लेखक : हरिमोहन झा

भादवक राति। साँझेसॅं जे झपसी लधलक से क्रमशः बढिते गेल। जखन एगारह बजे रोशनी मिझा गेलैक त समस्त होस्टल अन्हार कुप्प भऽ गेल। चारू कात निस्तब्ध। केवल फूही झहरबाक स्वर एक तालसॅं नीरवता भंग करैत छल। हमहूँ पुस्तक कैं सीरम मे राखि निद्रादेवीक आवाहन करय लगलहुँ।

वर्षाक झहर-झहर शब्द सुनैत कखन आँखि मुना गेल से पता नहि। प्रायः एक घंटा धरि स्वप्नराज्य मे विचरण कैने हैब कि नीचा केबाड़ खटखटैबाक शब्दसॅं नींद टूटि गेल।

बारह बजे राति कऽ के एना केबाड पीटि रहल अछि? जी अकच्छ भऽ गेल। नीचा उतरि कऽ देखैत छी जे दरबान ठाढ अछि। पुछलिऎक-क्या है जी?

ओ कहलक-चार ठो बाबू आये हुए हैं। नाम नहीं बतलाते हैं। लेकिन कहते हैं कि हुजूर से बहुत जरूरी काम है, इसी वक्त मुलाकात चाहिए।

हम किछु रुष्ट जकाँ भऽ कहलिऎक-कहा क्यों नहीं कि सोये हुए हैं?

दरबान बाजल-बहुत कहा कि सुपरेंटेंडेंट साहब सो गये, कल भोर में आकर मिलियेगा। लेकिन बिगड़ने लगे कि अभी फौरन जगा दो, नहीं तो बहुत नुकसान होगा और पीछे साहब तुम्ही पर नाराज हो जायॅंगे।

हम सोचय लगलहुँ, ई के व्यक्ति छथि जे एहन विकाल रातिमे, एहि मुसलाधार बर्षाक समय, एना ऎबाक कष्ट उठौने छथि? हमरासॅं कोन एहन जरुरी कार्य छैन्ह? के जाने, घरसॅं कोनो अनिष्ट संवाद लाएल होथि!

एक बेर अज्ञात आशंकासॅं देह सिहरि उठल। कहलिऎक - अच्छा, जाओ ले आओ।

पुनः मन कैं बुझाबय लगलहुँ -कोनो विद्यार्थीक गार्जियन होइथिन्ह। तेहने भयंकर विपत्ति पड़ल हैतैन्ह तखन त एहि बदरीमे भिजैत-तितैत बारह बजे राति कऽ आबि पहुँचल छथि।

एही तर्क-वितर्क मे छलहुँ कि जोरसॅं गर्जन भेल। सम्पूर्ण होस्टल हड़हड़ा उठल। विद्युल्लताक प्रकाशमे देखैत छी जे चारि टा भीम सन-सन व्यक्ति आबि रहल छथि। निकट ऎलापर एक गोटा आगाँ बढि पुछलन्हि- की? अपनहि परफेश्वर बाबू थिकहुँ? कुशल- क्षेम छैक कि ने? नेना भुटका सभ निकें छैक? हें-हें-हें-हें!

हमर त वाणिए कुण्ठित भऽ गेल। ई के महानुभाव थिकाह जे एहन भयंकर निशीथमे अयाचित कृपा कय एतेक आत्मीयता देखा रहल छथि! बहुतो मन पाड़लापर ध्यानमे नहि आएल जे एहिसॅं पूर्व जीवनमे कहियो हिनका देखने होइऎन्ह। परन्तु एतबा बुझबामे भाङ्ठ नहि रहल जे ई केओ असाधारण व्यक्ति थिकाह जनिक कृपासॅं आब हमरा और 'परमेश्वर' मे केवल तीने डिग्रीक अन्तर रहि गेल अछि।

हमरा असमंजसमे पड़ल देखि ओ स्वयं आरम्भ कैलन्हि-हें-हें-हें-हें! अपने जे किने से हमरा नहि चिन्हने हैब। चीन्हब कोना? कहियो देखने रही तखन ने! हम अपनेक मसियौतक जे किने से साढूक पिसिऔत भाइ हैबैन्ह! हें-हें-हें-हें! हमरा लोकनि पिंड देबाक हेतु गया जा रहल छी। काल्हि भोरमे गाड़ि भेटत। पता लागल जे अपने बाँकेपुरमे शुपरडंट छी। तखन बिनु भेंट कैने कोना जइतहुँ? डेराक पता लगबैत-लगबैत एतेक राति भऽ गेल। हें-हें-हें-हें! ई हमर वैमात्रेय भाय छथि। और ओ हमर सरबेटा थिकाह। ईहो लोकनि अपनेक दर्शन करक हेतु हमरा संग चल ऎलाह। और ई हमर बालक थिकाह। हौ, प्रणाम करहुन।

