लेखक : हरिमोहन झा

कविजी मे तीन टा विलक्षण गुण छलैन्ह। ओ अत्यन्त भावुक छलाह। एतेक भावुक, जे कल्पित नायिकाक व्यथा सॅं आँखि मे नोर भरि अबैत छलैन्ह। दोसर, जे ओ नख सॅं शिख पर्यन्त सौन्दर्यक उपासक छलाह। एहन रसिक, जे अपन उपनाम 'अंचल' रखने छलाह। तेसर, जे ओ प्रगतिशील छलाह। अर्थात महिला एवं मजदूरक स्वतंत्रता पर क्रान्तिपूर्ण कविता लिखैत छलाह।

कविजीक पत्नी सुन्दरी छलथिन्ह । हुनक देह 'गिनी गोल्ड' जकाँ चमकैत छलैन्ह । प्रत्येक अंग दर्पण जकाँ झलकैत छलैन्ह । नाम त छलैन्ह 'कामिनी' किन्तु कविजी दुलार सॅं 'शोभा' कहैत छलथिन्ह ।

कविजी कैं जखन कविताक प्रेरणा प्रेरणा होइत छलैन्ह तखन शोभा सामने बैसा लैत छलथिन्ह । एक दिन वियोगिनी पर लिखबाक रहैन्ह । कहलथिन्ह - शोभा ! एहि ठाम आबि कऽ बैसू । कनेक केश छितरा लियऽ, मुँह म्लान कऽ कऽ बैसि जाउ ।

गृहिणी चाउर फटकैत उत्तर देलथिन्ह - और भानस मे जे अबेर भऽ जाएत ।

'अंचल' जी कान पर हाथ रखैत बजलाह - हाय ! हाय ! कहाँ कल्पनाक नन्दन-वन मे विचरण करैत छलहुँ से अहाँ एकाएक चुल्हि मे पटैक देलहुँ । एखन विरहिणीक मुद्रा बना कऽ हमरा सामने बैसू ।

'शोभा' उदास मन सॅं बैसि गेलीह । कविजी हुनका मुँह तकने जाथिन्ह और ओहि सॅं जे प्रेरणा भेटैन्ह से पंक्तिबद्ध कैने जाथि ।

देखैत-देखैत आधा कविता तैयार भऽ गेलैन्ह । कविजी हुनका आँखि पर आँखि गड़ा कऽ उपमा सोचय लगलाह ।

सोभा अगुता कऽ पुछलथिन्ह - आब और कती काल बैसय पड़त ? ओम्हर अधन सुसुआ रहल अछि ।

अंचल जीक ध्यान भंग भऽ गेलैन्ह । बजलाह - ओफ ! रस भंग कऽ देलहुँ । एखन अधन कैं गोली मारु । जेना पहिने विषादपूर्ण नेत्र कैने बैसल छलहुँ तहिना फेर बना लियऽ और जोर-जोर सॅं उच्छ्वास लेबय लागू ।

कविजीक कविता तैयार भऽ गेलैन्ह त सोभा कैं छुट्टी दैत कहलथिन्ह - आब कवि सम्मेलन मे जे स्वर्णपदक भेटत से अहींक हृदयहार बनत । एहन रुपसीक गिरिसन्धि मे निवास कय ओहो धन्य भऽ जाएत ।

सोभा चिन्तित होइत बजलीह - एखन जारन त छैहे नहि । भानस कथी सॅं हैतैक ?

आब कविजी पद्य सॅं गद्य पर आबि गेलाह । केवल रुपसीक रुप-सोभा पान कैने त पेट नहि भरत ! उदरदरी कैं भरबाक हेतु सिद्ध तण्डुल चाही और तकर आवश्यक साधन मे शुष्क काष्ठक अभाव अछि ।

कविजी सोचय लगलाह - अभाव ! अभाव ! अहा ! की सुन्दर वस्तु थिक अभाव ! अदृश्य ! अजेय ! निर्मल ! निराकार ! एहि पर सूक्ष्म सॅं सूक्ष्म भावक कविता कैल जा सकैत अछि ।

परन्तु कविपत्नी व्यावहारिक धरातल पर छलीह । बजलीह - पहिने दू आनाक गोइठा मङा दियऽ । तखन अभाव पर कविता लिखब ।

कविजी कहलथिन्ह - एखन हमरा रद्दी कविताक फाइल सॅं काज चला लियऽ । कतहु सॅं रुपैया आबि जाएत तखन गोइठा के कहै, केसर-कस्तुरी मॅंगबा देब ।

ताबत बाहर डाकपिउन सोर कैलकैन्ह । 'नवयुग' कार्यालय सॅं मनिआर्डर । कूपन पर लिखल - अहाँक 'कृषक कन्या' पर पचास टाका पुरस्कार जा रहल अछि । अग्रिम अंक हेतु 'मजदूर' पर कविता पठाउ ।

कवि गृहिणीक आगाँ मे नोट फेकैत बजलाह - आब केसर और गुलाबजल दऽ कऽ बादामक हलुआ बनाउ । आइ महत्वपूर्ण विषय पर लेखनी उठैबाक अछि ।

तराबटि पौला उत्तर कविजीक मस्तिष्क मे भाव-तरंग उठय लगलैन्ह । ओ मसनद पर ओठङि कय चिन्तन करय लगलाह । आँखि मे अश्रुक बिन्दु आबि गेलैन्ह ।

पत्नी पुछलथिन्ह - ई की कनैत छी किऎक !

कविजी कस्तुरी सॅं सुवासित रुमाल लऽ कऽ अपन आँख पोछैत बजलाह - मजदूरक दशा सोचि कऽ हृदय द्रवित भऽ रहल अछि । हाय-हाय !

          हे  श्रमिक ! कष्ट लखि कय अहाँक,
          भय हृदय  जाइत अछि फाँक-फाँक ।
          माघक     भोरे  उठि    बिनु    रजाइ ,
          पड़ती   मे   तामक      हेतु      जाइ ।
          जेठक   दुपहरमे         हर      जोति,
          चुअबैत   लक्ष         घामक    मोती ।
          रौदो   बसात    छथि  जाइत   हारि ,
          बूझी   न अहाँ      अन्हर      बिहारि ।
        

परन्तु तकर फल अहाँ कैं की भेटैत अछि ?

