लेखक : हरिमोहन झा

सरस्वती दाइ अत्यन्त संस्कारिणी ओ चमत्कारिणी छलीह । दुर्गा ओ गीता पाठ करयवाली । बजबाक चमत्कार तेहन जे अरिकोंच कैं 'अरिकंचन' कहैत छलीह, बॅंसबाड़ि 'वंशवाइरि' ।

परन्तु भगवानो त विचित्र कौतुकी छथि । हुनक विवाह भेलैन्ह भदेशक मौजे लाल झा सॅं जे निट्ठाह दक्षिणाहा गृहस्थ छलाह । साल मे पाँच सै मन अल्हुआ उपजैनिहार । जहाँ सरस्वती दाइ छवि कऽ सजमनि कऽ 'साजमैनि' कहैत छलथिन्ह तहाँ मौजेलाल झा 'कदुआ' बजैत छलाह । विवाह काल सहस्रो प्रयत्न कैला उत्तर हुनका मुँह सँ सहस्रशीर्षा मन्त्र नहि बहरा सकलैन्ह ।

प्रथमे रात्रि सँ सरस्वती दाइ अपना स्वामी कैं धूसय लगलीह । पुछलथिन्ह - की? अहाँ मिथिला भाषा बाजि सकैत छी? हमरा सँ गप्प करु त ।

परन्तु दीयरक कात रहयवाला मौजेलाल झा पंचक्रोशक कन्या सँ की बजितथि? चुप्पे रहलाह ।

जखन सरस्वती दाइ बहुत दिक कैलथिन्ह त बजलाह - हमरा के जैसने बोले आएत वैसने न बोलब! हीन उछन्नर बड़े करइ छथ ।

सरस्वती दाइ झमा कऽ रहि गेलीह । माथ पर हाथ दऽ कऽ बैसि रहलीह । आब मौजेलाल झाक कंठ फुजलैन्ह । पुछलथिन्ह - अब चुप्प बड़े हो गेलन? एतना देर से फटफट करैत रहलन। अब बोलती काहे बन्द हो गेलइन?

ओही राति सरस्वती दाइ संकल्प कैलन्हि जे आजन्म ब्रह्मचारिणी रहब बरु कबूल, किन्तु एहन गमार सँ अपना शरीरक स्पर्श नहि होमय देब ।

ओ नीचाँ मे कुशासन बिछा कऽ सूति रहलीह ।

मौजेलाल झा पुराइ कैलथिन्ह - ले बलैया! हिन चटइया पर बड़े चल गेलन? भुँइया मे ओतना तकलीफ करे के कौना काम है?

ई कहैत मौजेलाल झा पहुँचि गेलथिन्ह । सरस्वती दाइ आँखि मुनि कऽ सूति रहलीह ।

मौजेलाल झा पुछ्लथिन्ह - ऊ गोर के अङुरी मे की हो गेल है? कैसे कऽ छूटत? सरस्वती दाइ आँखि झाँपनहि कहलथिन्ह - सामान्य व्रण अछि । नीमक तेल सँ छूटि जाएत ।

ई कहि सरस्वती दाइ सूति रहलीह । परन्तु मौजेलाल झा कैं निंद नहि पड़लैन्ह । ओ अपन योग्यताक अभाव शुश्रूषा द्वारा पूर्ति करय चाहलन्हि । चुपचाप भानसघर मे जा नोन तेल सानि कऽ मुट्ठी मे नेने ऎलाह और सूतल पत्नीक घाव पर औंसि देलथिन्ह ।

सरस्वती दाइ छिलमिला उठलीह । बजलीह - अहाँ हमर कनगुरियो आङुर स्पर्श करवा योग्य नहि छी । फराक रहू ।

मौजेलाल झा अप्रतिभ होइत बजलाह - देखू धन्धा! अपनहीं बोललन जे नीमक तेल लगैला से छूटत । आव हमरा के उल्लुदुत्तू करै छथ । 'नीमक तेल' ऎसन न होइत है, तव कैसन होइत है?

