जनिक ओ पंचकन्या नाम धैने छलाह। पंचकन्या मे अहल्या, द्रौपदी, तारा विवाहिता छलथिन्ह, कुन्ती, मन्दोदरी कुमारि।

एक बेर माघ मास छोटका जमाय ऎलथिन्ह। कर्मकांडीक जमाय कैं सासुर मे जेहन सुख भेटैत छैन्ह से भुक्तभोगीए जनैत हैताह। जमाता महोदय कैं पद-पद पर विपत्ति होमय लगलैन्ह।

राति मे सॅंचार लगलैन्ह और गीत होमय लगलैन्ह। जमाय कैं दालि मे घृत ढारब बिसरि गेलैन्ह। पाछाँ दू-एक कौर खैला पर मन पड़लैन्ह।

दुर्भाग्यवश ओही समयमे श्वसुर महोदय भोजनक निरीक्षण करय हेतु पहुँचि गेलथिन्ह। ऎंठ मे घृत पड़ैत देरी पं. जीक क्रोधाग्नि भभकि उठलैन्ह । बजलाह - हुम ! फेकथु - फेकथु । उच्छिष्ट मे घृत खाएव गोमांस - भक्षण तुल्य थिक।

       ताम्रपात्रे पयः पानमुच्छिष्टे घृतभोजनम्।
       दुग्धं लवणसार्द्धंच, सद्यो गोमांसभक्षणम्॥-ब्रम्हवैवर्त्त
    

आब जमाय कोना खैतथि? बेचारे अप्रतिभ भऽ पानि पीबय लगलाह। ई देखतहि पं. जी पुनः टोकलथिन्ह- हुम्!हुम्! नष्ट कैल। आब सभ धर्म सॅं बहिष्कृत भऽ गेलहुँ। कारण जे-

         उत्थाय वामहस्तेन तोयं पिबंति यो नरः।
         सुरापी स च विज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः ॥- ब्रम्हवैवर्त्त
      

बाम हाथ सॅं उठा कऽ जल पिउनाइ मद्य पिउनाइ थिक।

जमाय तुरन्त गिलास मुँह सॅं फराक कय नीचा रखलन्हि। ताबत पं. जीक दृष्टि सॅंचार पर गेलैन्ह। तामक सराइ मे भॅंटबर परसल रहैन्ह जाहि मे सॅं थोड़ेक खोंटि कऽ जमाय खैने रहथिन्ह। ई देखि पं. जी क्रोधान्ध भऽ गेलाह। बजलाह-हुम्! हुम्! हुम्! अपने जै कौर मुँह मे देल अछि से विष्ठे देल अछि। अत्र प्रमाणम्-

      भोजनं ताम्रपात्रेषु जलपात्रं च वामतः।
      ग्रासे-ग्रासे मलं भुङ्क्ते तज्जलं सुरया समम्॥-ब्रम्हवैवर्त्त
    

ताम्र पात्र सॅं भोजन कैने प्रत्येक ग्रास मे मलभक्षणक फल हो। आब अपनेक पुनः यज्ञोपवीत संस्कार हैत तखन ब्राम्हण बनव। कारण जे मनुजी कहै छथि-

      अज्ञानात् प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंस्पृष्टमेव च।
      पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः॥
  

अज्ञानकृत मल-भक्षण कैने पुनः उपनयन आवश्यक। ताबत अपने शूद्र कोटि मे रहब।

पं. जी अपने सॅं ठाढ भऽ कऽ सभटा सॅंचार पछुआर मे फेकबौलन्हि। पंचकन्या कैं बजा कय कहलथिन्ह-देखह। ओझा कैं यावत पुनः संस्कार नहि होइन्ह तावत पर्यन्त तोरा लोकनि हिनका सॅं कोनो प्रकारक सम्पर्क नहि रखैत जाह।

आब ओझा राति मे भीतर कोना सुतताह? पं. जीक आदेशानुसार बहरघरा मे ओछाओन कऽ देल गेलैन्ह। ओझा मुँह बिधुऔने सूतय गेलाह। निन्द किऎक पड़तैन्ह? हुनका कच्छमच्छ करैत देखि अहल्या दाइ गेलथिन्ह। पुछलथिन्ह- की ओझा, कोनो बातक कष्ट त नहि अछि?

ओझा एक टा मच्छर मारैत बजलाह-एहिठाम बड्ड कटैत छैक।

अहल्या अपना पिता सॅं ई समाचार कहय गेलीह। पुछलथिन्ह-ओझाक की व्यवस्था कैल जाउन्ह?

पं. जी कैं बुझि पड़लैन्ह प्रायश्चित्तक व्यवस्था। कहलथिन्ह - मशक कैं मारलन्हि अछि त एक शूद्रवधक प्रायश्चित्त करा दहुनगऽ। किऎक त मनुजीक वचन छैन्ह- "पूणेचानस्यनस्थ्नां तु शुद्रहत्याव्रतं चरेत् ।" मच्छर कैअ हड्डी नहि होइत छैक तैं केवल शुद्रहत्याक दण्ड लगतैन्ह ।

पं०जी स्वयं जामाताक व्यवस्था करबाक हेतु चललाह । जमाय पूब मुँहे सूतल रहथिन्ह । ई देखि पं० जी कहलथिन्ह - हुम ! हुम !अपने कोना सूतल छी ? खाट कैं दक्षिण सीर लेल जाओ । किएक त - "स्वगृहे प्राकशिराः स्वप्यात् श्वासुरे दक्षिणा शिराः" । अपना घर मे पूब मुँहे सूती , किन्तु सासुर मे आबि कऽ दक्षिण मुँहे सुतबाक चाही ।

जमाय मने-मन कुफरैत खाट घुमाबय लगलाह । ता द्रौपदी आबि कऽ बजलीह - ओझाजी कैं सोनक औंठी छलैन्ह से हेरा गेलैन्ह ।

पं० जी कान पर हाथ धरैत बजलाह - शांतं पापम । आब जतबा भरि सोन छलैन्ह ततबा और अपना दिशि सॅं दान करय पड़तैन्ह । किऎक त लिखैत छैक जे - "प्रमादतस्तु यन्नष्टं तावन्मात्रं नियोजयेत् । - द्वैत परिशिष्ट

कुन्ती टुभ द बाजि उठलथिन्ह - और सोन छैन्हे कहाँ जे दान करताह ?

पं० जी बजलाह - तखन सोन चोरैबाक दण्ड लगतैन्ह । किऎक त लिखैत छैक जे - अन्यथा स्तेयभागी स्याद्धेम्न्यदत्ते विनाशिनी । - द्वैत परिशिष्ट नहि दान करय त चोर बूझल जाय ।

मन्दोदरी पुछलथिन्ह - सोन चोरैबाक दण्ड की छैक?