          नित  अहाँ खटै छी   दिवस-रैन ,
          निश्चिन्त करै  छथि  धनिक चैन ।
          ई  अहिंक वदौलति थिक मजूर !
          जे पैघ  कहाबथि   'जी हजूर '  ।
          छथि अहिंक बदौलति मोट सेठ ,
          जे गद्दी  सॅं नहि    होथि    हेठ    ।
          डुबी   अहाँ   समुद्र  जा     जा ,
          मोतीक  मुकुट  पहिरथि  राजा   !
          सुर्खी   ओ  चून   अहाँ   सानी,
          पॅंचमहला  पर  सूतथि    रानी   ।
          गलबैत  माटि  मे  अहाँ   हाड़ ,
          दोसर  कहबै  छथि  जमींदार   ।
        

एतबे नहि ।

            नित  सूखल   रोटी   अहाँ  खाइ ,
            अनका  हित  दय  खोआ  मलाइ !
            धनिकक  कुकुर   हलुआ  चटैत ,
            बच्चा  अहाँक   अछि मुँह  तकैत ।
            तरसैत हाय ! दू  दिनक  सहल ,
            भरि पेटअन्न  बिनु  बिलटि  रहल ।
            ज्वर  लगलो  उत्तर    दूध   बिना ,
            रकटैत   रहै   अछि   राति   दिना ,
            औषध   वेत्रेक    खेलबैत   धुनि ,
           जग सॅं चलि दैत अछि आँखि मूनि !
        

कविजी पत्नीक मुँह दिशि ताकि बजलाह - शोभा ! अहाँ नेत्र सॅं मोती नहि झरैत अछि ? से किऎक ? नारीक हृदय त स्नेहक माखन थिक जे करुणाक आँच पबैत देरी पिघलि उठैत अछि । देखू, हम कोना वर्णन कैने छी -

            अयि !  अनन्त कोमल करुणे !
            विगलित  स्नेहक  रस    धारा ,
            दिव्य  लोक सॅं उतरलि प्रतिक
            पयस्विनी            सुखसारा   !
            अंचल   सॅं    मधु   धार    दैत
            पोषक           शीतलताकारी ,
            पृथ्वी  मे  अवतीर्ण  भेल   छी,
            नाम   अहिंक   अछि     नारी  ।
        

कविपत्नी कहलथिन्ह - खाली नोर बहौने ओकर कोन उपकार भऽ जैतैक ? किछु दुःख बाटि लिऎक तखन ने !

कविजी भावावेश मे आबि बाजय लगलाह - ओ केवल दयाक पात्र नहि अपितु श्रद्धाक पात्र थिक । अहा !

           हे  हे मजूर !     हे  हे    मजूर !
           छी     अहाँ    तपस्वी   कर्मसूर,
           वैभव   विलास   सॅं  परम    दूर,
           अविराम    श्रान्ति  सॅं  चूर-चूर ।
           हे जन! श्रमजीवी! मुनि समान ।
           छी अति सहिष्णु  कर्मठ महान ,
           सन्तुष्ट ,  जितेन्द्रिय ,   धैर्यवान,
           त्यागी ,   उपकारी,  गुणनिधान ।
           उपजाबी    शस्य,    अन्नदाता  !
           छी  अहीं सकल लोकक त्राता ।
           निःसीम कष्ट  सहि  करी  काज,
           ताहि सॅं जीवित  अछि  समाज ।
           के अहाँ सदृश छथि वीर  अन्य ।
           हे योगिराज !  छी  धन्य - धन्य !
        

पुनः पत्नी कैं विचलित देखि बजलाह - सोभा ! अहाँ एखन धरि पूर्णतः प्रभावित नहि भेलहुँ । नहि त अन्तिम पंक्ति सुनैत देरी दुनू हाथ जोड़ा जाइत ।

पत्नी संकुचित होइत कहलथिन्ह - ओ वास्तव मे महात्मा थिक, प्रणाम करबा योग्य । किन्तु और लोक बुझत तखन ने ?

कविजी उत्तेजित होइत बजलाह - आब पूँजीपतिक अत्याचार बेशी दिन धरि नहि चलतैन्ह । क्रान्तिक विस्फोट हैब अवश्यंभावी अछि ।
              हे  वीर !  हलायुध ! धरु खडग,
             शोषित , उत्पीड़ित  श्रमिक  वर्ग  !
             जागू,  जागू ,    हुंकार        भरू,
             नवयुगसदेंश     प्रचार        करु,
             थिक विजय शस्त्र  हाँसू  अहाँक,
             प्रतिमूर्ति   हथौड़ी  थिक  गदाक ।
             क्रान्तिक  बनि   जाऊ   अग्रदूत,
             छी   अहाँ   वीर   राष्ट्रक   सपूत ।
             जागू   मजूर !   किछु  करू बोध।
             अन्यायी     सौं     ठानू    विरोध
             आर्थिक   वैषम्यक  अन्त   करू,
             जनता   मे  साम्यक भाव  भरू ।
             पूँजीपति   जे     शोषण   करैछ,
             सर्वस्व   अहाँ   सभ   कैं   हरैछ,
             तकरा  विरुद्ध रण  ठानि  दियऽ,
             निज न्यायोचित अधिकार लियऽ।
            हे श्रमिक!   आब   हुंकार  भरू,
            अत्याचारक    प्रतिकार    करू,
            दासत्व  श्रंखला   तोड़ि    दियऽ,
            स्वार्थी    वर्गक    संहार    करू ।
        

कविजी एही प्रवाह मे बहैत छलाह कि हरबाह आबि कऽ गर्द कैलकैन्ह- मालिक पनपियाइ चाही।

कविजी खिसिया कऽ बजलाह - ई कहाँ सॅं आबि कऽ सूअर जकाँ चिचियाय लागल। सभ प्रवाहे नष्ट कऽ देलक। जाउ किछु दऽ कऽ जळी एकरा हटाउ।

किछु कालक उपरान्त पत्नी प्रत्यागत भेलथिन्ह। कहलथिन्ह- एक मुट्ठी मकइ दैत छलिऎक से नहि लेलक।

कविजी बजलाह- तखन की लेत? मेवा? रड़पनी करैत अछि?

पत्नी- एक बजे हर जोति कऽ आएल अछि, पियासें लहालोट छ्ल । किछु खा कऽ पानि पीबक हेतु मङलक । किन्तु घर मे और किछु त छल नहि जे दितिऎक ।

कवि - नीक कैलहुँ। एकरा सभ कैं जतेक बेशी आदर करबैक, ततेक माथ पर चढल जाएत ।

पत्नी - परन्तु ओकर सुखायल मुँह देखि कऽ हमरा दया लागि गेल । मेवाक हलुआ जे छलैक से ओकरा दऽ देलिऎक ।

कवि - अहाँ पागल त ने भऽ गेलहुँ? बानर कि जानय गेल अदक स्वाद! ओ गमार हलुआ की बूझत? ओ त केवल सेर - पसेरी बुझैत अछि । फेनफानि कऽ भरि पेट ठूसल ताकय । ओहि गदहा कैं मेवा खैबाक मुँह छैक?