हुनक सुयोग्य पुत्र अन्हारेमे हमरा दिशि बढय लगलाह। जहिना प्रणाम करक हेतु निहुड़लाह कि हुनका काँखतरक मोटरीसॅं पितरिया लोटा बाहर भय ढन्न दऽ हमरा पैर पर खसि पड़ल। चोटसॅं जी लोहछि गेल। औंठा थकुचा गेल। एहन विकट प्रणामक आशीर्वाद की दितिऎन्ह? सिसिया कऽ रहि गेलहुँ।

हमर सीत्कार सुनि हुनक पिता बजलाह- की, अपने कैं बेशी चोट त ने लागल?

पुनः अपन बालक कैं फज्झति करैत कहलथिन्ह- तों बड्ड बूड़ि छह। मोटरियो रखबाक लूरि नहि छौह। पहिने मोटरी राखि लितह, तखन प्रणाम करितहुन।

ई कहि ओ भीजल छाता और मोटरी टॆबुलक ऊपर राखि देलन्हि। पुनः अपन भीजल धोतीक साँची गाड़ैत अपना दल दिसि ताकि बजलाह- की हौ! तों सभ त नीक जकाँ भीजि गेलह? हें-हें-हें-हें! हमहुँ भीजि गेलहुँ। आब पहिरब की? मोटरियो सभ त भिजिए गेलौह।

ई कहि ओ बलहॅंसी हॅंसय लगलाह।

ताबत दरबान लालटेन लेसि कऽ नेने आयल। प्रकाशमे चारू अभ्यागतक भीमकाय मूर्ति देखल।

सभक देह लथपथ। धोतीसॅं पानि चुबैत। टेबुलपर नजरि पड़ल त देखैत छी जे भीजल छाताक जलसॅं समस्त शुष्क फाइल आर्द्र भऽ गेल अछि और मोटाक भारसॅं दाबात उनटि कऽ कज्जलसरिता बहा रहल अछि।

ताबत पाहुन हमर उपकारार्थ अपना सभक नामावली कहि सुनौलन्हि-स्वयं भीमेन्द्रनाथ, वैमात्रेय गजेन्द्रनाथ, बालक बज्रेन्दनाथ (ओ 'ब्रजेन्द्रनाथ' क एहिना उच्चारण कैलन्हि जे हमरा अधिक सुसंगत बुझना गेल), ओ सरबेटा दिगम्बरनाथ।

आब ई चारू नाथ पहिरताह की? एकटा फाजिल धोती रहय से भीमेन्द्रनाथ कैं देलिऎन्ह। गजेन्द्रनाथ हमर बला लुंगी लपेटि लेलन्हि। ब्रजेन्द्रनाथ कैं एक पुरान एक पतलून बाहर कय देलिऎन्ह जे हुनका घुट्ठी सॅं एक बीत ऊपरे रहि गेलैन्ह। दिगम्बरनाथ ओहिना रहि गेलाह। अन्तमे केबाड़क पर्दा उतारि हुनक पर्दाक इन्तिजाम कैल गेल! आब ई लोकनि महादेवक बरियात बनि गेलाह।

जखन दरबान ओछाओन माँगय ऎलैन्ह त पाहुन कहलथिन्ह- ओछाओन त हें-हें-हें-हें! हमरा सभ नहि अनलहुँ अछि। एकटा फाटल दरी मे मोटरी बान्हल छैक सेहो भीजिए गेलैक। की हैतैक? एके रातिक त बात! कतहु पड़ि रहै जायब। हें-हें-हें-हें!

दरबान 'कामन रूम' सॅं बडका सतरंजी आनि बिचला हौलमे ओछा देलकैन्ह। हिनका लोकनिक सुतबाक प्रबन्ध लगा ओ अपना काज पर चल गेल, और हमहूँ ऊपर बिदा भेलहुँ ।

दुइए सीढी चढल हैब कि पाछासॅं पाहुन पुछै छथि-की, अपने भोजन त एखन नहिए कैने हैब?

एक बजे राति कऽ एहन असंभाव्य प्रश्न सुनि हम अवाक रहि गेलहुँ। परन्तु हुनक अभिप्राय बुझबामे भाङठ नहि रहल। पुछलिऎन्ह-की, अहाँ लोकनि बिनु खैनहि छी?

एहि पर पाहुन जे उत्तर दैत भेलाह से सुनू- हें-हें-हें-हें! एखन कोन अगुताइ छैक? तावत ई तीनू गोटा किछु जलपान कऽ लेताह। हें-हें-हें-हें! हमरा त ततेक भूख नहि अछि। एके बेरि जे हैतैक से खा लेब। हें-हें-हें-हें! घरे थिकैक। ई कोनो बात छैक? की हौ गजेन्द्र! हम कहलिऔह ने जे ई बिना आग्रह कैने नहि मानथुन्ह। बज्रेन्द! एहि ठाम कोनो संकोच नहि। तोहर त घर छौह। जलखइ करै जाह हें-हें-हें-हें!