पं. जी बजलाह - सोन चोरैबाक असल दण्ड त छैक मुसरक मारि ।

गृहीत्वा मुशलं राजा सकृध्दन्यात्तु तं स्वयम । -मनु

राजा अपने हाथ सँ मुसर लऽ कऽ चोट सहियारि कऽ लगाबय । किन्तु हिनका हलुकाहा वचन देखा दैत छिऎन्ह ।

ब्राह्मणः स्वर्णहारी तु रुद्रजापी जले स्थितः । - याज्ञवल्क्य

ई जल मे ठाढ भय शतरुद्रीक जप करथुगऽ तखन जा कऽ शुध्द हैताह ।

ई व्यवस्था दय पं. जी सूतय गेलाह ।

जखन एक पहर राति बाँकी रहैक तखन पं. जी जमाय कैं शतरुद्री जपाबक हेतु जगबय गेलाह । किन्तु जमाय त दुपहरिए राति कऽ अन्तः पुर प्रवेश कऽ गेल रहथिन्ह।

पं. जी कैं पंचकन्याक षडयंत्र बुझा गेलैन्ह । दौड़ल आङन गेलाह । स्त्री कैं पुछलथिन्ह - हुनका के भीतर ल्ऽ गेलैन्ह?

पंडिताइन त डरें अवाक ।

पं. जी बजलाह - तखन अवश्ये अहूँक सह छ्ल हैत । एखन हुनका महारुद्री जप करवाक समय छलैन्ह से ... से... से... आव हुनका संसर्ग सँ कन्यो दूषित भऽ गेलि हैत । अहल्या द्रौपदी कतय अछि?

पंडिताइन कहलथिन्ह - एखने त ओहि घर मे लऽ गेल छैन्ह ।

पं. जी क्रुध्द भय बजलाह - तखन ओकरो सभ कैं एक- एक चरन लागि गेलैक । किएक त परपुरुष कैं देह धऽ कऽ जगैबा मे त अंगस्पर्श भइए गेल हैतैक अहूँ हमरा सॅं छल कैलहुँ। आब सभ गोटा कैं प्रायश्चित्त करय पड़त। और आइ सॅं ओझा हमरे लग सुतताह।

ई कहि पं. जी गो-मूत्रक खोज मे बहरैलाह। जमाय घर मे दम सधने छलथिन्ह। ससुरक जैतहि मौका भेटि गेलैन्ह। अन्हारे मे चुपचाप चोर जकाँ घर सॅं बाहर भय छान- पगहा तोड़ि पड़ैलाह।

एवं प्रकारें पं. जीक ओहिठाम जे सर-कुटुम्ब अबैत छलथिन्ह तनिका पड़ाइत बाट नहि सुझैत छलैन्ह।

दैवयोगवश पं. जी कैं एकटा पट्टशिष्य भेटि गेलथिन्ह- सत्यदेव। पं. जी हुनका सदाचार - शिक्षा देबय लगलथिन्ह । आह्विक कृत्य सँ प्रारम्भ भेलैन्ह । सायंकाल सत्यदेव लोटा लऽ कऽ बाह्यभूमि दिशि गेलाह । किन्तु कतहु बैसबा योग्य भूमि नहि भेटलैन्ह । किऎक त पुरीषोत्सर्गक विधि मे पढने छलाह -

         न देवायतने वृक्षमूले न च जले न दे
         न नदीकूपमार्गेषु न वापी गोष्ठभस्मसु
         न चिताग्निश्मशानेषु नोषरे न द्विजालंये
         नाम्भः समीपे न पुण्ड्रे नाकाश न च शाद्वले
         न शस्यक्षेत्रे न खले पुष्पोद्याने न चत्वरे
         न फालकृष्टकेदारे न तिष्ठंश्च कदाचना
         न गोब्रजे नदीतीरे नित्यस्थाने न गोमये
         द्विजो न देहच्छायायां शकृन्मूत्रविसर्जनम
         कुर्याद यज्ञेष्टकाकूटे न च शप्राणिगर्त्तके । - पद्य्नोत्तरखण्ड
      

एहि वचावलीक अनुसार सत्यदेव ने ऊसर भूमि मे बैसि सकैत छलाह, ने जोतल मे । ने खेत मे, ने कलम मे । ने गाछ तर, ने मैदान मे । ने डीह -डाबर मे, ने खाइ खत्ता मे । ने पोखरि दिशि, ने नदी दिशि । तखन बैसथु कतय? फिरल- फिरल गुरुक आश्रममे आबि किंकर्त्तव्यविमूढ भऽ ठाढ रहि गेलाह । एहन आदर्श शिष्य पाबि गुरु कृतकृत्य भऽ उठलाह ।

दोसरा दिन दन्तधावनक प्रकरण पढौलथिन्ह । सत्यदेव भोरे उठि कोनो कार्यवश आङन गेलाह । अहल्या द्रौपदी दातमनि करैत रहथि । सत्यदेव पुछ्लथिन्ह - अहाँदुनू गोटाक स्वामी परदेश छथि । तखन दातमनि किऎक करैत छी?

            गते देशान्तरे  पत्यौ  गन्धमाल्याञ्जनानि  च  ।
            दन्तकाष्ठं  च ताम्बूलं - वर्जयेद्वनिता     सति  ॥   - स्मृतिरत्नाकर
      

पति विदेश मे रहथि तखन दन्तकाष्ठ नहिं करक चाही ।

ई सुनितहि दुनू युवती खिलखिल उठलीह । सत्यदेव छुब्ध होइत बजलाह - यदि एहि वचन मे संदेह हो त दोसर प्रमाण लियऽ -

              श्राद्धे यज्ञे  च नियमे  तथा  प्रोषितभर्तृका  ।
             रजस्वला  सूतिका च वर्जयेद्दन्तधावनम्     ॥  - नित्यकृत्यार्णव
        

गुरुआइनो मुँह धोइत रहथिन्ह । कहलथिन्ह - हौ सत्यदेव । तों त दुइए दिन में पंडित भऽ गेलाह ।

सत्यदेव बजलाह - हाँ , हाँ ! एखन बजने दोष हैत । किऎक त -

           पुरीषॆ मैथुने  होमे    प्र्स्तावे  दन्तधावने  ।
           स्नानभोजनजच्येषु सदा मौनं समाचरेत ॥   - अत्रिस्मृति
        