पत्नी - ओकरा एखन रुपैयोक काज छैक । पाँच टा मङैत अछि । घर मे बेटा दुःखित छैक । कहैत अछि जे दू - चारि दिन काज करय नहि आएव ।

कवि - देखू त पाजीक डंल । ताक पर ऎबो नहि करत और पछिला रुपैया लऽ लेत । झूठमूठ लाथ कऽ कऽ ठकय चाहैत अछि । देखब, बदमाश कैं एक्को कौड़ी नहि देब ।

पत्नी - परन्तु हमरा त लाथ जकाँ नहि बूझि पड़ल। पाँच टा रुपैया ओकरा दऽ देलिऎक । कोन ठेकान यदि वासतव मे नेना दुःखित होइक तखन कोन उपाय करैत? और ओकर जे कमाएल छैक से माङव त उचिते छैक ।

कवि - आब हम की कहू? एहने बुध्दि अहाँक रहत तखन अहाँक जे वस्तु पाओत से दोसर ठकि कऽ लऽ जाएत । खैंर, जाय दियऽ । ओ कविता आइ पठा देवाक अछि । हँ, सुनू त केहन लगैत अछि!

          हे     हे   मजूर! हे    हे   मजूर
          जीवन अहाँँक  अछि चूर - चूर!
          थिक लोक समाजक केहन क्रूर?
          अन्यायी,     लोभी,    स्वार्थशूर!
          जोतैत अहाँँ      छी      धूर-धूर,
           ओ   तदपि कहै अछि दूर - दूर!
          लखि दुःख उठै अछि हृदय हूर!
          भय नयन जाइत अछि अश्रुपूर!
        

राति मे 'अंचल' जी कविता समाप्त कय घर मे सूतल रहथि कि बाहर सँ केवाड़ पर ठक ठक शब्द बूझि पड़लैन्ह । पत्नी कैं उठबैत बजलाह - शोभा! चोर आबि गेल । आब उठू । साहस देखाउ ।

शोभा आँखि मिड़ैत कहलथिन्ह - हमरा की करय कहैत छी?

कवि - अहाँँ वीर महिला जकाँँ केवाड़ खोलि कऽ जाउ और चोर डाकू जे हो तकर छक्का छोड़ौने आउ ।

तावत पुनः ठक ठक होबय लागल। कविजीक छाती धड़कय लगलैन्ह। पत्नी कैं प्रोत्साहित करैत बजलाह- देखू अहीक बहिन अहल्याबाइ, दुर्गाबाइ, लक्ष्मीबाइ इत्यादि केहन वीराङना भऽ गेलि छथि। हुनकर सभक चरित्र स्मरण करू।

पुनः पत्नी कैं थकमकाइत देखि बजलाह- शोभा! अहाँ कुंठित किऎक भेल छी? नारी त शक्तिरूपा होइत छथि। अहाँ असि धारिणी दुर्गा जकाँ जा कऽ महिषासुर मर्दन करू। ताबत हम अहाँक विजयक प्रार्थना करैत छी। हमर चंडी-स्तवन मन पाड़ि लियऽ-

        अयि!  प्रचंड    चंडिके!
        कराल  खड़ग  धारिणी,
        असंख्य  सैन्य  मर्दिनी,
        विपक्ष   नाश  कारिणी,
        अपार   शक्ति   संयुता
        मदान्ध   दर्प    हारिणी
        अखण्ड  दण्ड  दायिनी,
        अदम्य   दुष्ट    दारिणी!
      

ताबत दरवाजा पर और जोर सॅं धक्का देलकैन्ह। कातर स्वर मे बजलाह - शोभा! शत्रु दुर्ग पर आबि गेल। आब आलस्य करबाक समय नहि अछि। आगाँ बढू। ऎं! एखन धरि अहाँक बाहु नहि फड़कैत अछि। मुखमंडल मे ओजक लाली नहि आएल अछि! बेश, त हम झाँसीक रानीवला कविता सुना दैत छी-

       घोड़ा  पर फानि चढि गेली, तानि छाती, केश
       राशि कैं लपेटि औ  समेटि  निज  साड़ी  ओ।
       एक हाथ    बर्छी तीक्ष्ण,  दोसर मे   तरुआरि,
       दाँत सौं   लगाम  धैने   कैलन्हि   सवारी ओ।
       शत्रु   वक्ष भेदि भेदि,  रुण्ड मुण्ड  छेदि छेदि,
       चलली    बढैत   शक्तिरूपा   अवतारी   ओ।
       एक  वाण भाल बीच,  दुइ वाण छाती  बीच,
       शोभित  अहा हा!   छली धन्य वीर नारी ओ।
      

अहूँ केसरिया रंगक साड़ी पहिरि शत्रुक शोणित सॅं भाल मे बिंदी लगौने आउ।

कामिनी उठि विदा भेलीह। किन्तु दुइए-एक डेग चललाक बाद फिरि ऎलीह- नहि ऎ! हमरा डर होइत अछि। कोन ठेकान की कऽ देबय!

कवि -शोभा! अहाँ विजयिनी भऽ कऽ आउ, तखन अहाँक स्मारक मे वीराङना विजय नामक अमर काव्य-रचना कऽ देब।

शोभा - परन्तु यदि कदाचित ओकरो विजय भऽ गेलैक तखन की करब? अहाँ पुरुष छी। अपने किऎक नहि जाइत छी?