आब एहि हें-हें पर हम सूतय कोना जाउ? रामटहल अपना कोठरीमे निसभेर सूतल रहय। तकरा जा कऽ जगाओल और छाता रुपैया दऽ कऽ बाजार पठौलिऎक। ओहन घनघोर वर्षामे डॆढ बजे राति कऽ कोन अभागल दोकान खोलि कऽ बैसल रहैत? आध घंटाक बाद ओ छप-छप करैत, खाली हाथ डोलबैत, फिरल आएल।

आब कोन उपाय हो? एक नाथ कहल नहि जाय। चारि-चारि टा नाथ! ताहिमे 'एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम!

भनसीया कैं उठौलिऎक। ओ आँखि मिङैत आबि कऽ कहलक जे सरकार, आब त दू बजैत छैक। एखन जॅं कोइला पजारबगऽ त भोरे भऽ जैतैन्ह।

बात त यथार्थे। आब हम करै छी की? पाहुन मे सॅं केओ कनेको औंघाय बला नहि। प्रत्युत एहि ताकमे जे कतहु घरबैया अंठा कऽ सूति नहि रहथि।

हमरा चिन्तित देखि पाहुन आश्वासन देबय लगलाह- कोनो चिन्ता नहि, हमरो लोकनिक संग किछु खैबा-पिउबाक वस्तु अछि। की हौ गजेन्द्र? बाहर करह तेतरिक खटमिट्ठी। दू-चारि फाँक अमङाक अँचारो हैतौह।

एक त ओहिना जठराग्नि प्रदीप्त। ताहिपर उद्दीपन सामग्री! अगत्या हम लालटेन लय भंडारघर गेलहुँ। एतेक वस्तु देखबामे आयल- एकटा अधपक्कू कटहर, एक हत्था केरा, एक बोतल घृत।

पाछाँ फिरि कऽ देखैत छी त चारू पाहुन ठाढ! हम रामटहल कैं पुछलिऎक- देखही तऽ ई कटहर खैबाक योग्य भेलैक अछि?

ओ तजबीजे करैत छल कि पाहुन ओकरा हाथसॅं कटहर उचङि कऽ कहलथिन्ह- तों की बुझबहिक? एम्हर ला। वाह! खूब गमकैत अछि। एहिमेसॅं खजबा को बहरैतैक। की हौ गजेन्द्र!

ओसारापर पानिक झटक अबैत रहैक। तैं भंडारे घरमे एक दिशि आसन-पानि धरबा देलिऎन्ह। चारू गोटे हाथसॅं ऍंड़ी कैं हॅंसोथि बैसैत गेलाह। बीचमे कटहर राखि देल गेलैन्ह। जावत रामटहल थारी-बाटी माँजि कऽ आनय-आनय तावत कमरी समेत सभटा कोआ साफ! केवल, आँठी और नेढा मात्र शेष रहि गेलैन्ह। भीमेन्द्रनाथ सरबेटा दिसि ताकि बजलाह-आब की खैबह!केरा?

दिगम्बरनाथ कहलथिन्ह-हॅं पिउसा, केरा त पाचके हैत।

किन्तु चारि-चारि छीमीसॅं की हो? ऊँटक मुँह मे जीरक फोरन! सरबेटा घृत दिशि ताकय लगलथिन्ह। पिउसा पुछलथिन्ह-की? चखबाक मन होइत छौह?

ओ बामा हाथे ढारि-ढारि दहिना हाथे घृतक आस्वादन करय लगलाह। चटैत-चटैत चारू गोटे सभटा घृत चट कऽ गेलाह।

हम देखल जे पाहुन लोकनि छुछुआएले बैसल छथि, केओ उठबाक नाम नहि लैत छथि। उदरकुंडक जठराग्नि-ज्वाला घृतक आहुतिसॅं और क्रुद्ध भय जेना सातो जिह्वा लपलपाय माँगि रहल छैन्ह-हविषं देहि समिधं देहि।

आब हम और हविषा कतयसॅं आनू? दबाइक आलमारी मे एक डिब्बा 'माल्टेड मिल्क' रहय सेहो घोरि कऽ चारू गोटे कैं दऽ देलिऎन्ह। किन्तु ओहि चरणोदक सॅं की हो?