स्नान, दातमनि, भोजन आदि काल मे मौन रहक चाही ।

ताबत सूर्यक बिम्ब प्रकट भऽ गेलैन्ह । सत्यदेव बजलाह - फेकू । फेकू । सभ गोटा दातमनि फेकैत जाउ । नहि त गोमांस-भक्षणक प्रायश्चित लागि जायत । कारण जे लिखैत छैक -

           उदिते च यदा सूर्ये  दन्तकाष्ठं  करोति  यः  ।
           सविता भक्षितस्तेन सद्यो गोमांसभक्षणम्  ॥   स्मृतिसंग्रह
        

सूर्योदय भऽ गेलाक अनन्तर जे दातमनि करय से सद्यः गो ------

ताबत गुरु सोर पाड़लथिन्ह । सत्यदेव दौड़ल गेलाह । गुरु पुछलथिन्ह - आङ्गन में कथीक शास्त्रार्थ होइत छलौह ? सत्यदेव सभ वृत्तान्त कहि सुनौलथिन्ह ।

गुरु पुछलथिन्ह - तों अपने कखन दातमनि कैलह ?

सत्यदेव कहलथिन्ह - सूर्योदय सॅं आध पहर पहिनहि ।

गुरु कनेक काल बिचारि कय बजलाह - तखन तोंहू प्रायश्चिती भेलाह । किऎक त षष्ठी तिथि मे दातमनि कैलह अछि । से परम निषिद्ध । कारण जे देवीभागवत मे लिखैत छैक -

          प्रतिपद्दर्श  षष्ठीषु  नवम्येकादशी   रवौ  ।
           दन्तानां काष्ठसंयोगो दहेदासप्तमं कुलम ॥
        

परिब , अमावस्या , षष्ठी , नवमी , एकादशी , रवि , एहि दिन मे दाँत कैं काठ सॅं संयोग भेने सातो कुल दग्ध भऽ जाय ।

फलस्वरूप ओहि दिन दन्तधावनक प्रायश्चित मे सभ गोटा कैं बालु-गोबर खाय पड़लैन्ह ।

एवं प्रकारे स्नान-भोजन आदि समस्त प्रकरण पढ़ि कय सत्यदेव आचार-शास्त्र मे पारंगत भऽ गेलाह । ओ साक्षात धर्मराज युधिष्ठिर बनि गेलाह । परन्तु स्त्रीगण कैं प्रलय भेलैन्ह । किऎक त आङ्गन मे जहाँ किछु होइक कि सत्यदेव जा कऽ गुरुदेवक सेवा मे निवेदन कऽ देथि और लगले पंचगव्यक आदेश सभ गोटॆ कैं भेटि जाइन्ह ।

पंचकन्या बाजथि - कहाँ सॅं ई लुतरीलगौना आबि गेल जे सभ बात बाबूजीक कान मे पहुँचा दैत छैन्ह । एकरा द्वारे किछु करब कठिन । कोना एकरा सॅं पिंड छ्टत ?

एक दिन पंचकन्या पोखरि मे नहा कऽ ऊपर भेलीह त देखै छथि जे सत्यदेव भीड़ पर आँखि मुनने सन्ध्यावन्दन कय रहल छथि । सत्यदेव एक पैर पर ठाढ़ भय सूर्योपस्थान मंत्र पढ़य लगलाह । पंचकन्या जा कऽ चारुकात सॅं घेरि लेलथिन्ह सत्यदेव आँखि फोललन्हि त अवाक । खिसिया कऽ पुछलथिन्ह - तों सभ एहिठाम किऎक ठाढि छह? वेदमंत्र त ने कान मे पड़लौह?

मन्दोदरी कहलथिन्ह- पड़ल त! कहै छलहौ ओम्.....

सत्यदेव डॅंटलथिन्ह- चूप! तोरा सभ कैं प्रणव उच्चारण करबाक अधिकार नहि छौक।

कुन्ती बजलीह- हमरा त गायत्रीओ मंत्र अबैत अछि। सुनह - भूर्भूवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्र.....

सत्यदेव कान पर हाथ दैत कहलथिन्ह - चुप , चुप । तोरा सभ कैं आइ की भऽ गेलौक अछि जे एना करैत छैं ? हम जाइ छिऎन्ह गुरुजी कैं कहि देबय ।

तारा दाइ अनखा कऽ बजलीह - सभ बात मे जाइ छिऎन्ह गुरुजी कैं कहि देबय । कनेक हॅंसियो लोक करैत छौह त एना बिगड़ि किऎक जाइत छह ?

आइ एकादशी कैं हॅंसी किऎक करबह ?

           अनन्पानं  च ताम्बूलं  मैथुनं  केशमार्जनम्  ।
           द्युतक्रीड़ानृतं  हास्यमेकादश्यां विबर्जयेत    ॥
        

एकादशी कैं अन्न, जल, पान, .....ऎं ऎं ऎं .....ऎं ऎं ऎं एकटा और कार्य केश थकरब, जूआ खेलायब, फूसि बाजब, हॅंसी करब, ई सभटा वर्जित छैक ।

एहि पर पंचकन्या खिलखिला उठलीह ।

द्रौपदी साड़ी कोचियबैत बजलीह - हौ, पतड़ा देखि कऽ हॅंसी नहि कैल जाइत छैक ।

अहल्या केश गाड़ैत बजलीह - ई सासुरो जैताह त पतड़े आगाँ मे राखि कऽ सभ कार्य करताह ।

तारा नुआ फेरैत बजलीह - ऎं ऎं ऎं के की कहकहौक से नहिं बुझलिऎक कनेक फरिछा कऽ कहौक ।

सत्यदेव कुंठितबुद्धि भऽ गेलाह । ताबत अहल्याक अंचल खसकि गेलैन्ह । सत्यदेव आँखि मूनि लेलन्हि । ओहि दिन हुनका सम्पूर्ण दिन उपवास करय पड़लैन्ह। किऎक त पढ़ल छलैन्ह - नग्नां परस्त्रियं दृष्ट्वा दिनमेकं व्रती भवेत् - शंखस्मृति

ओहि राति प्रकृतिक कोनो अज्ञात रहस्यक कारणे सत्यदेवक जीवन मे एक नवीन घटना घटित भेलैन्ह जे स्वप्नावस्था मे ब्रह्मचर्यक नियम भंग भऽ गेलैन्ह । निंद टुटैत देरी भयभीत होइत, गुरुक सेवा मे उपस्थित भेलाह ।

गुरु पहिने त दस हजार गंजन कैलथिन्ह । तखन शास्त्रक व्यवस्था देलथिन्ह -

           स्वप्ने सिक्त्वा  ब्रह्मचारी  द्विजः  शुक्रमकामतः  ।
           स्नात्वार्कमर्चयित्वा  त्रिः पुनर्मामित्यृचं जपेत्    ॥  - मनुस्मृति
        

