लेखक : हरिमोहन झा

जखन पं० जी कैं निमंत्रण-पत्र भेटलैन्ह त आङन मे पंडिताइन कैं कहलथिन्ह - एहि कागतक अर्थ छैक केहुनिया खाजा, डेढ़सेरा मुङवा..........

पंडिताइन मुँह ताकय लगलथिन्ह ।

पंडित जी बजलाह - मधुवन डेउढ़ी मे उअपनयन छैक । कुमरम सॅं रातिम पर्यन्त पंडित लोकनिक डेरा रहतैन्ह । चारु दिन बिखजीक मधुर आओत । विद्यार्थी-खबास जोड़ि कऽ उपाति भेटत । ओ सभ कथी मे कऽ आनब ? बड़का पेटी अजबारु ।

पंडिताइन चिन्तित होइत बजलीह - बड़का पेटी त दढ़ नहि नहि अछि । कब्जा भङठल छैक ।

पं० जी कहलथिन्ह - कोनो चिन्ता नहि । पाढ़ि लऽ कऽ बान्हि दिऔक । ताला-कुंजी हमरा ठीक सॅं लगाबहु नहि अबैत अछि । खुलता रहत त अपने हाथ सॅं धरब उसारब । ओना ताला फोलक हेतु बारंबार विद्यार्थीक काज पड़ैत ।

पुनः स्त्रीक पेओन लागल साड़ी देखि बजलाह - आब ई साड़ी पनिभरनी कैं दऽ देबैक । विदाइ मे एक थान मलमल भेटवे करत । ताहि मे सँ चादर हम अपना लेल काढि बाँकी अहाँ कैं दऽ देव । आव अहाँक भाग्य सँ ओहि मे जै टा साड़ी बहराय ।

पंडिताइन प्रसन्न होइत पुछलथिन्ह - कहिया जैबैक?

पं. जी बजलाह - आव दिन कहाँ छैक? परसू कुमरम । काल्हि सन्ध्याकाल धरि ओहिठाम पहुँचि जैबाक चाही। अजुके उषा मे यात्रा करक हैत।

पंडिताइन पुछलथिन्ह- विद्यार्थी खबास मे ककरा नेने जयबैक?

पं. जी कहलथिन्ह- विद्यार्थी मे छकौड़ीलाल बेश होशियार अछि। ओकरा टिकटो कटाबय अबैत छैक। लालटेनो लेसय जनैत अछि। और खबास मे ठिठरा कैं बजा पठबैत छिऎक। ओ रहत त भरिगर पेटी उठा सकत। केवल एके टा आपत्ति ओकरा मे छैक जे खाधुर बेशी अछि। किन्तु ओहिठाम कि कोनो हमरा अपना दिशि सॅं डाँड़ लागत?

तावत छकौड़ीलाल दोकान सॅं फिरल ऎलाह। कहलथिन्ह- गुरुजी, चीनी त उधार नहि देलक। पछिला र्कैंचा मङैत अछि।

पं. जी कहलथिन्ह- सार राखौ अपन चीनी। ओही लऽ कऽ अपन तेरहाक श्राद्ध करौ। आब त मधुरक खानिए मे जा रहल छी। ओ एक चुटकी चीनी तौलि कऽ पुड़िया मे दीत। और ओहिठाम त आँजुरक आँजुर चीनी.....

छकौड़ीलालक जी चटपटाय लगलैन्ह । पुछलथिन्ह - कतहु सँ नेओक आएल छैक की?

पं. जी कहलथिन्ह - हँ । साधारण स्थान सँ नहि । रजवाड़ा सँ । कतेक भोज खैबह? जाह, ठिठरा कैं बजा लबहौक ।

छकौड़ीलाल नचैत विदा भेलाह ।

पं. जी अपन स्त्री कैं कहलन्हि - ऎखन सँ चीज - वस्तु सरियाबय लागि जाउ । नहि त हड़बड़ी मे कोनो वस्तु छुटि जाएत ।

पंडिताइन क्रमशः सभ वस्तु जुटावय लगलीह । पाग, डोपटा , चपकन, बटुआ, पूजाक झोरी, आसन, खड़ाम, लोटा-डोरी आदि समस्त प्रयोजनीय वस्तु एकत्र कैला उत्तर पं. जी कैं पुछलथिन्ह - देखियौ त किछु छुटलैक त नहि?

पं. जी सभ वस्तु तजवीज करैत बजलाह - असले वस्तु छूटि गेल । नोसि कतय अछि?

पंडिताइन दौड़ि कऽ नसिदानी लऽ ऎलीह ।

पं. जी एक चुटकी नोसि नाकक पूड़ा मे दैत बजलाह - यैह त शास्त्रार्थ मे टेक राखत । हँ, एकटा और वस्तु छूटि गेल । सभ सँ मुख्य वस्तु । बुझू त की?

पंडिताइन कहलथिन्ह - हमरा ध्यान मे त नहि अबैत अछि ।

पं. जी अहाँक ध्यान मे आओत कोना? भरि जन्म त पटुआक झोर - भात खाइत - खाइत दिन बीतल । जीवन मे कहियो मिष्टान्न सँ इच्छापूर्ण भोजन भेल रहैत तखन ने! जाउ, कंतोर मे सँ भोजन - भस्म चूर्ण नेने आउ ।

डॆउढी पहुँचला उत्तर पं. जीक डेरा पुरनका फीलखाना मे पड़लैन्ह । ओहि मे तीन टा पंडित और रहथि । वैदिकजी, मीमांसकजी और नैयायिकजी ।

जखन पं. जी पहुँचलाह तखन मीमांसक ओ नैयायिक मे शास्त्रर्थ छिड़ल रहैन्ह । मीमांसकक पक्ष रहैन्ह जे कर्मक फल स्वतः भेटैत छैक । नैयायिकक कथ्य रहैन्ह जे नहि, कर्मक फलदाता ईश्वर थिकाह । एहिपर घोर विवाद चलि रहल छ्ल ।

शास्त्रार्थक गन्ध लगैत देरी पं. जी ओहिठाम जा पहुचलाह । ई पहुँचितहि अपन वेदान्तक मत - प्रतिपादन करय लगलाह - सर्वं मिथ्या (सभ किछु मिथ्या थिक )।

नैयायिक तर्क करैत कहलथिन्ह - सभ किछु मिथ्या थिक त अहूँ मिथ्या, अहाँ जे कहैत छी सेहो मिथ्या ।

वेदान्तजी बजलाह - हम अहाँ दुनू गोटा मिथ्या । जे किछु कर्म हमरा लोकनि करैत छी से सभ मिथ्या थिक ।

ई सुनितहि मीमांसकक कान ठाढ भऽ गेलैन्ह । बजलाह - जखन सभ कर्म मिथ्या थिक तखन धर्म और अधर्म मे भेद की रहल?

पं. जी वीरासन लगा बजलाह - धर्म - अधर्मक केवल व्यवहारिक सत्ता छैक । पारमार्थिक दृष्टि सॅं केवल ब्रह्म मात्र सत्य थिकाह । ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या । सम्पूर्ण संसार प्रपंच मात्र थिक ।

आब वेदान्तीजी कैं नैयायिक ओ मिमांसक, दुहू गोटा सॅं बजरि गेलैन्ह ।

मिमांसक पुछलथिन्ह - का नाम व्यावहारिक सत्ता (ब्यावहारिक सत्ता ककरा कहैत छिऎक) ?