कविजी आकाश पर सॅं खसैत बजलाह- ऎं! अहाँ कैं हमरा प्राणक मोह नहि अछि! तखन अहाँ मे नारी-हृदय नहि अछि। देखू, एक स्त्री सावित्री एहन छलीह जे यमराजक मुँह सॅं पति कैं खीचि कऽ लऽ ऎलीह। और एक स्त्री अहाँ छी जे जानि बूझि कऽ हमरा यमराजक मुँह मे पठा रहल छी। बेश, त हम जाइ छी मृत्युक आलिंगन करय। किन्तु पाछाँ कऽ हमरा दोष नहि देब।

ई कहि कविजी केबाड़ लग गेलाह कि ओ जोर सॅं भड़भड़ा उठल। कविजी उनटे पैर वापस आबि पत्नी कैं कहलथिन्ह- देखू। एकटा बात कहब छुटि गेल, तैं फिरि आएल छी। अहाँक वैध्वय वेषक करुण दृश्य हमरा नेत्र मे नाचि उठल अछि। ओ देखबाक हेतु हम फेर त आएब नहि। अतएव अहाँ ऎखन चूड़ी-सिंदूर हटा कऽ एक झलक देखा दियऽ। .... हॅं, एक बात और। पुनः हमरा और। पुनः हमरा अहाँक मिलन त हैत नहि, अतएव अन्तिम विदा-गान सुनि लियऽ-

           प्रिये!        हम     जाइत        छी    ओहि       पार।
           जतय जाय केओ घुरि ने अबै   कहियो  एहि किनार।
           क्षमु आब अपराध हमर सभ ,  अछि  छुटैत  संसार ।
           पुनि नहि मिलन हैत एहि तन मे नहि पुनि ई व्यवहार ।
           अन्तिम चुम्बन  दिय हृदयेश्वरि  अन्तिम स्नेहक प्यार ।
         

ताबत दरबाजा पुनः जोर सॅं ढकढका उठल । पत्नी कहलथिन्ह - बेश, त अहाँ रहू । हमहीं जाइत छी । अहाँ कैं दाढ़ी मोछ नहिए अछि । स्त्री जकाँ केश रखनहि छी । हमरबला साड़ी-चुड़ी पहिर लियऽ । केओ पुरुष नहि बुझत । लाउ, अपन वला धोती दियऽ ।

कविजी बजलाह - आहा हा ! ई केहन सुन्दर कटाक्ष भेल अछि । समय रहैत त पुरस्कार दितहुँ । परन्तु सोभा ! यदि ओ अहाँ कैं नेने-देने चलि गेल तखन हम की करब ? सभ लोक कहत जे 'अंचल' जी अंचल तर नुका रहलाह और आँखिक सोझां अंचलक धन लुटि कऽ लऽ गेलैन्ह ।

पत्नी कहलथिन्ह - तखन अहीं आउ ।

कविजी विचारि कऽ बजलाह - प्रिये हमरा गेने अहाँ विधवा भऽ जाएब । और अहाँक गेने हम अनाथ भऽ जाएब । अतएव एक बात करु जे दुनू गोटा संगे मिलि कऽ चलू ।

          सभ पावनि  संग  मिलि  कैलहुँ,
          सुख-दुख         भोगल      संगे ।
          अन्त्म  पावनि  मरणक  आयल,
          किए      करब            व्रतभंगे  ?
        

अंचल जी नेओतल छागर जकाँ पत्नीक पाछाँ-पाछाँ चललाह । कामिनी साहस कय केबाड़ फोललन्हि । केबाड़ फुजैत देरी एक बिलाड़ि छड़पि कऽ पड़ायल ।

'अंचल' जी वेहोश रहथि । पत्नी कहलथिन्ह - आँखि फोलू , डाकू नहि अछि । बिलाइ छल ।

'अंचल' जीक वीरता आब प्रकट भेल । बजलाह - ई अहाँ की कहै छी ? डाकू जरूर आयल छल । किन्तु वीर रसक ओजस्वी कवित्त सुनि कऽ पड़ा गेल । अफसोस ! अहाँक रक्षाक खातिर आइ सोणितक धार एहिठाम बहि जाइत । किन्तु कायर शत्रु शब्दे सुनि कऽ रणक्षेत्र सॅं भागि गेल ।

दोसर दिन सन्ध्याकाल अंचल जी कैं जाग्रत महिला मंडल सॅं एक पत्र भटलैन्ह । 'नव-नारी' क सम्पादिका लिखने छलथिन्ह - आधुनिक नारी सर्वथा बन्धनमुक्त भऽ कऽ रहय चाहैत अछि । ओ अपन सर्वाधिकार कोनो एक पुरुषक हाथें बेचि दे व्यक्तित्वक अपमान बुझैत अछि । यैह स्वतंत्रताक आदर्श स्वाभाविक तथा वांछनीय थिक । एहि सिद्धान्तक प्रतिपादन करक हेतु हमरा लोकनि एक क्रान्तिकारी काव्य प्रकाशित करय चाहैत छी । ई अहीं सन प्रगतिशील कविक लेखनी सॅं भऽ सकैछ । युवती मात्रक हृदय मे जे प्रसुप्त आकांक्षा रहैत छैक , स्वाभाविक उद्दीपन पाबि ओ जेना जागरित भऽ उठैत छैक और उद्दाम वासनाक स्वाभाविक प्रवाह जाहि तरहें कृतिम नियन्त्रणक श्रृंखला कैं तोड़ि कऽ भसिया दैत छैक , तकर सफल चित्रांकण होमक चाही । प्रकृतिरुपा नारी यौवनक चंचल तरंग मे जे किछु करैत अछि और रहस्यक आवरण मे निहित रखने रहैत अछि, तकर स्पष्ट एवं सजीव चित्रण करैत, सूक्ष्मतम मनोभावक विश्लेषण करब अहीं सन प्रतिभावान तथा सिद्धहस्त कलाकारक कार्य थिक । हमरा लोकनि आशा करैत छी जे 'महिला-मंडल' कैं अहाँक सहयोग प्राप्त हेतैक । मंडलक अध्यक्षा श्रीमती प्रमदा देवी एहि रचनाक निमित्त एक हजार टाका धरि पुरस्कार देबक हेतु तैयार छथि ।

पत्र पढैत 'अंचल' जी उछलि उठलाह । हुनक कल्पना-समुद्र मे लहरि आबि गेलैन्ह । पेंसिल कागज लय गुनगुनाय लगलाह -

          हे  प्रगतिशील   महिला  समाज !
          जग मे स्वतंत्र  भय  करु   राज  ।
          प्राचीन  रूढ़ि    कैं  तोड़ि  आज ,
          कय  दूर  धाख,  संकोच   लाज ,
          आधुनिक युगक लय साज-बाज ,
          सीखू पुरुषोचित  सकल   काज ।
          हाँकू  मोटर , साइकिल   चलाउ ,
          एरोप्लेनक     चक्का      घुमाउ ,