तावत ब्राम्हणदेवताक भाग्य देखिऔन्ह जे मेसक एक हलुआइ नमकीन बना कऽ बचैत रहय से एक पसेरी दालमोट बना कऽ रखने रहय। ई पता लगैत भरलो थार ओकरा आतय सॅं मङ्बा लेल गेल। एक धरिका अमौट पाहुनक मोटरीमे रहैन्ह। चारू गोटा अमौट घोरि, ओहिमे दालमोट सानि-सानि तृप्तिपूर्वक कौर मारय लगलाह।

जखन सम्पूर्ण परात साफ भऽ गेलैन्ह तखन भीमेन्द्रनाथ हमर तोषार्थ बजलाह-हें-हें-हें-हें! ई जलपान की भेल जे मानू भोजने भय गेल। की हौ गजेन्द्र! आब त तोरो लोकनि कैं ततेक भूख नहिए हैतौह?

ई कहि ओ पुनः हें-हें-हें-हें करय लगलाह। अन्तमे हमरे पराजय स्वीकार करय पड़ल। कहलिऎन्ह- त वेश, आब अपने लोकनि अचाओल जाय। दू सॅं ऊपर भेल। हमरो आज्ञा भेटय।

हमरा सबेरे उठि एकटा रिपोर्ट लिखबाक रहय। तैं ऊपर जा सुतबाक उपक्रम करय लगलहुँ। गर्जन तथा वर्षणक वेग क्रमशः बढिते गेलैक। बूझि पङय जे आइ सौंसे पटना दहा देत। अढाइ बजे राति कऽ जे पुनः बिछाओनपर ऎलहुँ त बेहोश भऽ पङलहुँ। किन्तु मुश्किलसॅं आध घंटा बीतल हैत कि ककरो वज्र सन कठोर हाथक स्पर्शसॅं नींद उचटि गेल। हम अकचका कऽ छङपय लगलहुँ कि 'ओ परफेश्वर बाबू! हम थिकहुँ' ई कहि पाहुन हें-हें-हें-हें करय लगलाह।

हमर त देह जरि गेल। तथापि सभ्यताक रक्षा करैत पुछलिऎन्ह- की थीक?

पाहुन बजलाह-हें-हें-हें-हें! नीचा लालटेन मिझा गेलैक। और हमर सरबेटा दिगम्बरनाथ जे किने से नदी दिश जैताह। एहि ठाम त किछु गमल-बुझल छैन्ह नहि। निकास कोम्हर छैक?

हम कनेक औंघायले जकाँ उत्तर देलिऎन्ह- नीचा भंडारघरसॅं सटले पैखाना छैक। ताहि मे जाय कहिऔन्ह।

ई कहि हम पुनः आँखि मूनि सूति रहलहुँ। किन्तु दसे मिनटक बाद नीचा फेर गर्द पड़ल-औ परफेश्वर बाबू! पानि नहि भेटैत अछि। बालटी कतय छैक? अन्हारमे माटि नहि भेटैत छैन्ह! हाथ कोना मटिऔताह?

आब की करू? पुनः नीचा उतरय पड़ल। पानि ओहिना झहरैत रहैक। रामटहल अपना कोठरीमे जा कऽ सूतल रहय। पुनः ओकरापर अत्याचार करब उचित नहि बूझि पड़ल। हम स्वयं टार्च लऽ कऽ माटि देखा देलिऎन्ह और ओ बाल्टीक उद्येश्यें बाथरूम गेलाह। ओहिमे जहिना पैर दैत छथि कि फच्च दऽ किछु माखि गेलाह। टार्चक प्रकाशमे देखला उत्तर स्पष्ट भऽ गेल जे ई दिगम्बरनाथक प्रसाद चिन्ह थिकैन्ह। ओ स्नानागारे कैं शौचागार बूझि अपन कोष्ठ-शुद्धि तथा हमर प्रकोष्ठ-शुद्धि कऽ देने छथि!

हम ऊपर गेलहुँ कि पाहुन पुनः गर्द कैलन्हि- औ परफेश्वर बाबू! कनेक हमरो लोकनि बाह्य-भूमि दिशि जाएब। घरमे बैसबाक अभ्यास नहि अछि। बाहर मैदानक रास्ता देखा दियऽ। दिगम्बरोनाथ कैं खूब खुलासा नहि भेलैन्ह। फेर जैताह।

आब देखू तमाशा। अन्धकारमे हाथ कैं हाथ नहि सुझैत, पानि झहरैत, ठनका ठनकैत। और ई लोकनि बाहर जैताह!