नैयायिक पूछि बैसलथिन्ह - ब्रह्मणः किं लक्षणम् (ब्रह्मक लक्षण की) ?

छकौड़ीलाल कैं भय होमय लगलैन्ह जे आब कदाचित अपन गुरुजी परास्त नहि भऽ जाथि ।

वेदान्तीजी पहिने अपना नाकक दुनू पूड़ा मे भरिगरहा चुटकी नोसि कोचलन्हि । तदुपरान्त प्रश्नक उत्तर करबाक हेतु खखसि कऽ सन्नद्ध भेलाह । ताबत व्यावहारिक सत्ता स्वयं साकार रुप मे पहुँचि गेलैन्ह । चारि चॅंगेरा मधुर जलपानक हेतु आबि गेल । समस्त पंडित-विद्यार्थी ओहि दिशि साकाक्ष भय गेलाह । आब निराकर ब्रह्मक सत्त कैं देखैत अछि ? सत्य-मिथ्या लऽ कऽ जे शास्त्रार्थ उठल छल से मधुरेण समापयेत् भऽ गेल ।

पं० जी विद्यार्थी ओ खबास कैं जल लाबक हेतु इनार पर पठौलथिन्ह और अपने कोठरी मे आबि चॅंगेराक उपर सॅं पात हटौलन्हि । हृदय गद्-गद् भऽ उठलैन्ह । पाँच प्रकारक मधुर । अमिरती, बालूसाही, लवंगलता, गुलाबजामुन और मेहीदानाक लड्डू । प्रत्येक पाँच-पाँच टा । तकरा नीचा तीन गैंट सोहारी । तर मे आलू, भाँटा, सीम और ओलक अँचार । एक बासन मे दही । एक बासन मे चीनी ।

पं० जी पेटी फोलि कऽ सभटा मधुर अँचार ओ चीनी ओहि मे धऽ रखलन्हि । तखन ओकरा पाढ़ि सॅं नीक जकाँ बान्हि देलथिन्ह । केवल सोहारी तथा दहीक बासन आगाँ मे लऽ कऽ बैसलाह । ताबत विद्यार्थी-खबास जल लऽ कऽ पहुँचि गेलन्हि ।

पं० जी अपना खैबा योग्य मोलायम-मोलायम सोहारी बीछि का पात पर धैलन्हि और ऊपर सॅं छल्हिगर दही काछि कऽ लऽ लेलन्हि । शेष विद्यार्थी-खबासक हेतु छोड़ि देलथिन्ह ।

इच्छा भेलैन्ह जे कोनो मधुरो लितहुँ त नीक होइत । परन्तु मन कैं रोकलन्हि - 'नहि, यदि अपने लेब तखन सभ कैं देबय पड़त । ताहि सॅं बरु चीनिए लऽ ली ।' परन्तु सेहो जी नहि सहलैन्ह । एही ठाम खा लेब त गाम पर की नेने जायब ? और ओहि ठाम त बिनु कैंचे देत नहि ।

आगत्या पं० जी सोहारिए-दही पर नैवेद्य काढ़लन्हि । दु-चारि कौर खैलापर जीभ चटपटाय लगलैन्ह जे कोनो अँचार खैतहुँ । परन्तु कोन अँचार बाहर कैल जाय ? सभ त लैये जैबा योग्य अछि । कोनो दूरि होमय बला नहि । तृष्णा भेलैन्ह जे कनेक सिमवला चाखी । परन्तु सदसद्विवेचिनी बुद्धि परामर्श देलकैन्ह - 'विद्यार्थी कैं एखन पेटी फोलय कहिऎन्ह से उचित नहि । और सीमक अँचार हम अपने खायब त छकौड़ीलाल सेहो खैताह, ठिठरो खायत । सभटा एही ठाम सठि जायत । तखन गाम की जायत ?

परन्तु किछु चटकारो त भेल चाहय । नहि त घोटायत कोना ? पं० जी ठिठरा कैं कहलथिन्ह - 'जो भंडारघर सॅं नोन-मरचाइ मङने आ । देखिहें, तीन टा हरियर मरचाइ नेने अबिहें ।' विद्यार्थी कैं मधुर अँचार देखल रहैन्ह । किन्तु मङबाक साहस नहि भेलैन्ह ।

ओहो पैर धो क ऽ चुपचाप दही - सोहारी सानय लगलाह ।

जखन ठिठरा मरचाइ लऽ कऽ पहुँचल तखन पं. जी बजलाह - वाह! दहीक संग हरियर मरचाइक योग भऽ जाय तखन और की चाही? हाँ, तोंहू अपन हिस्सा लऽ जो। गाम पर रहितैं त मरुआक रोटी खइतैं । एहन मोमदार सोहारी कतय भेटितौक? आइ तोंहू भरि पेट घिबही सोहारी खा कऽ जन्म सार्थक कऽ ले ।

पं. जी सूति कय विद्यार्थी सँ थकनी दूर कराबय लगलाह । परन्तु दुइए - चारि चोट मे लोहछि उठलाह । छकौङलाल कैं डँटैत कहलथिन्ह तों मुक्की लगबैत छ्ह कि मुक्का?हरमुंठ जकाँ चोट लगा देलक । आइ कथिक कोह सधबैक छह?

एतबहि मे भोजनक हेतु एक चॅंगेरा उपाति भंडारघर सॅं पहुँचि गेलैन्ह। पं. जी हड़बड़ा कऽ उठलाह। छकौड़ीलाल कैं कहलथिन्ह-लालटेन तेज करह।

पुनः विद्यार्थी कैं ओहिठाम सॅं साहक हेतु बजलाह- जाह, ठिठरा कैं लऽ जा कऽ भंडार घर सॅं थोड़ेक कडूक तेल देया दहौ गऽ जे राति मे मालिश करत।

विद्यार्थी-खबासक गेला पर पं. जी एकान्त मे भोज्य पदार्थक निरिक्षण करय लगलाह। ओकरा दू वर्ग मे विभक्त कैलन्हि-रक्षणीय ओ भक्षणीय। प्रथम कोटिक वस्तु अदौरी, दनौरी, तिलौरी, पापर, घृत, मसाला पेटीक मध्य स्थान पौलक। द्वितीय कोटिक वस्तु चाउर, दालि, नोन, तेल, आलू, भाँटा, चङेरा मे रहल। परन्तु मेंही कनकजीरक दाना देखि पं. जीक जी कचटय लगलैन्ह- एहन बढियाँ गमकौआ चाउर गाम पर कहाँ भेटत? ई खीर बनैबा योग्य अछि।

ई विचारि पं. जी ओकरो पेटिए मे राखि लेलन्हि। तावत विद्यार्थी-खबास पहुँचि गेलथिन्ह।

पं. जी बजलाह- हौ, सीधा दऽ गेल अछि। किन्तु एखन त भानस करबाक प्रयोजने नहि। की रौ ठिठरा? भूख त नहिए हैतौक?

परन्तु ठिठरा सोच मे पड़यवाला व्यक्ति नहि छल। कहलकैन्ह- मालिक! भूख किऎक नहि रहत? राति बड़की टा होइत छैक। चारि टा फुलकी सॅं हमरा सभ कैं की हैत? ओ त कखन ने पेट मे बिला गेल!