                    चूड़ी  कंकण  कर  सॅं  उतारि,
                    बंदूक  हाथ  मे  लियऽ   नारि ।
          थिक  पुरुष  प्रतिद्वन्द्वी   अहाँक
          उर  ओकर  विदारू फाँक-फाँक ।
          शत्रुक  दल मे     निर्भय  विचरु ,
          निःशंक  रेल  मे  सफर    करु   ।
          होटल मे  जा   एकसरि ठहरू ,
          एकसरि  प्रदर्शनी   सैर   करू ।
          देखबैत  चलू   उन्मुक्त    रुप  ,
          श्रृंगार,  वेश , फैशन    अनूप,
          यौवन-शोभा    प्रकटाउ  खूब,
          हो  सकल   शत्रुदल  ऊबडूब,
          मरि  जाय पुरुष पापी सिहाय
          छटपटा उठय  कहि हाय हाय !
                   गर्वित, उन्नत   अंचल  सँवारि,
                   होउ विश्वविजयिनी अहाँ नारि !
          पुरुषक  आगाँ  नहि होउ दीन,
          दासी  न  बनू  ककरो  अधीन,
          वैवाहिक  बंधन  थिक कलंक,
          विचरक  चाही जग मे असंक ।
          चेतन  जग  मे स्वच्छन्द  वृत्ति ।
          थिक एक मात्र जीवनक भित्ति।
          सभ जीव जन्तु विहरय स्वतंत्र ,
          ई   थिक  आनन्दक  मूलमंत्र ।
          थिक  विश्वव्यापी  नियम यैह ,
          व्यभिचार कहाबय कतहु  सैह!
          दासत्व   घोर   थिक पातिव्रत्य ,
          सभ  मनगढ़न्त  बंधन असत्य ।
          आदर्श सतीत्वक थिक कल्पित,
          स्वार्थी  वंचक  पुरुषक  निर्मित,
          जीवन-विज्ञानक  अति  विरुद्ध,
          यौवन-प्रवाह  कय  दैछ  रुद्ध  ।
          ठानू  एकरा  सॅं   घोर    युद्ध  ,
          बनि जाउ अबाधित प्रकृति शुद्ध ।
          अपवाद  थीक  दाम्पत्य   धर्म ,
          बूझी  तकरे  व्यभिचार     कर्म ।

                    सभ  कृतिम  बंधन  दूर  करू,
                    स्वामीक   गर्व  कैं  चूर   करू ।
          सभ कुसंस्कार कैं छोड़ि  छाड़ि
          सामाजिक  बंधन  तोड़ि  ताड़ि ,
          रूढिक पुरान घट  फोड़ि फाड़ि,
          क्रान्तिक झंडा  फहराउ   नारि !

                  हे  प्रग्क़तिशील महिला समाज !
                  गतिहीन  पुरुष  पर  करु  राज  !
        

कामिनी देवी आबि कय पुछलथिन्ह - की ? फेर कोनो कविता बनि रहल छैक की ? कविजी भयभीत भऽ बजलाह - अहाँ सुनैत त ने छलहुँ ?

कामिनी - सुनैत ने छलहुँ त की ? सभ कृतिम बंधन दूर करू स्वामीक गर्व कैं चूर करू कनेक दिय त , देखिऎक ।

कविजी कविता नुकबैत कहलथिन्ह - अरे अरे ! अहाँ कोन नेपथ्य मे ठाढ़ि भऽ कऽ सुनैत छलहुँ ? ई कविता अहाँक देखबा योग्य नहि अछि ।

ताबत कामिनी कापी उचङि कऽ पड़ा गेलथिन्ह । कविजी हुनका पाछाँ छुटलाह - शोभा ! शोभा ! ओ कापी लाउ । ओहि मे बहुत बात लिखल छैक जे अहाँक पढ़ऽ योग्य नहि अछि । शोभा !

परन्तु शोभा जे लंक लऽ कऽ पड़ैलीह से फेर किऎक धराइ देथिन्ह ?

पुर्णिमाक रात्रि । शोभा स्नान कय अपन श्रृंगार करैत छलीह । 'अंचल' जी चुपचाप ठाढ़ भय एक टक निहारय लगलाह । अनायास मुँह सॅं विद्यापतिक पद बहरा गेलैन्ह -

          चंदन चरचु  पयोधर  रे,  गृम  गज मुक्ताहार
          भसम भरल जनु शंकर रे, सुरसरि जलधार !
        

शोभा चेहा कऽ ताकय लगलीह । फूजल केशक किछु लट आगाँ मे आबि गेलैन्ह । चंचल जी कहलथिन्ह - अहा ! एखन अहाँक शोभा केहन लगैत अछि ! महाकविक शब्द मे -

         कुचयुग परसि  चिकुर फुजि पसरल ,
                             तैं  अरुझाएल  हारा ।
        जनि    सुमेरु   ऊपर  मिलि   ऊगल
                           चाँद विहिन सभ तारा ।
        
शोभा संकुचित भय आँचर सम्हारैत पुछलथिन्ह - अहाँक अभिप्राय की अछि से कहू ।

अंचल जी कहलथिन्ह - एखन दूधक वर्षा भऽ रहल अछि । फुलवारी मे चलू । ओहि ठाम अहाँ कैं बैसा कय चन्द्रमा सॅं मिलान करब ।

टहाटही इजोरिया मे एकान्त चबुतरा पर बैसि , कविजी फूल सॅं पत्नीक श्रृंगार करय लगलाह । खोपाक बीच गुलाब खोंसि देलथिन्ह । कान मे लंकेश्वर कली । छाती पर बेलाक गजरा । तखन गुनगुनाय लगलाह - जनम अबधि हम रूप निहारल , नयन न तिरपित भेल ।

हाय हाय ! अहाँ कैं जै बेर देखैत छी , तै बेर नवीन सौन्दर्य देखय मे अबैत अछि । प्रतिपल नवीन प्रेमक उदय होइत अछि । सेहो प्रीति अनुराग बखानिय , तिल-तिल नूतल होय !

एहि रूप पर के ने बिका जाएत? लाखो खून एहि पर माफ भऽ सकैछ ।

'अंचल' जी कामिनीक दुलार करैत कहलथिन्ह - देखू, हम एक एहन महाकाव्य लिखय चाहैत छी जे साहित्य-संसार मे अमर कीर्त्ति हो । ओ अनुपम वस्तु भऽ सकैत अछि, यदि अहाँ हृदय खोलि कऽ हमर सहायता करी । ओहि खातिर एक हजार पुरस्कार भेटि रहल अछि । परन्तु तकर प्राप्ति अहींक हाथ मे अछि ।

कामिनी लजाइत कहलथिन - हम कथि योग्य छी जे अहाँक सहायता करब?