ऎखन जा कऽ सचैल स्नान कय आबह । तखन सूर्योपासना कैलाक अनन्तर मंत्र जपय पड़तौह ।

सत्यदेव चललाह कि गुरु टोकलथिन्ह - सुनह एकटा और विधान छैक । याग्यवल्क्यक मत छैन्ह -

          यन्मेऽद्यरेत इत्याभ्यां स्कन्नं रेतोऽभिमंत्रयेत्।
          स्तनान्तरं भ्रुवोर्मध्यं तेनानामिकया स्पृशेत्॥
        

'यन्मेऽद्यरेतः' मंत्र पढि निःसृत धातु कैं अनामिका आङुर सॅं लगा, हृदय और कपार मे ठोप करय पड़तौह।

बेचारे सत्यदेव कैं की-की ने करय पड़लैन्ह ? ओहि दिन कोनो दशा बाकी नहि रहलैन्ह ।

गुरु कहलथिन्ह - देखह । आब सॅं जौं एना करबह त अवकीर्णीक प्रायश्चित लगतौह । किऎक त वशिष्ठक मत छैन्ह - एतदेव रेतसः प्रयत्नोत्सर्गे दिवा स्वप्ने च । तकर की विधान छैक से जनैत छह ?

           अवकीर्णी तु काणेन  रासभेन चतुष्पथा ।
           पाक यज्ञविधानेन यजेत  निॠ॔तिं निशि ॥   - याज्ञवल्क्यस्मृति

        

राति मे बीच चौराहा पर जाय, कनहा गदहा कैं लऽ कऽ पाकयज्ञ करय पड़तौह । तखन निऋ॔ति देवता सन्तुष्ट होइथुन्ह ।

पुनः एकान्त मे बुझबैत कहलथिन्ह - देखह, आब तों युवत्वधर्मापन्न भऽ गेलाह । आइ सॅं अपना गुरुआइन कैं फराके सॅं प्रणाम कैल करिहहुन । कारण जे मनुजी लिखैत छथि -

             गुरुपत्नी  तु युअवतिर्नाभिवन्द्येह  पादयोः  ।
             पुर्णविंशतिवर्षेण     गुणदोषविजानता      ॥
        

तदनन्तर पंचकन्या कैं बजा कय डाँटि देलथिन्ह जे सत्यदेव कैं केओ दिक नहि करैन्ह ।

ताहि दिन सॅं सत्यदेवक ई व्यवस्था भेलैन्ह जे राति में कोपीन पहिरि भूमिपर खजूरक पटिया बिछाय, माथतर ईट राखि सूतल करथि ।

किछु दिनक उपरान्त महामहोपाध्याय कैं अपन जीवित श्राद्ध करबाक विचार भेलैन्ह । बात ई भेलैक जे एक दिन हुनका पैर पर गिरगिट खसि पड़लैन्ह । उदास भय, लोक सभ कैं बजा कय कहलथिन्ह - आब हमर अन्तकाल समीप आबि गेल । किऎक त - "पादयोर्जघने जान्वोः गुदे गुह्ये तु मृत्युदा ।" चरण पर पल्लीपतन मृत्युक सूचक थीक । तखन हमरा पुत्र त अछि नहि जे वेदविहित श्राद्ध करत । ताहि सॅं यैह जे हम स्वयं अपन श्राद्ध कय आवी ।

ई नेयारि, धर्मशास्त्राचार्य सत्यदेव कैं संग लय सिमरिया घाट पहुँचलाह । स्नानादि कृत्यक अनन्तर भोजनक समस्या उठल । सत्यदेव कहलथिन्ह - एहिठाम हलुआइक दोकान मे पूड़ी मिठाइ छैक ।

पं०जी बजलाह - ओ खैने प्रायश्चित लागय । किएक त मनुजी लिखैत छथि - नाद्यात् शुद्रस्य पक्वान्न विद्वानश्राद्धिनो द्विजः । शूद्रक बनाओल पकमान पंडित ब्राह्मणक हेतु अभक्ष्य थिक । ओ खैना जाय त एकरात्र व्रत करऽ पड़य ।

विद्यार्थी बजलाह - दोकान मे चूड़ो छैक ।

गुरु कहलथिन्ह - ओहो अभक्ष्य । किऎक त शास्त्रकार लिखैत छथि - "अभक्ष्यं ब्राह्मणानां च शुद्रभ्रष्टं चिपीटकम् ।" -ब्रह्मवैवर्त

शूद्र सॅं छुआएल चूड़ा ब्राह्मणक हेतु अभक्ष्य थीक ।

सत्यदेव पुछलथिन्ह - तखन केवल दहिए खा कऽ रहि जाएब ?

पं० जी बजलाह - सेहो अभक्ष्य । किऎक त लिखैत छैक - "अभक्ष्यं महिषीणां च दुग्धं दधि घृतं तथा ।" - ब्रह्मवैवर्त महिषक दूध, दही, घी ब्राह्मण कैं नहि कैबाक चाही ।

सत्यदेव पुछलथिन्ह - और यदि गाइक दूध वा दही दोकान मे भेटि जाय ?

पं० जी कहलथिन्ह - सेहो अशुद्ध । किऎक त अंगिराक वचन छैन्ह जे

             शुद्रवेश्मनि विप्रेण क्षीरं वा यदि वा दधि  ।
             निवृत्तेन न भोक्तव्यं शुद्रान्नं तदपि स्मृतम ॥
        

शुद्रक घर मे दहिओ दूध भोजन करब शूद्रान्नक तुल्य थिक । केवल फल भेटय त खा सकैत छी ।

संयोगवश एक तुरहिन ओहिठाम केरा बेचय हेतु पहुँचि गेलि ।

पं. जी पुछलथिन्ह - कोना दैत छही?

तुरहिन बाजलि - पैसा मे अढाइ गो ।

ई सुनितहि पं. जी कान पर हाथ धरैत बजलाह - हुम! हुम! शान्तं पापम । सभ केरा दूरि भऽ गेल । ई 'गो' कहि देलक । गो क अर्थ गोत्वावच्छेदकावच्छिन्न । ई विशेषण लगने केरा 'वाग्दुष्ट' भऽ गेल । आब एहन केरा के खाएत? सभटा लऽ जाय कहौक ।

तुरहिन अपन केरा समटैत ओहिठाम सँ पड़ाइलि ।

आब गुरु शिष्य की खैताह?अन्ततोगत्वा स्वयंपाकक विचार भेल । सत्यदेव अत्यन्त पवित्रतापूर्वक गोबर सँ ठाम कय , जारन कैं सिक्त कय, नवीन मृदभाण्ड मे गंगाजल सॅं पाक करय लगलाह। प्रहर राति बितैत-बितैत भानस सम्पन्न भेलैन्ह। परन्तु एकेटा बखेड़ा रहय तखन ने? पहिने परसबाक समस्या उठल!