अन्ततः नहिए मानैत गेलाह। चारू गोटे कान पर जनउ चढा विदा भऽ गेलाह। सदर फाटक बंद रहैक। अतएव पछुआड़क रास्तासॅं हिनका लोकनि कैं हाता पार करा देलिऎन्ह और 'टार्च' हाथ मे दय देलिऎन्ह।

प्रतीक्षामे बैसल-बैसल साढे तीन बाजि गेल। परन्तु पाहुन लोकनिक पता नहि। थोड़ेक कालक उपरान्त दूर सॅं आर्त्तनाद सुनबा मे आएल- ओ परफेश्वर बाबू! हमरा लोकनि भुतिया गेलहुँ। अन्हारमे तारवला काँटमे ओझराएल छी। ई पुकपुक्की हमरा सभ बुते नहि बरैत अछि। कोन बाटे आउ?

अस्तु कोनो कोनो तरहें गजेन्द्र मोक्ष कैल गेल।

चारि बजे जे सुतलहुँ से पूरे सात बजे नींद टूटल। मन मे कहलहुँ पाहुन सभ भिंसरबी गाड़ीमे चढि पुनपुन पहुँचि गेल हैताह। नीके भेल जे पिंडदानक यात्री सभसॅं पिंड छूटि गेल। नहि त चलय काल फेर हें-हें करय लगितथि त उचिती-मिनतीमे एक घंटा लागि जाइत।

ई विचारैत जहिना नीचा उतरैत छी कि देखै छी जे भीमेन्द्रनाथ, गजेन्द्रनाथ, ब्रजेन्द्रनाथ ओ दिगम्बरनाथ, चारू गोटे नहाएल तथा सोन्हाएल, चानन-ठोप कैने, कथुक प्रतीक्षामे तैयार बैसल छथि।

दलक सरदार हमरा देखैत बजलाह-हें-हें-हें-हें। हमरा लोकनि त भोरे बिदा भऽ जैतहुँ। परन्तु बिनु अपनेसॅं भेट कैने हें-हें-हें-हें सूतलमे कोना उठबितहुँ! और आब त उदय भऽ गेलैक। बृहस्पति दिन दक्षिण मुँह जाएब कोना? की हौ गजेन्द्र?

गजेन्द्रनाथ कहलथिन्ह-हॅं,आब आइ त गया जैबा मे दिकशूले पड़ि गेल।

अस्तु। भनसीया कैं बजा पठौलिऎक। हम अपने पथ्याहार करैत रही। अतएव ओ पुछलक- हिनका सभक हेतु की बनतैन्ह?

हम जावत किछु उत्तर दिऎक तावत पाहुन कहय लगलाह- हमरा तीनू गोटाक त जे किने से घरे थिक। किन्तु हमर सरबेटा दिगम्बरनाथ हें-हें-हें-हें बिनु सौजने भात कोना खैताह? हिनका लेल छनुआ सोहारी, अनोन तरकारी बना देबैन्ह। मधुरक संग खा लेताह। हमरा लोकनिक त हें-हें-हें-हें घरे थिक। भोजन मे जे किने से भात, दालि, तरकारी, घृत, दही, चीनी। बस और की? हॅं, हमरा संग में एकटा जमीरी नेबो अछि से दूरि भेल जाइत अछि। तैं थोड़ेक माछो मङा लेब। और बेशी विन्यास करबाक कोन काज? हमरा लोकनि कि पाहुन छी? और ई कि घर थिकैक? तावत हिनका लोकनि कैं किछु जलखइ आनि देबैन्ह त आनि दिऔन्ह। की हौ बज्रेन्द्र?

ब्रजेन्द्रनाथ लजाइत कहलथिन्ह-नहि, कोनो तेहन आवश्यक नहि। दस मिनटक बादो अबै त कोनो हर्ज नहि।

पुत्रक एहि संकोचशीलतापर टिप्पणी करैत पिता बजलाह-हें-हें-हें-हें! ई हमर बालक जे छथि से जे किने से बड़ लजकोटर छथि। एखन नेने बुझिऔन्ह। दाढी मोछ भेने की हैतैन्ह? हौ, तोहर त ई अपन घर छौह। माँगि कऽ खैबाक चाहियौह। और हिनका कि भगवतीक प्रसाद सॅं कथूक कम्मी छैन्ह? की ओ परफेश्वर बाबू! दरमाहा कतेक भेटैत अछि? किछु बाइलिओ प्राप्ति त जे किने से अवश्ये भय जाइत होएत। हें-हें-हें-हें!

तावत मक्खनवला पहुँचि गेल। जहिना एक गोली देबाक हेतु थार नीचाँ धैलक कि पाहुन पुत्र कैं कहलथिन्ह- देखह, एहिठाम लऽ एलिऔह तैं ने एहन भोग्य पदार्थ देखै छह! ई नेनु कतय भेटितौह? एहिसॅं दिमाग तर रहैत छैक। तों की बुझबहक?