'अंचल' जी उत्साह दैत कहलथिन्ह - अहाँ एहि विषय मे जतेक सहायता कऽ सकैत छी ततेक दोसर केओ नहि । देखू, अहाँक फूल सन रुपयौवन पर असंख्य भ्रमर लुब्ध भेल हैत । अहाँ अपन सभ टा गुप्त रहस्य हमरा कहि दियऽ! ओहि आधार पर हम 'रमणी-रहस्य' नामक काव्य प्रस्तुत करब ।

कामिनी मुसकुराइत बजलीह - अपन सभटा गुप्त रहस्य कहि देब त अहाँ फेर एतेक मानव?

'अंचल' जी उल्लासित भय बजलाह - एहू सँ बेशी मानव । देखू, आधुनिक पति-पत्नी मे मित्रताक भाव रहैत छैक । हम जे-जे कैने छी से अहाँ कें कहि दी । अहाँ जे सभ कैने होइ से हमरा कहि दी ।

कामिनी कहलथिन्ह - तखन पहिने अहीं शुरु करु ।

'अंचल'जी - बेस, त सुनू । हम प्रत्येक रमणी कैं प्रेमिका रुप मे देखैत छी । ई संसार एक विशाल सासुर थिक, जहाँ - 'मधुर युवति जन संग, मधुर-मधुर रस रंग ।'

कामिनी टोकैत कहलथिन्ह - किन्तु अहाँ अपन 'मातृवंदना' कविता मे त नारीमात्र कैं 'माता' कहि कऽ सम्बोधन कैने छिऎक?

कवि - हॅं। किन्तु ओ त अनका बुझैबाक हेतु छैक। यथार्थतः तीन प्रकारक भाव स्त्री कैं देखि कऽ उदित होइत छैक। वृद्धा मे मातृभाव, बालिका मे कन्या भाव, और युवती मे पत्नी-भाव। यैह स्वाभाविक थिकैक।

पत्नी- अनकर युवती स्त्री कैं देखि कऽ बहिनक भाव किऎक नहि उत्पन्न होइत अछि?

कवि- संसार मे सभक सार बनक हेतु हम जन्म नहि नेने छी। ताहि सॅं बरु अहीं सभ सॅं बहिनपा जोडू जे सभ सुन्दरी हमर सारि भऽ जाथि। अथवा पुरुष सभ सॅं भाइक सम्बन्ध राखू त सभक स्त्री कैं हम सरहोजि रूप मे देखबैन्ह।

पत्नी- और यदि आनो पुरुष एहिना विचारय, तखन त हमहुँ सभक सरहोजि बनि जैबैक। ओहना स्थिति मे सभ केओ हमर नंदोसिए भऽ जाएत।

कविजी - अहाँ वेश चतुरा छी। घुमा फिरा कऽ हमरे गारि पड़ा देलहुँ। वेश, ई सभ त हास-परिहास भेल। आब कार्यक गप्प होए।

कामिनी गंभीर भऽ कऽ कहलथिन्ह- की पुछबाक अछि, से पूछू,

कविजी पत्नीक कोमल हाथ अपना हाथ मे लैत बजलाह - देखू, निम्न कोटिक स्त्री-पुरुष लज्जा वा भय सॅं अपन-अपन गुप्त रहस्य एक दोसरा पर प्रकट नहि करैत अछि। आजीवन छपौने रहि जाइत अछि। परन्तु जहाँ अखण्ड विश्वास नहि तहाँ प्रेम की? दाम्पत्य सम्बन्ध त ओकरा कही जहाँ अन्तःकरण एक हो । पति-पत्नीक हृदय मे भेदे की?

ई कहि 'अंचल' जी अपना पत्नी कैं छाती मे सटा लेलन्हि । कामिनीक हृदयक स्पन्दन हुनका नीक जकाँ अनुभव होमय लगलैन्ह । बजलाह - जहिना दुनू हृदयक बाह्यरूप मिलि कय एकाकार भऽ गेल अछि तहिना आभ्यान्तरिको एक भऽ जैबाक चाही । अहाँ अपन सम्पूर्ण हृदय हमरा हृदय मे उझीलि दियऽ ।

कामिनी सरलताक अभिनय करैत कहलथिन्ह - कोन तरहें उझीलि दियऽ ? अहाँ अपने भीतर पैसि कऽ काढ़ि लियऽ ।

कवि - वेश, त हम काढ़ैत छी । अहाँ किछु छपायब त नहि ?

कामिनी - अपना जनैत त नहि छपायब ।

अंचल जी कामिनी कैं अपना कोड़ मे बैसा हुनक अनंचल रूपक सोभा देखैत बजलाह- देखू, मधुर रसाल फल देखि भाँति-भाँतिक पक्षी ओहि पर पहुँचि जाइत छैक । मधुर मकरंद पान करक हेतु रसलोभी मधुप त सभ ठाम मड़राइते रहैत अछि । कोनो फूल एहन नहि जकरा भौरा नहि सुंघने हो । अहूँ कैं देखि कऽ कतेक लोभाएल हैत । दीप-शिखा पर अनंत पतंग आबि कऽ जरि मरैत अछि ।

कामिनी अपना प्रशंसा पर मुसकुराइत बजलीह - त एहि मे दीपक कोन अपराध ? यदि हमरा देखि कऽ केओ मरऽ लागय त हमर कोन दोष ?

कवि - दोष यैह जे अहाँ मे एतेक गुण किऎक भेल ? और यदि भेल त याचक कैं दान किऎक नहि कैल ?

कामिनी - यदि पहिनहि सॅं दान करय लगितहुँ त अहाँक हेतु संचित कोना रहैत ?

कवि - तखन आइ धरि अहाँ सदावर्तक पुण्य नहि लुटलहुँ ।

कामिनी - नहि ।

कविजीक उत्साह मंद पड़ि गेलैन्ह । बजलाह - अहाँ कैं एखन धरि हमरा ऊपर पूर्ण विश्वास नहि भेल अछि । हम बर्बर युगक पुरुष नहि नहि छी जे अपना स्त्रीक गुप्त चरित्र जानि क्रोध वा ईर्ष्या करब । आधुनिक स्वामी तेहन उदार होइत अछि जे स्त्रीक प्रत्येक स्वच्छन्दता ओकरा रुचिकर प्रतीत होइत छैक । अहाँ कोनो बातक भय वा संकोच नहि करु । लज्जाक आवरण हटा कऽ अपन सभटा गुप्त वृत्तान्त कहि दियऽ ।

कामिनी कहलथिन्ह- हमरा अहाँ जकाँ ओतेक भूमिका बान्हि कऽ बाजय नहि अबैत अछि। सोझ-सोझ बात पूछू और जबाब लियऽ।

कवि- बेश, त सोझे पुछैत छी। अहाँक शरीर कैं परपुरुषक स्पर्श भेल अछि कि नहि?