सत्यदेव बजलाह-जाइ छी, दोकान सॅं दू टा थारी माङि लाबय।

पं. जी कहलथिन्ह- हुम! ओकरा थारी मे खैने प्रायश्चित्त लागत। लिखैत छैक-

      शूद्राणां भाजने भुक्त्वा वा भिन्नभाण्डके।
      अहोरात्रोषितो भूक्त्वा पंचगव्येन शुद्धयति॥-संवर्त्तस्मृति
    

शूद्रक वासन मे भोजन कैला सन्ताँ एक अहोरात्र उपवास कय पंचगव्य लेबय पड़तौह।

सत्यदेव दोकान सॅं पुरैनिक पात लऽ ऎलाह। ई देखि पं. जी कहलथिन्ह- ओहि पर तों भोजन कऽ सकैत छह, किऎक त ब्रम्हाचारी छह। किन्तु हमरा भोजन कैने प्रायश्चित्त लागि जाएत। कारण जे लिखैत छैक- पलाशपद्मपत्रेषु गृही भुक्त्वैन्दवं चरेत। -स्मृतिसंग्रह

पुरैनिक पात पर यदि गृहस्थ भोजन करय त ऎन्दव नामक प्रायश्चित्त लागि जाइक।

विद्यार्थी कहलथिन्ह- तखन अपने कथी मे खाएब? कही त हम हाथे कऽ देने जाइ।

गुरु कहलथिन्ह- सेहो अशुद्ध। हारीत कहैत छथि- हस्तदत्तभोजनेऽब्राम्हणसमीपे भोजने, दुष्टपंक्तिभोजने। ........ त्ररात्रमभोजनम्॥

हाथ मे देल भोजन कैने, ब्राम्हणेतर वर्णक निकट भोजनं कैने अथवा दुर्जनक पंक्ति मे बैसि कय भोजन कैने, तीन रात्रिक उपवास कर्त्तव्य।

विद्यार्थी कहलथिन्ह- गुरु, तखन अपने भांडे मे भोजन कैल जाओ। हम अपना लेल पातपर बाहर कय लैत छी।

अन्ततोगत्वा कोनो-कोनो तरहें ई समस्या हल भेल। किन्तु गुरु-शिष्यक भाग्य मे भोजन रहैन्ह तखन ने?

गुरु नैवेद्य काढि, पंचग्रास बाहर कय, मंत्रपूर्वक उत्सर्ग करैत, एक कौर मुँह मे रखलन्हि। विद्यार्थीओ पैर धो, आधा धोती ओढने, अपना आसन पर ऎलाह। ई देखि जं. जी टोकबाक हेतु सुगबुगाय लगलथिन्ह। परन्तु भोजन काल बाजथु कोना?

सत्यदेवक आसन छोट रहैन्ह। पलथी लगाबय योग्य नहि। अतएव चुक्कीमाली बैसि गेलाह।

पं. जी हुम्! कैलन्हि। मुदा विद्यार्थी कैं आशय नहि बूझि पड़लैन्ह।

भात किछु बेशी तप्पत रहैक। अतएव सत्यदेव फूकि-फूकि कऽ खाय लगलाह। परन्तु जै बेर सत्यदेव मुँह मे देथि तै बेर गुरु हुम् कऽ देथिन्ह। आब महा कठिन। गुरु- शिष्य दुनू त मौने रहथि। आशय प्रकट हो त कोना!

सत्यदेव कैं अभिप्राय नहिए बूझि पड़लैन्ह। ओ पूर्ववत् भोजन करैत रहलाह।

आब गुरु कैं नहि रहि भेलैन्ह। चूर लैत बजलाह- हुम्! हुम्! हुम्! तों पतित भऽ गेलह। क्रतुक वचन छैन्ह-

          आसनारूढपादौ  वा  वस्त्रार्ध प्रावृतोऽपि वा ।
          मुखेन धमितं भ्क्त्वा कृच्छ्र सान्तपनं चरेत    ॥
 

आसन पर पैर रोपि कऽ वा आधा धोती ओढ़ि कऽ अथवा मुहँ सॅं फूकि कऽ भोजन कैने लोक प्रायश्चित्ती हो । तों तीनू एके संगे कैलह । आब बिना 'कृच्छ्र सान्तपन' कैने उपाय नहि छौह ।

सत्यदेव पुछलथिन्ह - ताहि मे की करय पड़त ?

पं० जी कहलथिन्ह -

         गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः  कुशोदकम्  ।
         एकरात्रोपवासश्च कृच्छं सान्तपनं स्मृतम्    ॥
        

गोंत, गोबर, दूध, दही, घृत और कुशक जल सॅं पारण तथा एक रात्रिक उपवास ।

सत्यदेवक खेनाइ गेलैन्ह ।

पं० जी अचबैत बजलाह - तों अपना संग-संग हमरो भोजन नष्ट कैलह । किऎक त बिनु बजने बुझितह नहि । और हम चूर नहि लितहुँ त बजितहुँ कोना ?

एहि तरहें भेल भानस दुहू गोटा कैं उपवास करय पड़लैन्ह । आब शयनक प्रश्न उठल । हलुआइक दोकान मे एकटा चौकी खाली रहैक । सत्यदेव कहलथिन्ह - गुरु, अपनेक ओछाओन एही पर कय दैत छी । हम नीचा पटिया पर सूति रहब ।

ई कहि सत्यदेव चौकी कैं झाड़य लगलाह । ओहि पर एकटा पेयाज रहैक । सत्यदेव ओकरा उठा कऽ नीचा धरय लगलाह ।

पं० जी पुछलथिन्ह - की थिकैक ?

विद्यार्थी पेयाज देखबैत कहलथिन्ह - देखल जाओ । यैह 'पेयाजु' तरकारी मे दऽ दऽ कऽ लोकक जाति भ्रष्ट करैत अछि ।

पं० जी नाक मूनि हुम ! हुम ! करैत बजलाह - फेकह , फेकह । आब तोंहूँ भ्रष्ट भऽ गेलाह ।

सत्यदेव ओकरा फेकैत बजलाह - गुरुजी हम की एकर भक्षण कैल अछि जे दोषी होयब ?