तहिया सँ मौजेलाल झा नाना उपाय कऽ कऽ हारि गेलाह, किन्तु सरस्वती दाइ सन्तुष्ट नहि भेलथिन्ह ।

सासुरो गेला उत्तर सरस्वती दाइ अपन टेक नहिए छोड़लन्हि । मौजेलाल झा कैं पृथक शय्या विधान त पसन्द नहि छलैन्ह, परन्तु पंडिता पत्नीक समीप जैवाक साहस नहि पड़ैत छलैन्ह । अभिमानिनी भार्याक दर्प चूर्ण करवा मे असमर्थ छलाह । अतएव लज्जित और पराजित जकाँ रहेत छलाह ।

तथापि एक राति मौजेलाल झा किछु साहस कैलन्हि । पुछलथिन्ह - अब एङत केतना रोज चलत ? हमरा के की हुकुम मिलैत है ?

गर्विता पत्नी उत्तर देलथिन्ह - अहाँ पहिने हमरा सॅं गप्प करबाक योग्य होउ । मिथिला भाषा सीखू ।

मौजेलाल झा बजलाह - हमरा के कौना बखत फुरसत रहैयऽ जे सीखब । एसकरुआ आदमी ठहरली । दिन भरि खेती-बारी के धन्धा है, माल-जाल है । फेर हाट-बजार है, मामला-मोकदमा है तब कैसे काम चलत ?

सरस्वती गर्वपूर्वक कहलथिन्ह - अहाँ नित्य रात्रि मे दू घंटा कऽ हमरा सॅं पढ़ल करु ।

तहिया सॅं मौजेलाल झा अपना पत्नीक विद्यार्थी बनि गेलाह ।

सरस्वती दाइ कहलथिन्ह - पहिने अहाँ शब्दक शुद्ध उच्चारण हमरा सॅं सीखू । हमर नाम बाजू त।

मौजेलाल झा बजलाह - सरोसत्ती ।

सरस्वती दाइ बजलीह - छीः ! 'सस्वती' कहू ।

मौजेलाल झा लाखो प्रयत्न कैला उत्तर 'सरस्वती' नहि कहि सकलाह ।

पत्नी भर्त्सना करैत कहलथिन्ह - अहाँ कालिदास बला परि करैत छी । मन मे अबै अछि जे ..... किन्तु की कहू ? जखन एतबा भऽ जाएत तखन हम आगाँ पढ़ाएब ।

सरस्वती देवी सूति कऽ उपन्यास पढ़य लगलीह और मौजेलाल झा भरि राति 'सरोसत्ती' 'सरोसत्ती' रटैत रहलाह ।

सरस्वती खिसिया कऽ बजलीह - 'कन्यादान' क लेखक कैं हम की कहिऔन्ह ? हुनका बुच्चीदाइ त सुझलथिन्ह, किन्तु एहन-एहन भुच्च मुर्खराज सभ नै सुझैत छथिन्ह । हमरा त उनटे कपार पर पड़ल । एहि पर लिखयबला केओ नहि ।

दोसरा दिन मौजेलाल झा बथान जाय लगलाह त पत्नी कहलथिन्ह - देखू , आइ आर्द्राक पाबनि हेतैक । पर्याप्त दूध चाही ।

मौजेलाल झा बजलाह - दूध के कौना कम्मी है ? मगर आइस के पतड़ा के हाल केङत कऽ बुझा गेल ? अच्छा त सॅंकरात कौना रोज है ?

सरस्वती पंचांग देखैत बजलीह - 'संक्रान्ति' कहिऔक ।

मौ० - लगपाँचो त लगिचाएले होयत ?

सरस्वती कान मुनैत बजलीह - ओफ् ! कान मे जेना गोली दागि देलहुँ । 'नागपंचमी' बाजू ।

मौ० - तब आइ अरदरा के पबनी मे की करै के होतइ ?

स० - खीर-पूरी बनतैक । ब्राह्मण भोजन होयतैक ।

मौ० - तब केकरा केकरा के नेओता देबे के होतइ ?

स० - जे विद्वान होथि, गायत्री जपैत होथि .....

मौ. - विद्दोमान त एह जयबार मे एगो जगरनाथ ओझा छथ। मगर गाएतरी जपे के हाल....

स. - राम! राम! श्ब्द सभ कैं एना लट्ठ नहि मारिऔक।

मौ. - जगरनाथ, हरिचन्नर, सतलरायन....

सरस्वती शुद्ध करैत बजलीह- जगन्नाथ, हरिश्चन्द्र, सत्यनारायण।

मौ. - हॅं, एह तीनू के जिमा देबइ। संदुकची मे से बड़का-बड़का छीपा कटोरा निकाल लेब। और घर मे त सब कुछ मौजूदे हबे। घीउ, रहड़ी के दाल...