पं. जी कैं पश्चात्ताप होमय लगलैन्ह जे किऎक एहन व्यक्ति कैं नेने ऎलहुँ। विद्यार्थी कैं पुछलथिन्ह- की हौ, छकौड़ीलाल, तों अपन हाल कहह।

छकौड़ीलाल बजलाह- जखन सभ सामग्री प्रस्तुत छैक तखन हमरा भानस करबा मे की लागत? ठिठरा आँच पजारौ गऽ। होइत कि देरी लगतैक?

विद्यार्थीक एहि तत्परता सॅं गुरु कैं प्रसन्नता नहि भेलैन्ह। मनहि मन खिसिया कऽ बजलाह- बेश, तखन भानस करह गऽ। किन्तु अरबा चाउर दऽ गेल अछि से त हमरा पचत नहि, कोनो दोकान सॅं उसिना चाउर लऽ आबह।

ई कहि पं. जी एक टा दुअन्नी ठिठराक आगाँ फेंकि देलथिन्ह।

ठिठरा बाजल- मालिक, एहि राति कऽ दोकान कहाँ खोजने भेल फिरबैक? पं. जीक क्रोधाग्नि मे घृत पड़ि गेलैन्ह। डाँटि कऽ कहलथिन्ह- नमकहराम! एही खातिर तोरा हम एतय अनलियौक? बात बनबैत छैं? चल, हम अपने दोकान देखा दैत छिऔक गऽ।

ई कहि पं जी ठाढ होमय लगलाह किन्ताबत वैदिकजी पहुँचि गेलथिन्ह। पं. जी सिटपिटा गेलाह। छकौड़ीलाल कैं कहलथिन्ह- जाह। ठिठरा कैं तोंही लऽ जाहौक। बुझलह कि ने?

वैदिकजी पुछलथिन्ह- कतय लऽ जा रहल छथिन्ह?

पं. जी असली बात छपबैत बजलाह- की कहू? ई खबास महा अनभुआर अछि। किछु गमल-बुझल नहि छैक। निकासो देखाबक हेतु विद्यार्थी कैं संग लगाबय पड़ैत अछि।

ई कहि पं. जी बलहॅंसी हॅंसय लगलाह। किन्तु मन मे भयो होमय लगलैन्ह जे कदाचित वैदिकजी एहीठाम बैसल रहि गेलाह त थोड़बे काल मे रहस्योद्घाटन भऽ जाएत। हिनका कोनो तरहें एहिठाम सॅं टारक चाही।

ई विचारि पं. जी कहलथिन्ह- हम त अपनहीक ओहिठाम जाय लेल छलहुँ। बल्कि ओहिठाम चलबे करै छी। अपनेक डेरो देखि लेब।

ई कहैत पं. जी उठि विदा भेलाह और कोठरीक जिंजीर बाहर सॅं बंद कय वैदिकजीक पाछाँ चललाह।

वैदिकजीक कोठरी मे पहुँचि पं. जीक आँखि चौन्हिया गेलैन्ह। एक बड़का परात मे रंग-विरंगक मनोहर मधुर ओ मोरब्बा, सोना-चानीक बरक लपेटल, गमगम करैत।

पं. जीक मुँह विवर्ण भऽ गेलैन्ह। वैदिकजी हुनक मनोभाव बूझि कहलथिन्ह- हमरा आइ एकादशी अछि। तैं ई सभ फलाहारी वस्तु आएल अछि।

पं. जी विषादपूर्वक बजलाह- वाह! फलाहारक त एहिठाम अपूर्व विन्यास देखैत छी।

वैदिकजी कहलथिन्ह-हॅं, फलाहारी लोकनिक हेतु एहिठाम विशेष रूप सॅं प्रबन्ध कैल गेल अछि, बनारसक सभ सॅं नामी कारीगर मॅंगाओल गेल अछि। ई सभ वस्तु ओकरे बनाओल छैक। वैदिकजी नमूनाक तौरपर किछु वस्तुक परिचय देबय लगलथिन्ह- ई उजरका 'कलाकन्द' छैक। ओ पियरका नारंगीक बर्फी, ई हरियरका परोरक मिठाइ। ओ ललका मलाइक मालपुआ। ई जे रस सॅं भरल देखैत छिऎक से 'रसमाधुरी' कहबैत छैक।

ई कहैत वैदिकजी एकटा रसमाधुरी हाथ मे उठौलन्हि। केवड़ाक खुशबू सॅं पं. जीक मिजाज भरि गेलैन्ह। बजलाह- रहऽ दिऔक। ओहि पंथिया मे की छैक?

वैदिकजी झॅंपना हटबैत कहलथिन्ह- ई विखजीक हेतु आएल छल।

एक कात बादम, अखरोट, पिस्ता, किशमिश ओ अपजोश। दोसरा दिशि नाशपाती, सेब, अनार, नारंगी ओ अंगूर।

पं. जीक आँखि नहि ठहरि सकलैन्ह। बजलाह- झाँपि दिऔक।

वैदिकजी मोरब्बा देखबैत कहलथिन्ह- एहि मे प्रत्येक वस्तु अपूर्व बनौने अछि। ई अजनासक मोरब्बा थिकैक। और ई थिक कुसियारक मोरब्बा। सम्पूर्ण गुल्ली रसगुल्ला जकाँ घोंटा जाएत। एको रत्ती सिट्ठी नहि बहराएत।

पं. जी ऊपरक मन सॅं हॅंसैत बजलाह- वाह! आश्चर्य कैने अछि।

वैदिकजी और अधिक उत्साहित भय देखाबय लगलथिन्ह- देखल जाओ, एहि माटिक वरुका मे गरीक खीर थिकैक। ओहि बरुका मे किशमिशक हलुआ। एहि बरुका मे पिस्ताक मोहनभोग। ओहि वरुका मे केसरिया राबड़ी......

पं. जी और बेशी नहि सुनि सकलाह। बजलाह- वेश, त आब हमरा आज्ञा भेटौ। एखन अपने कैं फलाहार मे विलम्ब भऽ जाएत। ओहि कात मे एकटा और चङेरा देखैत छिऎक?

वैदिकजी किछु सिटपिटाइत बजलाह- हॅं। ओहि मे सोहारी-मधुर छैक। विद्यार्थी-खबासक हेतु।

डेरा पर आबि पं. जी हता कऽ पड़ि रहलाह। मन मे हूर मारय लगलैन्ह। हाय-हाय! पहिने बुझले नहि छल। वैदिक फलाहारक आडम्बर पसारि ओहन-ओहन बढिया भोग्य पदार्थ सभ मङबा लेलक। और हम ओहिना रहि गेलहुँ! वैदिकवा भारी चालाक अछि। विद्यार्थी-खबासक नाम पर सोहारी ओ मधुर मॅंगा लेलक अछि, से खाएत और नफा मे ओतेक वस्तु हाथ लागि गेलैक। हमरो बुझल रहैत त ओहिना करितहुँ । परन्तु आब त तीर हाथ सॅं छुटि गेल । वैदिकवाक चालाकी लहि गेलैक । हमही टुट्टी मे रहलहुँ ।

पं० जी एही गुनधुन मे मुँह झँपने पड़ल छलाह कि छकौड़ीलाल आबि कऽ सूचना देलथिन्ह - गुरुजी खिचड़ि तैयार भऽ गेल ।

पं० जी डपटैत कहलथिन्ह - दुर बुड़ि ! हमरा अपने माथ दुखाइत अछि । और ई शंखासुर जकाँ आबि कऽ निन्द तोड़ि देलन्हि । जा परसह गऽ ।

पं० जी तेहन जोर सॅं डपटलथिन्ह जे छकौड़ीलाल कैं घृत, पापड़ अँचार मँगवाक साहस नहि पड़लैन्ह !