महामहोपाध्याय क्रुद्ध होइत कहथिन्ह - तों शास्त्रार्थ करैत छह ! तखन लैह देखह । वृहस्पतिक वचन छैन्ह -

          सुरापलाण्डुलशुनस्पर्शे    कामकृते  द्विजे ।
          त्र्यहं पिबेत् कुशजलं सावित्रीं च जपेत्तथा ॥
        

तों जानि बूझि कऽ पलांडुक स्पर्श कैलह अछि । आब तीन दिन धरि केवल कुशक जल पीबि कऽ रहय पड़तौह । तदुपरान्त सावित्री जपलाक उत्तर शुद्ध हैबह ।

ई कहि पं० जी लघुशंका दिशि गेलाह ।

परन्तु एहन संयोग जे पंडितोजी कैं प्रायश्चित लागिए गेलैन्ह । किऎक त सत्यदेव अन्हारमे पेयाज जे बाहर फेकने रहथि ताहि पर हुनक पैर पड़ि गेलैन्ह ।

पं० जी बजलाह - आब हमहूँ अशुद्ध भऽ गेलहुँ ।

विद्यार्थी कहलथिन्ह - अपने त जानि कऽ स्पर्श नहि कैल अछि । केवल पैर धो लेल जाओ ।

पं० जी उत्तर देलथिन्ह - नहि । हमरो ऎखन स्नान करय पड़त । किएक त याज्ञवल्क्य कहै छथि जे - पलाण्डुलशुनस्पर्शे स्नात्वा नक्तं समाचरेत् । धोखो सॅं पेयाजु वा लहसुनक स्पर्श भऽ गेने स्नान-पुरःसर नक्तव्रत कर्त्तव्य थिक ।

अगत्या गुरु शिष्य दुहू गोटा घाट पर गेलाह ।

पं० जी कहलथिन्ह - पापप्रक्षालनक निमित्त पहिने नीक जकाँ कर्दम लेपन करक चाही । गंगाजीक कादो लेपने शरीरक सभटा मल धोआ जाइत छैक ।

विद्यार्थी अन्हारे मे टोइया देबय लगलाह । एक ठाम बेस चिक्कन लसगर माटि बुझि पड़लैन्ह । थोड़ेक गुरु कैं देलैन्हि, थोड़ेक अपनो लेलन्हि । दुहू नैष्ठिक आचारी हाथ-पैर आदि समस्त अवयव मे लेप करैत ई मंत्र पढय लगलाह -

            त्वत्कर्दमैरतिस्निग्धैः   सर्वपापप्रणाशनैः  ।
            मया संलिप्यते गात्रं मातर्मे हर पातकम्   ॥
        

लेप करैत-करैत गुरु कैं किछु गंध बूझि पड़लैन्ह । ओ हाथ कैं नाक लग लऽ गेलाह कि ओ....ओ... कऽ वान्ति होमय लगलैन्ह । ओम्हर विद्यार्थिओ वमन करय लगलाह ।

आव गुरु-शिष्य कैं कोनो संदेह नहि रहलैन्ह । दुहू गोटे हाहाकार करय लगलाह । गुरू विलाप करैत कहलथिन्ह - हमर दुनू हाथ भ्रष्ट भऽ गेल । आब हवन पूजन कथी सॅं करब ?

शिष्य बजलाह - हमर सम्पूर्ण त्वचा दूषित भऽ गेल । आब ई शरीर राखि कऽ की करब ?

गुरु-शिष्य आकंठ जल मे पैसलाह । शिष्य कहलथिन्ह - गुरो ! आब आज्ञा हो त एहि देह कैं गंगाजी में विसर्जन कऽ दी ।

गुरु कहलथिन्ह - हुम ! ताहू में प्रायश्चित छैक । आत्मघाती कैं गति नहि - आत्मा रक्षितो धर्मः ......

एतबा कहैत पं० जीक पैर उखड़ि गेलैन्ह । धार तेज रहैक । पं० जी आर्तनाद करैत भसियाय लगलाह । सत्यदेव कसि कऽ गुरुक चरण गहि लेलन्हि जे हिनके संग-संग वैतरणी पार उअतरि जायब । हेलनाइ त किनको अविते नहि रहैन्ह । किऎक त मनुजीक आज्ञा छैन्ह - न बाहुभ्यां नदी तरेत् । दुनू गोटे ऊब-डूब होमय लगलाह ।

ताबत चीत्कार शब्द सुनि घाट परक मल्लाह सभ पानि मे कूदल । हिनका लोकनि कैं कोनो तरहें खिचि-तिरि कय ऊपर कैलकैन्ह । और कुम्हारक घर पर लऽ जा कऽ चाक पर घुमा देलकैन्ह । ऑतय भरि राति दवाइ-विरौ और मालिश भेलैन्ह । सुसुम-सुसुम दूध-लपसी चटैला पर दुनू गोटाक आँखि फुजि गेलैन्ह । गुरु शिष्य वैतरणीक एही पार रहि गेलाह ।

मृत्युक चपेटाघात लगैत देरी पं० जी परमहंस बनि गेलाह । हुनक कट्टरता जाइत रहलैन्ह ।

विद्यार्थी पुछलथिन्ह - गुरो ! निषादक स्पर्श सॅं जे छुति भेल तकर प्रायश्चित ?

पं० जी - कोनो प्रायश्चित नहिं । कोनो प्रायश्चित नहि । मनुजी कहैत छथि जे -

          तीर्थे विवाहे  यात्रायां  संग्रामे  देशविप्लवे ।
          नगरे ग्रामदाहे च  स्पृटास्पृटनं      विद्यते  ॥
        

तीर्थ में स्पर्श दोष नहि लगैत छैक ।

विद्यार्थी - परन्तु शुद्रक हाथ सॅं जे दबाइ मुँह मे पड़ल, से ? अपनहिं कहने छी जे -

         शूद्रहस्तेन यो भुंक्ते पानीयं वा पिबेत क्वचित्  ।
         अहोरात्रोषितो भूत्वा     पंचगव्येन  शुद्धयति  ॥       - क्रतु
        

तखन बिनु प्रायश्चित कैने कोन उपाय ?

पं० नहि , औषधार्थ मदिरो-मांस भक्षण मे दोष नहि लगैत छैक । लिखलकैक अछि - औषधार्थं सुरां पिबेत् ।

          भक्षयन्नपि  मांसानि शेषभोजी न लिप्यते ।
          औषधार्थमशक्तो वा नियोगात् यज्ञकारणात  ॥
        

विद्यार्थी - परन्तु शुद्रक घर मे खैना गेल तदर्थ त बालु-गोबर गीड़हि पड़त ?