ई कहि ओ थार कैं अपना सुपुत्रक आगाँमे घुसका कऽ लय गेलाह। सुयोग्य पुत्र निर्विकार भावसॅं सभटा माखनक गोली मिश्रीक गोला समेत हॅंसोथि कऽ उठा लेलन्हि और पिताक आज्ञा कै परम धर्म मानि अपन दिमाग तर करय लगलाह।

हमरा आवश्यक कार्य सभ रहय। तैं झटपट तैयार भय दस बजे कालेज चल गेलहुँ।

तावत एम्हर पाहुन लोकनि भनसीयासॅं घनिष्टता स्थापित करय लगलाह- की नाम अछि? कतय घर? की मूल? कुजिलवार उल्लू? वाह! नीक लोक छी। कतेक दिनसॅं एहि ठाम काज करैत छी? अहाँक शुपरडंट साहेब हमर खास सरोकारी छथि। हम लाख छट्ट-पट्ट कैल किन्तु आइ किन्नहु जाय कहाँ देलन्हि? कहलन्हि जे भला कहू त? से कोना हैत? जावत अहाँ लोकनि जे किने से विन्यासपूर्वक भोजन नहि कय लेब तावत जाएब कोना? देखब, एक्को रती संकोच नहि करब। जे-जे खैबाक हो से भनसीया कैं कहबैन्ह। दही दूध दुनू खाएब। घृत पर्याप्त कऽ देबय कहबैन्ह? जौं कोनो वस्तुक त्रुटि रहतैन्ह त हम बिना 'जरिमाना' कैने नहिं छोड़बैन्ह। की हौ बज्रेन्द! तोरो बहुत मानैत छथुन्ह। कहि गेल छथि हिनका आइ माछ अवश्य भेल तकैन्ह। की औ बाबू , एहि ठाम त धारक बढयाँ रोहु भेटैत हैतैक? कतेक दूर छैक? परफेश्वर बाबू त आब चारि बजेसॅं पहिने नहिए औताह। बेचारे अगुताइमे केवल समतोले खा कऽ चल गेलाह। परंच हमरा लोकनि कैं कोन अगुताइ अछि? बारह बाजौ, एक बाजौ, कैयौ बाजौ। अपन घर अछि। जखन हैत तखन खाएब। की हौ गजेन्द्र! तावत पहिने दिगम्बरनाथक हेतु छनुआ छानि दिऔन्ह।

एवं प्रकारें भनसीया कैं तेना पट्टी पढौलथिन्ह जे सौंसे घर गमागम छनाछन होमय लागल।

अपन-अपन कर्म होइत छैक। हम त पथ्य खा कऽ अपना कार्य पर गेलहुँ और ई सभ चढले कड़ाही सॅं गरमागरम कचौड़ी और भफाएल हलुआपर हाथ फेरय लगलाह । भोजन करैत-करैत हिनका लोकनि कैं दू बाजि गेलैन्ह।

जखन चारि बजे हम कालेजसॅं ऎलहुँ त देखैत छी जे चारू भोजन- मल्ल घामसॅं तरबतर भेल, मेघनाद-कुम्भकर्ण जकाँ बाजी लगा फोंफ काटि रहल छथि। सम्पूर्ण घर छिन्न-भिन्न अवस्थामे देखि पड़ल। ड्राइंगरूममे मैल नूआ पसरल, आराम कुर्सीपर गजेन्द्रनाथक फाटल गंजी सुखाइत। लिखा-पढीबला टेबुलपर ब्रजेन्द्रनाथक पितरिया लोटा। टाइपराइटर पर भीमेन्द्रनाथक पनही। आलमारीक सभ पुस्तक उकटल जकाँ बूझि पड़ल। उपरो गेलहुँ तॅं यैह दशा। वस्तु-मात्र गजपट भेल। कमोड पर्यन्त खुजल। ओहिमे देखैत छी त थोड़ेक खटमिटठी राखल अछि!

रातुक उजगीक कारणॆ किछु ठेही जकाँ बूझि पड़ैत छल। तैं हम चुपचाप पड़ि रहलहुँ। जखन थोड़ेक काल पर नीचाँ उतरलहुँ त पाहुन ढेकरैत बजलाह- ईह! आइ अजीर्ण भोजन भेलैक। हें-हें-हें-हें! एना त सासुरो मे नहि खैने छलहुँ। माछ त अपूर्वे बनल छल। ब्रजेन्द्रनाथ कैं किछु वेशी खैना गेलैन्ह से अक्कसक्क छथि।

ई कहि पाहुन पुनः ढेकार कय पेटपर हाथ फेरैत मंत्र पढय लगलाह- आतापी भक्षितो येन वातापी च महाबलः। समुद्रः शोषितॊ येन स मेऽगस्त्यः प्रसीदतु॥....हॅं, ऊपर अपनेक हेतु थोड़ेक खटमिट्ठी राखि ऎलहुँ अछि। कहलहुँ जे खाली हाथ परफेश्वर बाबूक ओहिठाम कोना जायब? ई खटमिट्ठी बज्रेन्द्रक माय अपनहि हाथसॅं बनौने छथि।