पं० जी कैं सोचक मारे खा नहि भेलैन्ह । राति भरि पेट मे हर बहैत रहलैन्ह - कोन प्रकारें ओ मधुर-मोरब्बा सभ हाथ लागत ? यदि ओ सभ वस्तु गाम नहि लऽ जा सकलहुँ त एतय ऎबाक और पेटी अनबाक फले की ? आब कोन युक्ति लगाओल जाय ?

एही भावना मे पं०जी कैं निन्द नहि पड़लैन्ह। भोरे विद्यार्थी कैं कहलथिन्ह-जाह, भंडारी कैं कहौ गऽ जे आइ गुरुजी फलाहारे करताह। ठिठरा कैं नेने जाहौक। जे जे फलाहारक सामग्री होइक से सभ टा लय आबह। देखिहऽ, कोनो वस्तु छुटौह नहि। भोजन और बिखजी, दुहू नेने अबिहऽ। बल्कि तोंहू दुनू गोटा अपना खातिर फलाहारिए सामग्री नेने अबिहऽ।

छकौड़ीलाल कैं एहि आकस्मिक परिवर्तन रहस्य नहि बूझि पड़लैन्ह। ओ ठिठरा कैं संग लय विदा भेलाह।

एम्हर पं० जी आशान्वित भय पूजा पर बैसि गेलाह । भक्तिपूर्वक विष्णु सहस्रनाम पाठ करय लगलाह । किन्तु संगहिसंग मधुरो सभक नाम मन मे आबय लगलैन्ह - कलाकन्द एक, नारंगीक बर्फी दू, परोरक मिठाइ तीन, रसमाधुरी चारि ........

थोड़ेक काल मे सभ पंडितक हेतु बिखजीक सोहारी-मधुर पहुँचि गेलैन्ह । परन्तु अपना पंडितक ओहि ठाम नहि ऎलैन्ह । पं० जी मधुर कल्पना सॅं आनन्दित भऽ उठलाह - विद्यार्थीक पठौनाइ काज कैलक । तैं सर्वसाधारण वला चँगेरा नहि आएल अछि । विशेष वस्तु सभ पठेबा मे त समय लगबे करतैक । जतेक बिलम्ब हो, ततेक अधिक लाभ ।

ई विचारि पं० जी पुनः पाठ मे मन लगौलन्हि । अन्ततः सहस्रो नाम समाप्त भऽ गेलैन्ह । तथापि नामक फल-प्राप्ति नहि भेलैन्ह । देखैत-देखैत एगारह सॅं बारह और बारह सॅं एक बाजि गेल ।

क्रमशः पं० जीक उद्वेग बढय लगलैन्ह । ओ चित्तवृत्तिक निरोध करबाक हेतु योगवशिष्ठ लऽ कऽ बैसि गेलाह । किन्तु कतबो यत्न कैला उत्तर मन कैं एकाग्र नहि सकलाह । चंचल चित्त कौखन मलाइक मालपुआ पर दौड़ि जाइन्ह, कौखन केसरिया रावड़ी पर । आखिर नहिए रहि भेलैन्ह । पं० जी योगवशिष्ठ कैं बन्द कय उद्विग्न चित्त सॅं खड़ाम पर टहलय लगलाह ।

ताबत विद्यार्थी ओ खबास अबैत दृष्टिगोचर भेलथिन्ह । ठिठराक माथ पर चँगेरा, हाथ मे पथिया । विद्यार्थीक हाथ मे एक-एक टा कोहा ।

आब पं० जीक तर्कशास्त्र लागल - 'पथियाक अर्थ मेवा ओ फल । चॅंगेराक अर्थ मधुर ओ मोरब्बा । एक कोहाक अर्थ गरीक खीर । एक कोहाक अर्थ केसरिया राबड़ी । तीनू गोटाक अंश बरुका मे नहि अटलैक, तैं कोहे मे भरि देलकैक । भंडारी होसियार अछि । आब वैदिकजी बुझथु । बड़े गजैत छलाह । आब हुनका सॅं बर हमरा आबि गेल ।'

पं० जी आश्वस्त भय पुनः पूजा पर आबि बैसलाह और आँखि मुनि जप करय लगलाह । एहन सन क्रम जे 'हमरा कोनो अपेक्षा नहि छल । बर्नी लऽ एलाह त एक कात राखह ।'

विद्यार्थी ओ खबास कनेक काल प्रतिक्षा कय पानि लाबक हेतु चलि गेलाह । तखन पं० जी इष्टदेवता कैं प्रणाम कय आँखि फोललन्हि ।

आँखि फोलला उत्तर पं० जीक जे दशा भेलैन्ह तकर वर्णन नहि भऽ सकैत अछि । पथिया मे केरा ! चॅंगेरा मे कुम्हड़ ! एक कोहा मे दही, एक कोहा मे चीनी । समस्त न्यायशास्त्रक अनुमान खण्डित भऽ गेलैन्ह ।

ताबत छकौड़ीलाल पानि नेने पहुँचलाह । बजलाह गुरुजी !

पं० जी बुमकार छोड़ैत कहलथिन्ह - आ दुर बूड़ि ।'गुरुजी' 'गुरुजी' करय ऎलाह अछि !

विद्यार्थी - कनेक सुनि लेल जाओ ।

पं० जी - कपार सुनि लेल जाओ । गदहा नहितन । एक भिनसर गेलाह से नेने बेर डुबा देलन्हि । ओतय जा कऽ भंडारीक नाङड़ि मे सट्टल छलाह । और नेने की एलाह त काँच कुम्हड़ ! कप्पार पर राखह ।

पं ० जी क्रोधान्ध भय ततेक जोर सॅं कुम्हड़ कैं उठा कऽ पटकलैन्हि जे ओ फच्च दऽ फूटि गेल । छकौड़ीलाल मुँह बौने ठाढ़ रहलाह । पं० जी हुनका फज्झतिक तर करैत कहलथिन्ह - मुँह ने देखिऔन्ह चुहार सन ! ई दुहू गोटे बुधियार बनि कऽ गेल छलाह । लैलाह की त केरा ! छुछुन्नर कहाँ कैं ! जेहने ई बेवकूफ तेहने ठिठरो गदहा । दुनू नकडुब्बा ।

ठिठरा अपन विशेषण सुनि फराके सॅं घसकि गेल ।

पं० जी आब भंडारी पर लगलाह - देखू त भंडारीक पजिपना । दिन भरि सहा कऽ जान लेलक और एखन पठबै अछि की त काँच कुम्हड़ ! खजांचीक सार बनल अछि । जाह फिरता कऽ अबहौक गऽ । ओ की बुझैत अछि ? हम एहि ठाम कुम्हड़ खाय ऎलहुँ अछि ? चलह, ऎखन एहिठाम सॅं विदा होअह ! हमर ई अपमान !

ई कहि पं० जी थर-थर कँपैत बिदा भेलाह ! हुनका शाप मे शक्ति रहितैन्ह त भंडारी कैं तत्क्षण भस्म कऽ दितथि ।

ताबत भंडारी कैं ज्ञात भेलैन्ह जे वेदान्तीजी रुष्ट भऽ कऽ पड़ायल जा रहल छथि । ओ भंडार बन्द कै पं० जी कैं मनैबाक हेतु ऎलाह । पुछलथिन्ह - की ? अपने भोजन कैल ?