पं० जी - नहि, कोनो प्रयोजन नहि । शास्त्रकार कहैत छथि -

          आपत्काले  तु विप्रेण भुक्तं शुद्रगृहे यदि ।
          मनस्तापेन शुद्ध्येत द्रुपदां वा शतं जपेत्  ॥  - आपस्तंम्ब
        

आपत्तिकाल मे शुद्रक घर खैने केबल मनस्तापे टा सॅं ब्राह्मण शुद्ध भऽ जाथि ।

विद्यार्थी मुँह ताकय लगलथिन्ह । कहलथिन्ह - गुरो अपने कैं जिवित-श्राद्धो त करबाक अछि ।

पं०जी बजलाह - जीवित-श्राद्ध त भइए गेल । बाँकिए की रहल ? आब शरीर पर बेशी अत्याचार करब धर्म नहि थिक । बृहस्पति कहैत छथि -

         शरीरं  पीड्यते येन  सुशुभेनापि कर्मणा ।
         अत्यन्तं तन्न कर्त्तव्यमनायासः स उच्यते ॥
        

विद्यार्थी पुछलथिन्ह - तखन आब की कर्तव्य ?

पं० जी - कर्तव्य की ? स्नान भोजन कय घरक हेतु प्रस्थान करी ।

विद्यार्थी - परन्तु एहिठाम भोजन की कैल जाएत ?

पं०जी - किऎक ? दोकान त छैहे । जे इच्छा हो से लय आबह ।

विद्यार्थी खिसिया कऽ बजलाह - गुरु ! इच्छा त कचौड़ी-रसगुल्ला पर होइत अछि । परन्तु शास्त्र मे कि तकर प्रमाण छैक ?

पं० जी - हॅं , छैक ।

         गोरसं  चैव   शक्तुं  च  तैलं  पिन्याक  मेव   च    ।
         अपूपान् भोजयेत् शूद्रात् यच्चान्यत् पयसाकृतम् ॥   - याज्ञवल्क्य
        

'अनूप' कहने कचौड़ी और 'अन्यत पयसाकृतम्' कहने रसगुल्ला, पन्तुआ आदि सभटा आबि जाइक छैक ।

विद्यार्थी व्यंग्य कैलथिन्ह - हॅं घिबही वस्तु मे दोष नहि । जे दोष छैक से केवल तेलही कचरी-फुलौरी में ।

पं० जी निर्विकार भाव सॅं बजलाह - नहि । सेहो खा सकैत छह ।

          कंदपक्वं  स्नेहपक्वं  पायसं  दधि  शक्तयः  ।
          एतानि  शुद्रान्नभुजो  भोज्यानि मनुरव्रवीत   ॥
        

खापड़ि मे भूजल और तेल मे छानल वस्तु खैबा मे कोनो दोष नहि । और एखन त परदेश में छह । घरवला नियम चाहबह से कोना हैतौह? तैं स्मृतिकारक अनुमति छैन्ह जे- पथि शूद्रवदाचरेत्।

सत्यदेव कैं विश्वास नहि भेलैन्ह। बजलाह- गुरु, अपने हमरा परतारैत छी। पहिने ई सभ वचन किऎक नहि कहैत छलहुँ?

ताबत् एक परदेशी सज्जल अपना युवती स्त्री कैं नेने पं. जीक ओहि ठाम पहुँचलाह। एकान्त मे कहलथिन्ह-ई विधर्मीक हाथ मे पड़ि गेल छलीह। आब शुद्ध भऽ सकैत छथि ?

पं. जी बजलाह- स्त्री कतहु दूषिता होथि? आपस्तम्ब कहैत छथि-

        न दुप्येत् संतता धारा, वातोघ्दूताश्च रेणवः।
        स्त्रियो वृद्धाश्च बालाश्च न दुष्यन्ति कदाचन॥
     

जहिना बहैत नदी मे कोनो दोष नहि, तहिना स्त्रीओ मे कोनो दोष नहि। ओ सर्वदा पवित्र रहैत छथि।

आगन्तुक कहलथिन्ह- परन्तु हिनका कोनो टा संसर्ग बाँकी नहि रहलैन्ह।

पं. जी बजलाह- तथापि ई पवित्रे थिकीह। अत्रिक वचन छैन्ह-

       न स्त्री दुष्यति जारेण ब्राम्हणो वेद कर्मेणा।
       नापो मूत्रपुरीषाभ्यां, नाग्निर्दहति कर्मणा॥
    

जेना वैदिकी हिंसा जन्य दोष ब्राम्हण कैं नहि लगैत छैन्ह तहिना जारकृत कर्मक दोष स्त्री कैं नहि लगैत छैन्हि।

आगन्तुक कहलथिन्ह- परन्तु हिनका गर्भो रहि गेल छैन्ह।

पं. जी बजलाह- तकरो वचन छैक-

        असवर्णस्तु यो गर्भः स्त्रीणां योनौ निषेच्यते।
        अशुद्धा सा भवेन्नारी यावद्गर्भं न मुञ्चति ॥
        विमुक्ते तु ततः शल्ये रजश्चापि प्रदृश्यते ।
        तदा सा शुद्धयते नारी विमलं काञ्चनं यथा॥-अत्रिस्मृति
      

ई यावत धरि गर्भवती छथि ताबते धरि अशुद्ध। पुनः जहाँ पुष्पवती होइतीह कि निर्मल स्वर्ण बनि जैतीह।

परदेशी- तखन हिनक शुद्धि कोन प्रकारें हैतैन्ह?

पं. जी- मासिक धर्म होइतहि स्वतः शुद्ध भऽ जैतीह। और कोनो वस्तुक अपेक्षा नहि। देखू, स्मृतिकार कहैत छथि-रजसा शुद्धयते नारी। और वचन लियऽ- शौच सुवर्णनारीणां, वायुसूर्येन्दुरश्मिभिः। -आपस्तम्ब

स्त्री सोन थिकीह। वायु तथा सूर्य-चन्द्रमाक प्रकाश लगितहि हुनक देह शुद्ध भऽ जाइत छैन्ह।

परदेशी- त हिनका सॅं आब कोन प्रकारक व्यवहार करक चाही?

पं. जी- व्यवहार कोन प्रकारक करक चाही? ऋतुकाल ऎलापर सेवन करक चाही। शास्त्रकारक मत छैन्ह-

      न त्याज्या दूषिता नारी, न कामोऽस्या विधीयते ।
      ऋतुकाल  उपासीत,    पुष्पकालेन   शुध्दयति ।।  -अत्रिस्मृति
    

परदेशी पुछलथिन्ह - अपने हिनक छुइल जल पिबैन्ह?