कामिनी- स्मरण त नहि भऽ रहल अछि।

कवि- एहन हम मानिए ने सकैत छी। कहियो ने कहियो अवश्य भेल हैत। खूब मन पाड़ि कऽ देखि लियऽ।

कामिनी मन पाड़य लगलीह और अंचल जीक हृदय धड़कय लगलैन्ह। लजाइत बजलीह - हॅं, एकटा त मन पड़ैत अछि।

कविजी निष्पन्द भऽ उठलाह। तथापि उत्साह बढबैत कहलथिन्ह- देखू, एको रत्ती छपाएब नहि। अहाँ हमर प्राण छी। सभ टा कहि दियऽ। ई कहैत कविजी मनहि मन सोचय लगलाह- एहन सौन्दर्य मे विष भरल! हाय रे नागिनी!

कामिनी बजलीह- ओ हमरा बड्ड मानैत छ्ल। प्राणो सॅं बढि कऽ।

कविजी उछलि उठलाह - ऎं ! हमरो सॅं बेशी ? ओ निश्चय लम्पट छल । धूर्त्त, वंचक !

कामिनी चुप भऽ रहलीह । बजलीह - अहाँ कैं एतबे मे लेसि देलक । आब आगाँ नहि कहब ।

'अंचल जी' गिड़गिड़ाय लगलाह - प्राण हमर ! कहने जाउ । आब हमरा एको रत्ती क्षोभ नहि हैत । हॅं , तखन की भेलैक ?

कामिनी - ओ हमरा खातिर बहुतो वस्तु अनैत छल । ककबा, साबुन, तेल .....

कविजी उत्तेजित होइत बजलाह - हम बूझि गेलहुँ । ओ सभटा अहा कैं रिझाबक हेतु लबै छल । लुच्चा, पाजी, बदमाश !

कामिनी बजलीह - अहाँ कैं तुरन्त क्रोध भऽ जाइत अछि । आब नहि कहब ।

कविजी पुनः पोल्हाबय लगलथिन्ह - प्राणप्रिये ! हमरे सपथ अछि । सभटा कहने जाउ । ओ अहाँ कै की सभ दैत छल ? तेल लबैत छल त अहाँ फेरि किऎक नहि दैत छलिऎक ?

कामिनी - ओ लबिते नहि छल । अपने हाथ सॅं लगाइयो दैत छल ।

कविजी जी मसोसि कऽ रहि गेलाह । बजलाह - ओ अहाँ खातिर मिठाइयो लबैत छल होएत ।

कामिनी - अहाँक अनुभव ठीक अछि । ओ मुँह कऽ खोआइयो दैत छल ।

कविजीक मुँह विवर्ण भऽ गेलैन्ह । किछु धखाइत बजलाह - तखन ओ निश्चय अहाँक चुंबनो कैने हैत ।

कामिनी दाइ लजा गेलीह ।

कविजी कहलथिन्ह - बाजू, बाजू , लजाउ नहि ।

कामिनी उत्तर देलथिन्ह - जखन अहाँ बुझिए गेलहुँ त कहू की ?

कविजी उपरक मन सॅं प्रसन्न होइत बजलाह - शाबाश ! एहने साहस चाही । अहाँ आदर्श पत्नी छी एहिना सभटा कहैत जाउ । ओ कोन ठाम चुम्बन लैत छल ?

कामिनी किछु संकुचित होइत बजलीह - ओना त कतेको ठाम । किन्तु अधिकतर गाल और ठोर मे ।

कविजी कामिनीक मधुमय अधर देखि सोचय लगलाह - एहन सुन्दर अमृतक प्याली मे हलाहल विष भरल ! हाय रे मायाविनी !

पुनः जी जाँति कऽ पुछलथिन्ह - अहूँ त ओकरा स्नेहक प्रतिदान दिते छल हैबैक ?

कामिनी बिहुँसि उठलीह । दन्तच्छटा सॅं बिजली चमकि उठलैन्ह । बजलीह - ओ सभ बात की आब मन अछि ? हॅं, एक बेर हम ओकरा गाल मे दाँत काटि नेने रहिऎक से बहुत दिन तक चिन्ह बनल रहलैक ।

कविजीक मर्मस्थान मे 'टीस' मारि देलकैन्ह । ओ एक सुक्ष्म व्यथाक अनुभव करय लगलाह ।

कामिनी हुनक मनोभाव बूझि पुछलथिन्ह - की सोचैत छी । यदि ई सभ सुनि कय दुःख होइत हो त हम नहि कही ।

'अंचल' जी अपना कैं सम्हारैत बजलाह - यैह सभ त हम सुनय चाहैत छलहुँ । और यैह सभ टा घटना त जीवनक रस छैक । हमहूँ अपन अनुभव सुनाबय लागब त पोथा तैयार भऽ जाएत । किन्तु साधारण स्त्री-पुरुष कैं एतबा साहस कहाँ होइत छैक जे एहि तरहें हृदय फोलत । अहाँ सन स्पष्टहृदया स्त्री लाख मे गोटेक बहराय त बहराय । शोभा ! अहाँ धन्य छी ।

परन्तु भीतरे-भीतर एक नवीन चिन्ता 'अंचल' जी कैं सालय लगलैन्ह । ओकरा जतेक दबाबक यत्न करथि , ततेक बढ़ले जाइन्ह । अन्त मे नहि रहि भेलैन्ह । ओ अपन उच्छ्वासपूर्ण हृदय कैं एक हाथ सॅं दाबि पुछलथिन्ह - शोभा ! एक बात पुछैत छी , से छपायब नहि । देखू , ई प्रश्न करैत किछु संकोच होइत अछि । किन्तु हमरा अहाँ मे भेदे की ? अहाँक जाहि भाग पर बेलाक गजरा झूलि रहल अछि से त ओकरा हाथ मे नहि पड़ल हेतैक ?