पं० जी कहलथिन्ह - दुरजी ! भोजन की करब, कुम्हड़ ?

भंडारी - किऎक ? और फलाहारी वस्तु त पठौने छलहुँ ।

पं० जी - घास पठौने छलहुँ । वैदिकजीक खातिर खास तरहक फलाहार मधुर ओ मोरब्बा, और हमरा खातिर केरा-कुम्हड़ ? हम जाइ छिऎन्ह राजमाता सॅं इत्तलाय करय ।

भंडारी - कनेक सुनि लेल जाओ । काल्हि एकादशी रहैक । तैं खास कऽ फलाहारी मधुर-मोरब्बा बनबाओल गेल छलैक । फलाहारी लोकनि सॅं जे उबरलैक से रातिए कुटुम्ब-आत्मा कैं पठा देल गेलैन्ह । आइ फलाहारक कोनो इन्तजाम नहि तखन हम की पठबितहुँ ।

पं० जी - ओ बनारसी हलुअइया कहाँ गेल ?

भंडारी - ओ आइ भोरे सॅं सोहारी छनैत अछि । सभ डेरा पर सोहारी-मधुर गेलैक अछि । अपनहुँ कैं आयल रहैत । किन्तु वैह विद्यार्थी जा कऽ मना कऽ एलाह ।

पं० जी छकौड़ीलाल दिशि आग्नेय नेत्र सॅं तकैत बजलाह - ई त अथाहे छथि । छौ कौड़ी के कहय, एको कौड़ी मे महग छथि । भोरे जे गेलाह से नेने नेने दू प्रहर धरि...

भंडारी कहलथिन्ह - एहि मे हिनक दोष नहि छैन्ह । हम सोहारी मधुर बटवा मे बाझल रही । एको पलक अवकाश नहि भेल जे हिनका दऽ कऽ बिदा करतिऎन्ह । और दही - केरा छोड़ि कऽ देबे की करितिऎन्ह? जखन बारह बजेक बाद कनेक पलखति भेल तखन फलाहारी वस्तुक खोज मे गेलहुँ । काल्हि बनारसी हलुआइ जे मोरव्वा बनौने छल ताहि मे एकटा कुम्हड़ संयोगवश बाँचल छलैक । से लऽ कऽ देलिऎन्ह और कहलिऎन्ह जे 'एखन हलुआइ कैं त फुरसति नहि छैक । चीनी नेने जाउ, मोरव्वा बना लेव ।' आब कहल जाओ, हमर कोन ठाम दोष अछि?

पं. जी बजलाह - हिनका? हिनका जे मोरव्वा बनैबाक लूरि रहितैन्ह त ई हमरे संग रहितथि? हँ, खैवाक हेतु देल जाइन्ह त से धरि लूरि वेश छैन्ह । आव ई कुम्हड़ लऽ कऽ कहाँ धरि अपन माथ फोड़ैत रहताह? हम वाज ऎलहुँ एहन फलाहार सँ । जाउ, सोहारीए मधुर पठा दियऽगऽ ।

भंडारी दौड़ल गेलाह और पं. जीक खातिर बाजाप्ते सभ वस्तु पहुँचि गेलैन्ह । सोहारी, तरकारि, पँचमेल मधुर, अँचार, दही, चीनी । पर्याप्त रुप मे ।

पं. जीक क्रोधक पारा बहुत किछु नीचा उतरि ऎलैन्ह ।

ठिठरा कैं कहलथिन्ह - आब उद्य जकाँ तकै छैं की? ठाम कर ।

तावत एहन संयोग जे भीतर राजमाताक कान मे ई खवरि पहुँचि गेलैन्ह । ओ एक बड़का थार से सभ टा फलाहारी मधुर मोरव्वा साँठि कऽ पं. जी कैं पठा देलथिन्ह । पं. जी गदगद भऽ गेलाह ।

इच्छा भेलैन्ह जे कनेक - कनेक खोंटि कऽ सभ मे सँ चाखीं । परन्तु जी नहि सहलैन्ह । चखवाक लोभ कैं रखवाक लोभ पछाड़ि देलकैन्ह । पेट भरब सँ वेशी आवश्यक पेटी भरव छलैन्ह । से करीव तीन हीस भरि गेलैन्ह ।

पं. जी भोजन काल एतवा उदारता आइ अवश्य देखौलन्हि जे सोहारी दहीक संग अँचारो परसबाक आज्ञा देलथिन्ह, और मधुरक स्थान मे केरा ।

राति मे डेउढीक भीतर भोजन रहैक । पं. जी विद्यार्थी - खबास कैं शिक्षा देलथिन्ह - आइ जतेक जे खैबाक हो से खाइ जैहऽ । पाछाँँ कऽ ई नहि कहिहऽ जे मधुर सँँ अछौ नहि भेल । भुसहन पर बेशी जोर नहि करी । मुरहन सॅं पेट भरी ।

ओहि राति माछ-मांस ओ मधुरक कचरमकूट भऽ गेल । सेहो मुद्राक लोभ दऽ दऽ । पंचमकार थोड़ेके कसरि रहि गेल ।

पं० जीक उपदेश व्यर्थ नहि गेलैन्ह । किऎक त ठिठरा कैं डेरा पर अबैत-अबैत वमन होमय लगलैक और छकौड़ीलाल कैं पेट फूलि गेलैन्ह । पं० जी कैं भोजन-भस्म चूर्णक फक्की लेला उत्तर रद्द-दस्त जारी भऽ गेलैन्ह । भरि राति कान पर जनउ चढ़ले रहलैन्हि ।

भोर होइत-होइत गर्द पड़ि गेल जे वेदान्तीजी कैं हैजा भऽ गेलैन्ह । झुंडक झुंड व्यक्ति पं० जीक जिज्ञासा करक हेतु पहुँँचय लगलन्हि । वेदान्तीजी गीताक श्लोक पढ़ि-पढ़ि लोक कैं शरीरक निःसारता बुझाबय लगलथिन्ह -

           जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं  जन्म मृतस्य च ।
           *                        *                        *
           गतासूनगतासूंश्च   नानुशोचन्ति  पंडिताः   ॥
           *                        *                        *
          देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा  ।
          तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र   न    मुह्यति   ॥
          *                         *                         *

         वासांसि जीर्णानि यथा विहाय  नवानि गृह्णाति नरोपराणि ।
         तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
        

परन्तु वेदान्तीजी कैं मनहिमन चिन्तो होमय लगलैन्ह जे कदाचित एहि ठाम किछु भऽ गेल त पेटी गाम पर कोना पहुँँचत ?

लोकक गेला पर कुहरैत-कुहरैत विद्यार्थी कैं कहलथिन्ह - हौ छकौड़ीलाल, आइ हमरा दुखित जानि कऽ कतहु बिखजी नहि छोड़ि देवय । जाह अपने सॅं भंडार जा कऽ चॅंगेरा लेऔने आबह ।

विद्यार्थी कहलथिन्ह - गुरुजी, एखन अपने कैं छोड़ि कऽ हम कोना जा सकैत छी ?