पं. जी कहलथिन्ह - किऎक नहि?

युवति किछु संकुचित होइत एक गिलास जल आगाँ बढा देलथिन्ह । पं. जी घट्ट- घट्ट कऽ पीबि गेलाह ।

सत्यदेव फराके सँ सभटा देखैत - सुनैत छलाह । दम्पतिक गेलापर गुरु कैं कहलथिन्ह - आब हमरो जैबाक आज्ञा भेटौ । अपने संग एको दिन रहि गेलहुँ त जतबा धर्मशास्त्र सात वर्ष मे पढलहुँ अछि से सभटा एके दिन मे ध्वस्त भऽ जाएत।

पं. जी मुसकुराइत कहलथिन्ह- धर्मशास्त्रक की तत्त्व छैक से बुझितो छहौक? केवल श्लोक रटने धर्मशास्त्रक ज्ञान नहि होइत छैक।

विद्यार्थी क्षुब्ध होइत बजलाह- अपने जे व्यवस्था ओकरा देलिऎक अछि ताहि सॅं सामाजिक मर्यादा रहि सकैत अछि? यदि सभ केओ ओही सिद्धान्त पर चलय लागय.....

पं. जी- एहन कोनो सिद्धान्ते नहि छैक जे सभक हेतु सभ अवस्था मे लागू होइक। धर्मशास्त्र अनन्त समुद्र थिक। एहि मे नाना प्रकारक विधान भरल छैक। देश, काल, पात्र विचारि जखन जेहन वचन समाजक कल्याण हेतु उपयुक्त बुझना जाय तखन तेहन व्यवस्था देबक चाही। ओहि स्त्रीक हेतु यदि हम ओहि प्रकारक व्यवस्था नहि दितिऎक त ओकर स्वामी ओकरा त्याग कऽ दितैक और ओ पुनः विधर्मीणी बनि जाइत । तखन ओकर सन्तति दिन-दिन विधर्मीक संख्या-वृद्धि करैत जइतैक । तैं व्यास जी कहैत छथि -

          देशकालनिमित्तानां  भेदैर्धर्मो   विभिद्यते  ।
          अन्यो धर्मः समस्थस्य विषमस्थस्य चापरः  ॥
          न हि सर्वहितः  कश्चिदाचाः  सम्प्रवर्त्तते  ।
          तस्मादन्यः  प्रभवति  सोऽपरं बाधते पुनः  ॥
          आचाराणामनैकाग्र्यं   तस्मात सर्वत्र  दृश्यते ।
          नह्यैवैकान्तिको धर्मःधर्मस्त्वावस्थिकः स्मृतिः ।   -महाभारत (शांतिपर्व)
        

धर्म आपेक्षिक वस्तु थिकैक । एक व्यक्तिक हेतु एक धर्म होइत छैक, दोसर व्यक्तिक हेतु दोसर धर्म होइत छैक । एक अवस्था मे जे धर्म थिक सैह दोसर अवस्था मे अधर्म भऽ सकैछ । जाहि ठाम जेहन देशाचार, ताहि ठाम तेहने धर्म ।

            येषु स्थानेषु  यच्छौचं धर्माचारश्च यादृशः  ।
            तत्र तन्नावमन्येत ,   धर्मस्तत्रैव   तादृशः  ॥
        

धर्मशास्त्रक अर्थ ई नहि जे आँखि मूनि कय एके लाठी सॅं सभ कैं हाँकि देल जाय । सभ बातक बुद्धिपूर्वक विवेचना कय कर्तव्यक निरुपण करक चाही ।

सत्यदेव कुण्ठितबुद्धि भऽ बजलाह - गुरु, अपने हमरा ततेक रंगक वचन कहि दैत छी जे बुद्धि भॅंवरजाल में पड़ि जाइत अछि । कोनो एकटा सिद्धान्त कहल जाओ जाहि सॅं मति स्थिर रहय ।

पं० जी - वेश, त सुनह । वचनक अनन्त जंगल मे कहाँधरि बौआइत रहबऽ ? सै वचनक एक वचन कहि दैत छिऔह से मूल मंत्र बूझह -

          अष्टादशपुराणेषु  व्यासस्य  वचनद्वयम्   ।
          परोपकारः  पुण्याय पापाय परपीडनम्   ॥
        

जाहि सॅं लोकक उपकार होइक से धर्म , और जाहि सॅं कष्ट पहुँचैक से अधर्म थिक ।

सत्यदेव कुपित भय बजलाह - जखन एतबे बात थिकैक तखन त व्यर्थे एतेक दिन धर्मशास्त्र पढ़लहुँ । सभ स्मृति ग्रन्थ कैं गंगाजी मे भसिया देबक चाही ।

गाम पहुँचला उत्तर सत्यदेव घोल कऽ देलन्हि जे गुरु अजातिक हाथ सॅं जल पीबि भठि गेलाह ।

जखन पं० जी ई बात स्वीकार कऽ लेलथिन्ह त सौंसे गामक लोक हुनका बारि देलकैन्ह ।

पंडिताइन कहलथिन्ह - जाउ, अहाँक की ज्ञान भेल ? सभ धर्म-कर्मक विचार उठि गेल । हम किछु नहि कैने रही ताहि पर त अहाँ हमरा ओतेक प्रायश्चित करौलहुँ । और ओ भ्रष्टा केवल चन्द्रमाक प्रकाशे लगने शुद्ध भऽ गेलि । ओकरा हेतु अहाँ जातिओ गमौलहुँ । परन्तु हमरा लोकनि अहाँक सम्पर्की बनि प्रायश्चिती नहि भऽ सकैत छी । अहाँ धर्मशास्त्र उठा दियऽ, परन्तु हमरा लोकनि त मानिते रहब ।

पं०जी बजलाह - हम त अपन श्राद्ध कऽ आएल छी । आब जीबन्मुक्त भऽ गेलहुँ । विधि-निषेधक बन्धन स्थूलबुद्धि जनताक हेतु छैक । हमरा सूक्ष्म अनुभव भऽ गेल ।

          मन्द्बोधोपकारार्थं    धर्मशास्त्रं    विनिर्मितम्   ।
          लोककल्याण मार्गं हि, पश्यन्ति सुधियः स्वयम ॥
        

तहिया सॅं पं० जी समाज और घर सॅं बहिष्कृत भय बहरघरा मे रहय लगलाह । पंडित जी गामक लोक पर हँसैत छथिन्ह, गामक लोक पंडितजी पर हँसैत छैन्ह ।

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