तावत गजेन्द्रनाथ कहय ऎलथिन्ह जे ब्रजेन्द्र कैं रद्द भऽ रहलैन्ह अछि।

नीचा कोठरी मे जा कऽ देखैत छी त ब्रजेन्द्रनाथ सफरीपर बैसल अखबारक फाइलपर बोकरि रहल छथि। ई देखि गजेन्द्रनाथ हुनक पीठ ससारक हेतु बैसय लगलथिन्ह, किन्तु हुनक भार पड़ैत देरी सफरी चर्र दऽ बीचे सॅं फाटि गेल और दुहू पित्ती-भातिज पृथ्वीपर आबि गेलाह। तावत दिगम्बरनाथ एम्हर-ओम्हर ताकि हमर टेनिसबला रैकेट उतारि लेलन्हि और वमनयुक्त कागज ओहि पर उठा कऽ बाहर सीढी पर फेंकि ऎलाह।

हम देखल जे सम्पूर्ण मकान और सामान पर पाहुन लोकनिक तेहन स्वयंसिद्ध अधिकार जमि गेल छैन्ह जे प्रतिवादक चेष्टा करब व्यर्थ थिक। अगत्या चुपचाप लौन दिशि टहलय विदा भऽ गेलहुँ।

एक-डेढ घंटाक उपरान्त जखन फिरलहुँ त पाहुन बजलाह- गजेन्द्रक देह किछु गर्म लगैत छैन्ह। हिनका 'थर्मामोटर' मङा दिऔन्ह।

गजेन्द्रनाथ कैं थर्मामीटर लगाएब हेतु देल गैलैन्ह। किन्तु ओ ततेक जोरसॅं काँख दबौलन्हि जे सीसा फूटि कऽ पारा छिटकि गेलैक। पाहुन बजलाह-परफेश्वर बाबू, थर्मामोटर त फूटि गेल। ई कच्चा शीशा छल की?

होस्टलक बढिया थर्मामीटर। हम की बाजू? तावत पाहुन कहय लगलाह- ज्वर नहि छैन्ह। कनेक हरारति छैन्ह। राति मे दूध साबुजदाना खैताह। हम त जे भानस हैतैक ताहीमे भोजन करब, केवल दिगम्बरनाथ फेर रातिओ मे छनुए खैताह। और बज्रेन्द्र कैं वमन भेल छलैन्ह, एखन किछु फले-फलाहार कऽ लेथि से हमर विचार। की हौ बज्रेन्द्र!

ई कहि पाहुन डाँड़सॅं चाकू बाहर कैलन्हि और टेबुलपर जे शोभाक हेतु माटिक रंगीन सेव राखल छलैक से उठा ब्रजेन्द्रनाथ ओकरा दू फाँक कऽ देलन्हि।

पाहुन बजलाह- ई त नकली स्यौ अछि। हें-हें-हें-हें!असली स्यौ बजारसॅं मॅंगा दियौन्ह। और गजेन्द्रक हेतु साबुजदाना चाहिऎन्ह। की हौ गजेन्द्र। तीन पाव साबुजदानामे त भऽ जैतौह?

रातिमे पुनः हिनका लोकनिक भोजन-पथ्यादिक व्यवस्था करैत-करैत बारह बाजि गेल। जखन हम सूतय गेलहुँ तखन पाहुन कहलन्हि- हमरा लोकनि रतिगरे बिदा भऽ जाएब, परन्तु ओहि काल त अन्हार रहतैक और फाटक सेहो बंदे रहतैक। तैं हमरा लोकनिक जैबाक बन्दोबस्त होएबाक चाही।

हम कहलिऎन्ह-अहाँ लोकनि पछुआरक रास्ता दने चल जाएब। लालटेन और सलाइ लय लियऽ। ओहि समय लेसि कऽ काज चलाएब। और रामटहल कैं उठा देबैक जे फेर भीतरसॅं केबाड़ बंद कऽ लेत।

ई कहि हम हुनका लालटेन और सलाइ देखा देलिऎन्ह। परन्तु तथापि ओ ठाढे रहलाह। हम कहलिऎन्ह-और किछु चाही की?

पाहुन विचित्र प्रकारक भावभंगी देखबैत गोङिआइत बजलाह-हें-हें-हें-हें! हमरा लोकनि कैं हें-हें रुपैया-कैंचा किछु घटैत अछि। दिगम्बरनाथ कैं हम कहलिऎन्ह जे हौ, जखन परफेश्वरे बाबूक ओहि ठाम चलै छह त रुपैया-कैंचा ओ भला घटय देथुन्ह? हें-हें-हें-हें!