पं० जी खिसिया कऽ बजलाह - बेश, तखन हम मरैत छी तों बचाबह ।

ई कहि पं० जी पेट फुला ऊर्ध्वश्वास छोड़य लगलाह । छकौड़ीलाल सभटा छक्का-पंजा बिसरि गेलैन्ह । बजलाह - बेश, हम जाइ छी ।

जखन विद्यार्थी प्रत्यागत भेलाह त पं० जी बेहोश रहथि । चॅंगेराक आहटि पाबि आँँखि फूजि गेलैन्ह । पकमानक गन्ध अर्ककपूर सॅं बेसी काज कैलकैन्ह । किऎक त ओहू हालति मे उठि बैसलाह । कहलथिन्ह - पेटी घुसका कऽ एम्हर लाबह ।

थोड़बे कालक बाद उपनयन प्रारम्भ भेलैक । निमंत्रित व्यक्ति सभ मंडप पर गेलाह । पं जी कुहरैत-कुअहरैत बजलाह - हौ छकौड़ीलाल, आब गोटा बटैबाक बेरि भऽ गेल हेतैक । जाह, हमर अंश लऽ आबह ।

एक घंटा पर विद्यार्थी मड़बा पर सॅं फिरलाह । पं० जी कुहरैत-कुहरैत पुछलथिन्ह - गनह त, कै गाही सुपारी छौह ?

विद्यार्थी गनि कऽ कहलथिन्ह - नौ गाही में एकटा घटैत अछि ।

पं० जी रुष्ट भय कहलथिन्ह - ठीक सॅं गनह । कम नहि हेतौह ।

विद्यार्थी पुनः गानि कऽ बजलाह - दू बीस चारि टा होइत अछि ।

पं० जी प्रसन्न भय बजलाह - हॅं , आब ठीक भेलौह । लाबह त देखिऔह केहन सुपारी छौह ?

पं० जी पाँँच-सात टा सुपारी छाँँटि कऽ कहलथिन्ह - तोरा बुड़िबक जानि कऽ ठकि लेलकौह । ई चारि टा सतीन टा सड़ल दऽ देलकौह । खखरी छौह । तों आँँखि मूनि कऽ उठौने ऎलाह । जाह ई सभ बदलि लाबह । नीक-नीक कतरा योग्य सुपारी लीहऽ ।

जैबाक दिन धरि पं. जीक पेटी नीक जकाँँ ऊपटाप कऽ भरि गेलैन्ह । बिदाइक धोती पर्यन्त नहि अटैन्ह । बहुत कसमस कऽ कोनहुना अटौलन्हि । तथापि पेटीक मुँँह किछु अलगले रहि गेलैन्ह । तखन चारि - पाँँच भत्ता पाढि लऽ कऽ ओकरा बन्हलन्हि । खूब कसि कऽ गिरह देलथिन्ह ।

थाना बिहरपुर स्टेशन पहुँँचला उत्तर पं. जी देखैत छथि जे भीड़ मे केओ ठीक ओही आकार -प्रकारक पेटी नेने पार भऽ रहल अछि । बजलाह - दौड़ह छ्कोड़ीलाल! पेटी नेने जाइ छौह ।

विद्यार्थी कहलथिन्ह - नहि, गुरुजी! पेटी ओकरे छैक ।

पं. जी तमसा कऽ बजलाह हौ बूड़ि! पाढि लऽ कऽ बान्हल नहि सुझैत छौह? ओ चोर थिक । दौड़ि कऽ पक़ड़ह । ओ गदहबा ( ठिठरा ) कहाँँ गेल?

ठिठरा आगाँँ बढि कऽ कहलकैन्ह - यैह त छी सरकार! पेटी त हमरा माथ पर अछि ।

पं. जी अपन पेटी देखलन्हि तखन विश्वास भेलैन्ह । तथापि मनक खुटखुटी नहि छुटलैन्ह । ओहि पेटिबलाक लग जा परिचय पुछलथिन्ह । ज्ञात भेलैन्ह जे ई वैद्य थिकाह । बस आब की थीक? पं. जी घुट्ठीसोहार मित्रता जोङब शुरु कैलन्हि। कहलथिन्ह - हमरा रातिए सँँ धुआइल ढेकार दऽ रहल अछि । कोनो पाचक हो, त बहार करु ।

वैद्यराज मिर्जइक जेबी सँँ अजीर्ण - नाशक वटी बाहर कैलन्हि ।

पं. जी बजलाह - वाह! खूब चटकार अछि। यात्रा नीक छल जे अहाँँक संग भऽ गेल ।

वैद्यराज - अहोभाग्य हमर जे अपनेक दर्शन भेल । अपने कतय जैबैक?

पं. जी - हम बेगूसराय उतरब । अहाँँ?

वैद्य - हम दलसिंहसराय उतरब ।

पं. जी - वाह! तखन तँँ सराय लऽ कऽ दुनू गोटा मे बादरायण सम्बन्ध भऽ गेल । किछु काल धरि त संग रहत ।

वैद्य - किछु काल किऎक? अपने दू बजे राति कऽ बेगूसराय पहुँँचब । ताबत धरि संग रहब ।

जखन ट्रेन ऎलैक त दुनू गोटा एके ठाम बैसलाह । कविराज कहलथिन्ह - अपनेक संगति सँँ लाभ उठाबक चाही । किछु वेदान्तक चर्चा कैल जाओ।

कोठरीक औरो यात्री सभ बाजि उठलाह-हॅं, हॅं, किछु ज्ञानक बात होऎ। हमहूँ सभ सुनब।

वेदान्तजीक उपदेश चलय लगलैन्ह- बुद्धिमान कैं चाही जे विषय मे आसक्त नहि होथि। यैह विषय सभ दुःखक मूल कारण थिक।

        ये हि संस्पर्शजाः भोगाः दुःखयोनय एव ते।
        आद्यन्तवन्तः कौन्तेयः ! न तेषु रमते बुधः॥
         

मन कैं रोकि कऽ अपन वश मे करक चाही।

        यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
        ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येतं वशं नयेत्॥
        

जाहि विषय पर चित्त दौड़य, ताहि दिशि सॅं ओकरा मोड़ि कऽ अपना अधीन राखक चाही। ज्ञानी के थिक?

        न प्रहृष्येत प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम्।
        स्थिरबुद्धिरसंमूढो  ब्रम्हविद्   ब्रम्हणि  स्थितः ॥
        

जे ने प्रिय वस्तु पाबि हर्षित हो, ने ओकरा अभाव मे उद्विग्न हो, सैह ज्ञानी थिक।

        समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
        शीतोष्णसुखदुःखेषु  समः  संगविवर्जितः॥
        तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
        अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः॥
        

शत्रु मे, मित्र मे, अपमान मे, जाड़ मे, गर्मी मे, सुख मे, दुःख मे, निन्दा मे, प्रशंसा मे, सभ मे एक समान रही।

          दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु  विगतस्पृहः ।
          वीतरागभयक्रोधः   स्थितधीर्मुनिरुच्यते  ॥
          

जकरा दुख मे उद्वेग नहि होइक, सुख मे आकांक्षा नहि होइक, जे भय क्रोध और इच्छा कैं जितने हो, सैह यथार्थ ज्ञानी थीक । धीर होइ, वीर होइ, जितेन्द्रिय होइ ।..... इत्यादि, इत्यादि ।

श्रोताक मंडली मे अधिकांश व्यक्ति उपदेशामृत पान करैत करैत औंघाय लागि गेलाह । तथापि वेदान्तीजीक धाराप्रवाह चलिते रहलैन्ह ।

वेदान्तीजीक उपदेश और चलितैन्ह । किन्तु ताबत वेगूसराय स्टेशन आबि गेल । पं० जी एकाएक आध्यात्मिक सॅं आधिभौतिक जगत मे आबि गेलाह । गर्द कैलन्हि- छकौड़ीलाल ! ठिठरा ! स्टेशन आबि गेलौह । उतरै जा ।

छकौड़ीलाल निसभेर सूतल छलाह और ठिठरा ठरड़ पारैत छल । पं० जीक बहुत गर्द कैला पर छकौड़ीलाल कुनमुनैलाह और आँखि मिड़ैत। ठिठरा कैं देह धऽ उठाबय लगलथिन्ह ।

ताबत एक झुण्ड बरियात ओहि कोठरी मे धाबा कऽ देलक । लोकक ताँता लागि गेल । पं० जी कैं उतरबाक बाट बन्द भऽ गेलैन्ह । ताबत गाड़ी फुजबाक घंटी पड़ि गेलैक । पं० जी आर्त्तनाद कैलन्हि - छकौड़ीलाल !