स. - 'घृत', 'राहड़िक दालि' कहिऔक। तरकारी कथीक हैतैक?

मौ.- छप्पर पर कदुआ फरले है। बाड़ी मे से अडुआ उखाड़ लेब।

सरस्वती दाइ शुद्ध करैत बजलीह -'साजमैनि', 'आडु'।

मौ. -हॅं, ऊहे। हमरा के एतना जीभ ऎंठ कऽ बोले न अबैए। आब बथानो जाए के बखत हो गेल।

सरस्वती दाइ माथ पर हाथ धऽ कऽ झखय लगलीह- हाय-हाय! केहन भारी गमारक हाथ मे हम पड़ि गेलहुँ? एहि मूर्खमंडली मे हमर गुण के बूझत? राति मे सरस्वती देवी अपना स्वामी कैं खूब गंजन कैलन्हि। मौजेलाल झा कैं निपट्ट गमार, वज्र बनिहार, प्रचंड भठियार, निठट्ठ महिषवार आदि नाना उपाधि सॅं विभूषित करैत कहलथिन्ह - अहाँ कैं हमरा सॅं विवाह करबाक कोन अधिकार छल? हमरा गामक हरहो-सुरहा सभ अहाँ सॅं नीक बजैत अछि। अहाँ कैं संस्कृतिक लेशमात्र गन्ध नहि अछि। साहित्य ओ कला सॅं कोनो सम्पर्क नहि। भोनू भाव न जानय, पेट भरन सों काम। एको रत्ती लज्जा नहि होइत अछि? साहित्यसंगीत कलाविहीनः साक्षात् पशु पुच्छविषाणहीनः। इत्यादि, इत्यादि।

क्रोध और ग्लानिक द्वारें सरस्वती दाइक नेत्र सॅं झरझर अश्रुपात होमय लगलैन्ह।

जखन मौजेलाल झा कैं सभटा सुनल भऽ गेलैन्ह त पत्नी कैं आश्वासन दैत बजलाह- आब लोर चुऎला से कोन फैदा? हींया खाउ, पीउ, मौज करू। चार चार गो भैंस है। दही दूध घीउ खूब ठेल कऽ खाउ। एमरी खैनी बिकाएत तब निम्मन सारी महनार से लेले आएब। अगर ऊख के चलती हो गेल तब गहनो बनबा देब। बोलू, कोन कोन चीजके खाहिश होइअऽ? बाजू, बिजौछ, हॅंसुली, कमरकस्स .....

सरस्वती दाइ अधिक नहि सुनि सकलीह। कहलथिन्ह- हाय हाय! कान मे बर्छी किऎक भोंकैत छी? हमरा एहि सभ बातक कष्ट नहि अछि।

मौजेलाल झा बजलाह - तब कौन बात के रंजिश हे? असलीयत मे देखू त कुच्छ बात न है। और अगरचे इहाँ जास्ती तकलीफ बुझाय त नैहरा खत भेज दिऔन जे कुछ रोज के वास्ते रोखसद्दी करा करके ले जैतन।

स.- अहाँ हमरा हृदयक भाव नहि बूझि सकैत छी।

मौ.- अगर ....

स. - फेर अगर! 'यदि' बजैत की होइत अछि?

मौ. - मगर ...

स.- मगर नहि, 'किन्तु'।

मौ.- अहाँ त हमर जुबाने पकड़ लइ छी, तब हम बोलू केङत कऽ? बिहान अङुतिया मे....

स. - अङुतिया नहि, 'प्रातःकाल'।

मौ. - अच्छा भाइ, सेहे रहो। मगर बतबो त सून लिउ। कहे के मतलब ई है जे ...

स.- ' कथाक तात्पर्य' कहू।

मौ.- बाप रे बाप! अहाँ के नैहरा मे एतना 'संस्कीरित' की पढा देलक जे हमरा जान के आफत कैलक।

स. - हे भगवान! अहाँक जिह्वा कोन धातु सॅं बनल अछि? संस्कृतक ओना संस्कार नहि करिऔक।

मौं. अच्छा तब मोखतसर मे बात ई है जे कचहरी मे लाट दाखिल करे के है । बिहार मुजफरपुर जाए के पड़त । अगर कोई चीज के जरुरत होय त बोलू जे लेले आएब।