कामिनी दाइ चुप रहि गेलीह ।

कविजी गजरा हाथ मे लैत बजलाह - देखू छपाउ नहि । नहि त हमर हृदय दू खण्ड भऽ जाएत ।

कामिनी - अहाँ सॅं किछु टा नहि छपाएब । ओ अवश्य देह हाथ धऽ कऽ दुलार करैत छल । हमहूँ कहियो रोकैत नहि छलिऎक ।

'अंचल' जी एहन निर्दय आघात नहि सहन कय सकलाह । ओ बच्चा जकाँ कामिनीक वक्षःस्थल मे सन्हिया कऽ सिसकय लगलाह । पत्नी कोमल आंगुर सॅं हुनका अशान्त मस्तक पर हाथ फेरय लगलथिन्ह । परन्तु सोभाक आंगुर हुनका बिच्छु जकाँ डंक मारय लगलैन्ह । बेलाक गजरा साँप जकाँ डॅंसय लगलैन्ह । जे वस्तु पहिने अमृतकलश जकाँ शीतलता प्रदान करैत छलैन्ह से विषकुम्भ जकाँ दाह उत्पन्न करय लगलैन्ह ।

आब कविजीक मानस मे एक अन्तिम सन्देह विकराल रुप धारण कऽ उठलैन्ह । हुनका मस्तिष्क मे ज्वालामुखी भभकय लगलैन्ह । ओ फुलवारी मे टहलय लगलाह । किन्तु शान्ति नहि भेटलैन्ह । माथ मे जतेक अधीक शीतल सुगन्ध समीर लगैन्ह ततेक अधीक ओ धीपल तावा बनल जाइन्ह ।

आखिर 'अंचल' जी घर मे गेलाह और कोनो वस्तु धोती तर नुकौने ऎलाह । पत्नी पूर्ववत निर्विकार बैसलि छलथिन्ह ।

अंचल जी अपना छाती पर पाथर राखि अन्तिम प्रश्न पुछबाक हेतु तैयार भेलाह । समस्त साहस बटोरि कऽ पुछलथिन्ह - सत्य सत्य कहू । अहाँ ओकरा अंक मे कहियो ...... शयन ..... त नहि ...... कैने हैबैक ?

कामिनी दाइ असीम साहस और धैर्यपूर्वक उत्तर देलथिन्ह - फूसि कोना कहू ? अनेको बेर ओकरा कोड़ मे सूतल हैबैक ?

'अंचल' जी कैं जेना बिजलीक 'करेंट' मारि देलकैन्ह । मस्तिष्क शून्य भऽ गेलैन्ह । ओ छुरा बाहर करैत बजलाह - जनैत छी, ई की छैक ?

कामिनी कहलथिन्ह - हम पहिनहि बुझि गेल छलहुँ जे अहाँ छुरा लाबय गेल छी ।

'अंचल' जी कामिनीक छाती मे छुराक नोक अड़ा कऽ बजलाह - खबरदार जौं हमरा सॅं एको बात छपौलहुँ । अहाँ कैं सभटा बात कहय पड़त ।

ई कहि कविजी छुराक नोक और जोर सॅं गड़ा कऽ उत्तरक प्रतीक्षा करय लगलाह ।

कामिनी कनेको बिचलित नहि भेलीह । शान्त भाव सॅं उत्तर देलथिन्ह - अहाँक छुराक हमरा भय नहि अछि । जे सत्य बात छैक से कहब । अहाँ सुनहिक चाहै छी त सुनू । ओकरा सॅं हमरा कोनो पर्दा नहि छल । हमर कोनो अंग एहन नहि जे ओ नहि देखने हो । ओ राति-दिन हमर पाछाँ व्यग्र रहैत छल । और हमहूँ ओकरा पर जान दैत छलिऎक । ओकरा बिना एको घड़ी मन नहि लगैत छल और जहाँ ओ लग मे पहुँचल कि सभ दुःख बिसरि जाइत छलहुँ । ओकरा देखितहि इच्छा होइत छल जे भरि पाँज धऽ कऽ लपटि जाइ । ओहि तरहक प्रेम आब एहि जीबन मे ककरो सॅं नहि भऽ सकैत अछि । ..... अहाँ कैं जे करबाक हो से करु ।

'अंचल' जी कैं जे सुनबाक छलैन्ह से सुनि चुकलाह । पत्नीक अतीत-गाथा सॅं हुनका मुँह पर कालिमा पोता गेलैन्ह । समस्त कवित्व विलीन भऽ गेलैन्ह और पशुत्व प्रकट भऽ उठलैन्ह । ओ उन्मत्त भऽ कऽ कामिनीक ठोंठ धऽ लेलथिन्ह और जोर सॅं दबबैत कहलथिन्ह - पापिनी ! आब तोम मरऽ लेल तैयार भऽ जो ।

ई कहि कविजी हुनक गरदनि रेतक हेतु छुरा बाहर कैलन्हि ।

कामिनी मुर्तिवत अचल रहलीह ।

कविजी पुछलथिन्ह - कलंकिनी ! मृत्यु सॅं पूर्व एक प्रश्नक उत्तर देने जो । ओ के छल ?

कामिनी अविचलित रूप सॅं उत्तर बजलीह - ओकर नाम छलैक मदन ।

कविजी उत्तेजित होइत बजलाह - म....द....न ! ओफ । तैं ने ? अच्छा, एक बात और । जखन ओ तोरा करैत छलौक त एको रत्ती लज्जाक उदय किएक नहि होइत छलौक ?

कामिनी सहज शान्त स्वर मे बजलीह - ओहि समय लज्जाक उदय हैब असम्भव छल किऎक त हम पाँचे वर्षक छलहुँ । और मदन खबास अस्सी वर्षक बूढ़ छल ।

कविजीक मूँह सॅं बहार भेलैन्ह - ऎं ।

कामिनी बजलीह - हॅं , ओ हमरा बड्ड मानैत छल । और हमहू दिन-राति ओकरे मे रितिआइल रहैत छलिऎक । वैह खोअबैत छल, पियबैत छल, खेलबैत छल, सुतबैत छल । रुसैत छलहुँ त मनबैत छल, कनैत छलहुँ त चुप्प करैत छल । आब ओकरा जकाँ के मानत ?

कविजी लज्जा सॅं आबाक रहि गेलाह । हुनक छुरा बला हाथ नीचा ससरि गेलैन्हि । कुण्ठित होइत बजलाह - तखन एतेक फूसि किऎक बजलहुँ ?

कामिनी कहलथिन्ह - हम एको बात अहाँ कैं फूसि नहि नहि कहलहुँ अछि । देखाउ जे कोन बात फूसि थिक ? आब छुरा चलबैत की होइत अछि ?

कविजी लज्जित होइत बजलाह - शोभा ! आब और बेसी नहि बनाउ । अहाँ एना छकौलहुँ किऎक ?

कामिनी उत्तर देलथिन्ह - अहाँक प्रेमक परीक्षा जे करबाक छल ! अहाँक रमणी-चरित्रक रहस्य भेटौ वा नहि, किन्तु हमरा त पुरुष-चरित्रक रहस्य भेटि गेल ।

---------------------------