परन्तु ओहन भीड़-भड़क्का मे के सुनैत अछि ? कोठरी मे रोशनी नदारथ । अन्हार मे अपार जनसमूहक बीच छकौड़ीलाल ओ ठिठराक पता लागब असंभव । तावत गाड़ी चलय लागि गेल ।

पं० जी हतबुद्धि भऽ गेलाह । गीतावला स्थितधीक लक्षण बिसरि गेलाह ।

ताबत विद्यार्थी नीचा सॅं गर्द कैलथिन्ह - गुरुजी । उतरु ।

पं० जी प्रश्न कैलथिन्ह - पेटी ?

विद्यार्थी बजलाह - हॅं । उतरि गेल । यैह, ठिठराक माथ पर अछि ।

पं० जी चिचिया कऽ बजलाह - कोना कऽ हेठ होउ ?

वैद्यजी कहलथिन्ह - अपने हड़बड़ाउ नहि । हम खिड़की बाटें अपने कैं ससारि कऽ उतारि दैत छी ।

कोनो-कोनो तरहें पं० जी लटका कऽ उतारल गेलाह । ठिठराक माथ पर पेटी कैं सही सलामत देखि फक्क दऽ निसास छोड़लन्हि । बजलाह - हमरा त भरोस नहि छल जे तोरा लोकनि पेटी लऽ कऽ उतरि सकबह । अस्तु । एखन टहाटही इजोरिया छैक । ऎखन विदा भऽ गेने रतिगरे गाम पहुँचि जाएब । चलै चलह ।

भुरुकबा उगैत-उगैत पं० जी घर पहुँचि गेलाह । जाइत देरी गर्द कैलथिन्ह - कहाँ छी ऎ ? केबाड़ फोलू ।

पण्डिताइन धड़फड़ा कऽ उठलीह और केबाड़ फोलैत बजलीह - कतेक राति कऽ चललिऎक जे एतेक झोलफले पहुँचि गेलिऎक ?

पं० जी कहलथिन्ह - दिन मे अबितहुँ त सभ पेटिए तजबीज करैत अबैत । ताहि सॅं रातिए मे चल एलहुँ ।

पंडिताइन पुछलथिन्ह - से ओहि मे की छैक ?

पं० जी कहलथिन्ह - से त जखन फोलबैक तखन ने बुझबैक । ओ सभ वस्तु एहि जन्म मे देखनहुँ नहि होयब । सबेरे हाथ-मुँह धो कऽ तैयार भऽ जाउ ।

छकौड़ीलाल ठिठराक माथ पर सॅं पेटी उतारि कऽ नीचा धैलन्हि ।

पं० जी कहलथिन्ह - ई भानुमतीक पेटारी थीक । देखू ने कोन-कोन रंगक पदार्थ एहि सॅं बहराइत अछि ! अहाँ फोलि कऽ देखू । ता हम जलाश्रय सॅं भेने अबैत छी ।

ई कहि पं० जी जलपात्र लय पोखरि दिसि गेलाह ।

जखन पं० जी कुरुड़ आचमन कैलाक उपरान्त आङन ऎलाह त देखैत छथि जे पंडिताइन बिधुआइलि बैसलि छथि । पुछलथिन्ह - अहाँ एना गुम्म-सुम्म किऎक भेल छी ?

पंडिताइन बजलीह - अहाँक मोन जे रास गाउ ?

पं० जी बजलाह - अरे ? आइ झगड़ा ठनैत छी ? रंग-विरंगक मिष्टान्न सभ आएल अछि से देखब की रुसाफुल्ली करब ?

पंडिताइन मुँह फुलाय कय कहलथिन्ह - बेश, रहऽ दियऽ । हम ओहन छुछुआएल नहि छी जे मधुरक हेतु जी रकटल रहत ! गरीबक बेटी भेलहुँ त दुरि गेलहुँ ।

पं० जी बजलाह - आहि रौ बाप ! ई की ? अहाँ अबितहि झगड़ा बेसाहि लेलहुँ ? लाउ पेटी कहाँ अछि ?

पेटीक उपरका पट्टा अलगबैत देरी पं० जी आवाक रहि गेलाह । हे भगवान ! ई कोन इन्द्रजाल भेल ? सौंसे पेटी मे भरि कऽ हर्रे, बहेड़ा ओ अमलतास ! चोपचीनी ओ विदारी कंद !

पं० जी हाहि मारय लगलाह - ई निश्चय वैद्यवला पेटी थिक । ठिठरा सार डाका देलक । गदहबा गेल कहाँ ?

ठिठरा फराके सॅं बाजल - हमरा त जे विद्यार्थी बाबू माथ पर धऽ देलन्हि से उठौने एलहुँ । हम की फोलि कय देखय लगलिऎक ?

पं० जी छकौड़ीलाल कैं रेड़य लगलथिन्ह - ई बुड़ि रे ! अपन पेटी रेल मे छोड़ि देलन्हि । वैदवाला नेने ऎलाह । बुधियारक नाङड़ि बनैत छथि ! मुँह ने देखिऔन्ह चुकरीभट्ट सन !

छकौड़ीलाल सिटपिटाइत बजलाह - हम त पाढ़ि लऽ कऽ बान्हल देखलिऎक !

पं० जी उत्तेजित भय बजलाह - हौ बूड़ि । ओ लाल पाढ़ि सॅं बान्हल रहैक । ई पीयर पाढ़ि छैक, से नहि सुझैत छौह ? आँखि पर मकड़जाला लागि गेल छलौह ?