हमरा किछु तारतम्यमे पड़ल देखि ओ बजलाह-हें-हें! अपने दिगम्बर बाबू कैं नहि चिन्हैत छिऎन्ह। ई किने से अपना गामक जेठरैयत थिकाह। साल मे नब्बे टाका लाट दाखिल करैत छथि। असामी सभ डरें धोती मे लघी करैत छैन्ह। गाम जा कऽ जयवारी करताह त सात मन चूड़ा-दही लगतैन्ह। एहि बेर क्षेत्रक मेलामे हाथी कीनय औताह। तखन अपनेक टाका अवश्य नेने औताह।

हम किछु सशंकित होइत पुछलिऎन्ह-की? कतबा घटैत छैन्ह?

पाहुन उत्तर देलन्हि-हें-हें-हें-हें! पिण्डदानमे त खर्चक कोनो संख्ये नहि। जतबा लगा सकी। तखन पचास टा टाका एखन दय देल जाउन्ह जे तत्काल कार्य चलतैन्ह। ओतय गेला उत्तर बूझल जैतैक। यदि पंडाक पैरपुजाइ मे किछु घटतैन्ह त ओहिठाम मुंसिफ साहेबसॅं देया देबैन्ह। एक सै,दू सै, जतेक चाहताह। ओ अपन सरोकारी व्यक्ति छथि। जे कहबैन्ह, से देबहि पड़तैन्ह। ई कि कोनो बात छैक? हें-हें-हें-हें!

हम पाँच टा दसटकही नोट बाहर कय हुनका हाथमे देलिऎन्ह। पाहुन डाँड़मे खोंसैत बजलाह- ई टाका अपने कैं कार्त्तिकी पूर्णिमा धरि अवश्य भेटि जायत। जखन ई हाथी लेबाक हेतु सोनपुर औताह त पहिने बाँकेपुर आबि अपनेक रुपैया दऽ जैताह। की औ दिगम्बर बाबू! पहिने हिनके टाका दऽ देबैन्ह। अवश्य, अवश्य। पाछाँ कऽ हाथी मे कतेक लागत तकर कोन ठेकान? हें-हें-हें-हें! बेश, त अपने आब सूतू। गयाजीसॅं फीरब त अपनेसॅं भेट करैत जाएब। आब कि हमरा लोकनि अपने कैं छोड़ब? हॅं, एक बेर हमरो ओहिठाम जे किने से अपने कैं कृपा करय पड़त। बज्रेन्द्रक माय शपथ दऽ कऽ कहने छथि। यदि अग्रहणमे ऎबाक कष्ट करी त हम अपनेक वास्ते कनकजीरक नवका चूड़ा कुटबा कऽ रखने रही। हमरा लोकनि त गरीब छी। की सेवा करब? परन्तु गरीबो कैं त देखहि बूझय। बेश, आब अपने सूतूगऽ।

एवं प्रकार उचिती-मिनती कैलाक अनन्तर पाहुन लोकनि नीचाँ गेलाह।

भोर भेलापर जखन नींद टूटल त पछुआड़क केबाड़ ओहिना फूजल देखलिऎक। नीचाँ जा कऽ देखैत छी त पाहुन लोकनि अपन बोरिया- बधना तथा बड़का शतरंजी सहित, दक्षिणा मे लालटेन और सलाइ नेने, प्रस्थान कऽ गेल छथि! कामनरूमक बड़का शतरंजीक दाम हमरा अपना दिशि सॅं दाखिल करय पड़ल।

पाछाँ कऽ भनसीयासॅं ज्ञात भेल जे पाहुन ओकरोसॅं पाँच टाका ई कहि कऽ पैंच लऽ लेलथिन्ह जे शुपरडंट बाबू हमर खदुका छथि। गयाजीसॅं अबैत छी त हुनका सॅं वसूल कय अहाँ कैं दय देब!

आइ सात वर्षसॅं ऊपर भेल। तहिया सॅं पुनः कहियो ओहि पाहुन लोकनिक दर्शन नहि भेल। केवल एकमात्र स्मारक हुनका लोकनिक रहि गेल अछि जे धोखासॅं हमरे ओहिठाम छूटि गेलैन्ह। ओ थिकैन्ह भीमेन्द्रनाथक चिप्पी लागल पनही। भरतजीक खड़ाम जकाँ यैह मात्र आश्वासन हमरा हेतु छोङि गेल छथि।

तहियाँ सॅं जॅं कोनो पाहुन देवताक नाम सुनैत छिऎन्ह त पहिने मनहिमन ई स्तोत्र पढि प्रणाम कऽ लैत छिऎन्ह-

          अनिवार्य! अनाहूत! अचिकित्स्य! अनिश्चित!
          अव्ययोऽपि महाभाग धन्योऽसि विकटातिथिः॥