छकौड़ी - तखन अन्हार मे की रंग सुझैत छलैक ? तेहन भीड़ ने कऽ देलकैक जे पेटी के ठेकाने नहि रहल । एगोटा बेंचक तर सॅं खींचि कऽ बाहर कऽ देलक तखन हम खिड़कीक बाटे ठिठराक माथ पर धऽ देलिऎक । इहो त कहैत जे हल्लुक लगैत अछि ।

पंडित जी ठिठरा पर क्रुद्ध होइत बजलाह - ई नढ़रा किएक एको बेर बाजत ? एकरा त गॅंवे भेलैक जे कम भारी ढोबय पड़लैक ।

ई कहि पं० जी सोंटा लय ओकरा पर छुटलाह । ठिठरा ओहि ठाम सॅं पड़ायल । छकौड़ीलाल रंग कुरंग देखि घसकि गेलाह ।

पं० जी अपन माथ-कपार पिटैत बजलाह - हमरो त बुड़ित्व भऽ गेल जे सुढ़िया कऽ ओकरे लग बैसय गेलहुँ । सटौर कैलाक फल भेटल जे ओतबा दिनक सभटा संचित वस्तु पार भऽ गेल । वैदबा पुर्वजन्मक शत्रु छल । सर्वस्वान्त कऽ देलक ।

पंडिताइन तोष-भरोस दैत कहलथिन्ह - आब सोच कैने कोन फल ? जकरा अंश मे छलैक तकरा भेटलैक ।

परन्तु पं० जी कैं रहि-रहि कऽ जोआरि आबय लगलैन्ह । हाय - हाय! मोरब्बा सभ चखवो नहि कैलहुँ! नारंगीक वर्फी ओहिना आँखि मे नचैत अछि । हरियरका परोरक मधुर छोड़ि कऽ हरे उठौने ऎलहुँ । हे नारायण! ओतेक रासे चीनी जमा कैने छलहुँ । से दलसिंसराय चल गेल और घर आयल चोपनीची! वैदवा कलाकंद उड़ाओत और हम बिदारीकंद । वैदाइन कैं सेव - अंगूर हाथ लगलैक आओर अहाँ कैं अमलतास । ई कर्मक बात ।

स्त्री कहलथिन्ह - आव की करबैक? जे होएवाक छलैक से त भऽ गेलैक । अमलतासो कोनो काज मे आविए जैतैक ।

पं. जी वजलाह - आव घाव पर नोनक बुकनी नहि छीटू । वैदवाक नामो गाम त विसरि गेल । तेहन वेदान्ती गप्प मे फँसा देलक जे ओही मे बाझि गेलहुँ । दोसरा वातक सोहे नहि रंहल । आब कि ओकर पता लागत? यमराजक सहोदय!

पंडितजी वैद्यराज कैं चुनि - चुनि कय विशेषण देमय लगलथिन्ह ।

पंडिताइन कहलथिन्ह - आव मुँह - हाथ धोउ । अन्न - पानि खाउ । तखन मन स्थिर हैत ।

पंडितजी बजलाह - खाउ की?हम आइ अपन मूर्खताक प्रायश्चित्त करव । पंडितजी कोठरीक केवाड़ बन्द कय मुँह झाँपि पड़ि रहलाह । पंडिताइनो दिन भरि भुखले रहि गेलीह ।

रात्रिशेष मे पंडितजी केबाड़ खोलि कऽ बाहर ऎलाह । पंडिताइन कैं जगा कय कहलथिन्ह - ऎ! हमरा आब दिव्यज्ञान भऽ गेल । वास्तव मे ई संसार किच्छु नहि थिक । लोक मृगमरीचिकाक पाछाँ दौड़ि रहल अछि । विचारि कऽ देखल जाय त बालूशाही और बहेड़ा मे भेदे की? हमरा आब यथार्थ वैराग्यक उदय भऽ रहल अछि ।

पंडिताइन कैं हॅंसी लागि गेलैन्ह।

वेदान्तीजी रुष्ट भऽ पुछलथिन्ह- अहाँ हॅंसलहुँ किऎक?

पंडिताइन कहलथिन्ह-अहाँक वैराग्यक हाल हमरा बुझल अछि।

पं. जी बजलाह- पहिलुका बात सभ बिसरि जाउ। एहि बेर हमरा ब्रम्हज्ञान भऽ गेल अछि। आब ई विषय-वैराग्य कथमपि नहि हटि सकैत अछि। इन्द्रियक सुख कोनो वस्तु नहि थिक। घाँटी तर गेने माटी! आब ओहि पेटीक खातिर हमरा एको रत्ती हर्ष-विषाद नहि अछि। केवल अनासक्ति ओ तितिक्षा....

एतबहि मे छकौड़ीलाल कहैत ऎलथिन्ह- गुरुजी, दलसिंहसराय सॅं एक आदमी चिट्ठी आ पेटी नेने आएल अछि।

पं. जी क तितिक्षा मुँह मे रहलैन्ह। बजलाह-ऎं अपन पेटी आबि गेल? कहाँ अछि?

ई कहैत पं. जी धड़फड़ा कऽ उठय लगलाह। तावत पेटी आङन पहुँचि गेलैन्ह।

पं. जी विद्यार्थी कैं कहलथिन्ह- जाह। आदमी कैं बाहर बैसबहौक गऽ।

पंडिताइन कैं कहलथिन्ह- हाँसू लाउ, पाढि काटू। पेटी खुजैत देरी गमगम करय लागल। पं . जी देखलन्हि- सभ किछु अनामति राखल अछि।

पंडिताइन कैं कहलथिन्ह- आब बड़का चॅंगेरा आनू।

पं. जी एक दिशि सॅं गनि-गनि कऽ मधुर-मोरब्बा बाहर करय लगलाह और पंडिताइन कैं चिन्हा-चिन्हा कऽ चॅंगेरा मे राखय लगलाह।

ताबत छकौड़ीलाल आबि कऽ कहलथिन्ह- वैद्यजीक पेटी कहाँ छैन्ह? ओ आदमी ऎखन चल जाएत।

पं. जी बिगड़ि कऽ कहलथिन्ह- ओहिठाम मोरी लग हरे बहेड़ा फेंकल छैक। जाह बीछि कऽ दऽ अबहौक गऽ।

विद्यार्थीक गेला पर पं. जी स्त्री कैं कहलथिन्ह- भीतर सॅं किल्ली तऽ लगौने आउ। नहि त फेर केओ पहुँचि जाएत।

पंडिताइन किल्ली लगा ऎलीह। पुछलथिन्ह - आब की कहैत छी?

पं. जी कहलथिन्ह - आब पैर धो कऽ बैसू। हम सभ मे सॅं एक-एक टा देने जाइत छी। अहाँ चाखि-चाखि कऽ स्वाद कहने जाउ।

पंडिताइन कहलथिन्ह- भला, ई कोना भऽ सकैत अछि? अहाँ दू साँझक उपासल छी। हम जाइ छी भानस चढाबय।

पं.जी कहलथिन्ह- बताहि, आइ कतहु भानस होऎ! एहने अछि त हमरो एक-एक टा सभ मे सॅं परसि दियऽ।

पंडिताइन परसि कऽ जाय लगलीह कि पं. जी बाँहि धऽ कऽ खींचि लेलथिन्ह- आइ से नहि हैत। संग देवय पड़त।

पंडिताइन कैं पुनः हॅंसी लागि गेलैन्ह।

वेदान्तीजी पुछलथिन्ह- अहाँ हॅंसलहुँ किऎक?

पंडिताइन कहलथिन्ह-अहाँक विषय-वैराग्य कतय गेल?

वेदान्तजी कनेक काल गुम्म रहि बजलाह- हॅं, ई त वेश मन पारि देलहुँ। परन्तु प्रवृति ओ निवृत्ति कि लोक कैं अपन सक छैक? जे मायाक खेल रचने छथि सैह सभ कैं नचा रहल छथि। एक क्षण पहिने मनमे वैराग्यक अस्तर चढा देने छलाह, आब पुनः रागक रंग भरि रहल छ्थि। हम अपने त कर्त्ता छी नहि। तखन हमर कोन दोष? ई सभटा ब्रम्हक लीला थिकैन्ह। ई कहैत वेदान्तजी एकटा रसमाधुरी पण्डिताइनक मुँह मे धऽ देलथिन्ह।