स. - हमरा एकटा गीता चाही । और की कहूँ? यदि भेटि जाय त एकटा 'भलमानुसो' नेने आएब ।

मौं. - गीत के किताब त जौन - जौन रंग के मिलत से हम लेले आएब। गजल, ठुमरी, कजरी, लावनी, बरहमासा । मगर भले आदमी अहाँ के वास्ते हम कहाँ-कहाँ खोजने भेल फीरब? और जौन बात कहू मगर ई बात - जे है से - हमरा के बरदाश्त न हो सकैयऽ ।

स. मियाँ बुझलन्हि पेयाउजु! 'भलमानुस' उपन्यासक नाम छैक । और गीता मे श्लोक छैक, गीत नहि । यदि गीते अनबाक हो त विद्यापतिक पदावली नेने आएब ।

मौ. - की बोलली? विद्यापद्यावली? हमरा के एतना नाँव इयाद रहनाइ मोशकिल है। एकठो पुर्जी मे लिख कऽ हमरा अधबाँही के जेबी मे रख दीउ। देखब, कैथी हरुफ मे लिखब ।

मौजेलाल झा मुजफफपुर गेलाह त ओतय मामिला मे ओझरा गेलाह । दू एक किता नालिस दायर करबाक रहैन्ह, एक मामिला मे पैरबी करबाक रहैन्ह । ताहि सभ मे पन्द्रह दिन लागि गेलैन्ह ।

सरस्वती दाइ उपालम्भपूर्ण पत्र लिखि पठौलथिन्ह । सारांश ई जे - 'अहाँ कालिदासक अभिशापित यक्ष जकाँ प्रवासी बनि गेलहुँ । ओ त भला मेघ कैं दूत बना कऽ अपना विरहिणी नायिकाक ओतय पठौलक । किन्तु अहाँ एक टा पत्रो पठाएव आवश्यक नहि बुझैत छी, प्रोषितपतिका नवोढाक व्यथा अहाँ कैं अनुभव करक चाही। हम एकान्तवासिनी योगिनी जकाँ जीवन व्यतीत कय रहल छी । यदि ऎबा मे विलम्ब हो त कृपया दू अक्षर लिखियो कऽ पठाउ जे वियोगानल सँ दग्ध ह्रदय शान्ति भेटय ।' इत्यादि ।

जखन पत्नीक अलंकृत भाषामय पत्र मौजेलाल झा कैं भेटलैन्ह त ओ घबरा गेलाह । किऎक त जहाँ सरस्वती दाइ काव्य रचना करैत छलीह तहाँ मौजेलाल झा केवल हुट्ठा धरि पढने छलाह। अतएव ओ दौड़ल कचहरी मे मुन्शीजी सॅं राय-मोशबिरा करय गलाह। मुशंजी कैं केवल कचहरीए उर्दू मे मोंछ पाकल रहैन्ह। प्रेमपत्र पढबा वा लिखबाक कहियो काज नहि पड़ल रहैन्ह। अतएव ओहो मुश्किल मे पड़ि गेलाह। परन्तु फेर त ओ मुन्शीएजी रहथि। मजमूनक अन्दाज लगा, जबाबक बाजाप्ता मोसबिदा तैयार कऽ देलथिन्ह जकर नकल नीचा देल जाइत अछि-

मनके मौजेलाल झा, वल्द कुंजीलाल झा मोताफा , साकिन मौजे भैसबाड़ा, थाना बरियारपुर, प्रगन्ना दियरा की तरफ से मोसम्मात सरोसत्ती देवी को मुनासिब सलाम बंदगी पहुचे । हाल गुजारिश यह है कि चंद जरुरियात की वजह से मनमुकीर वक्त मुकर्रिर पर हाजिर नही हो सका, जिसके लिए फिदवी को निहायत रंज वो अफसोस है ।

मुंसिफ दोएम के इजलास मे तमस्सुक वाला मामला पेश है । तमादी वाला मुकदमा अदमपैरबी से खारिज हो गया और सदरआला साहब के यहाँ सानी तजबीज होने मे अभी देर है । इन सभ मुतफरकाती कार्रवाइयों के लिए हम और एक हफ्ते की मोहलत के लिये आपसे इस्तगासा करते हैं जो आपके कबूलो मंजूर करने से शुक्रगुजार होंगे । बमूजिम फिहरिस्त तीन अदद किताबें तीन रुपया बारह आने मे जिसका निस्फ एक रुपया चौदह आने होता है , आपके वास्ते खरीद हुई है। जिनकी रसीद आने पर पेश की जायगी । और मुहब्बत मे जुदाइ का सदमा होना कायदे की बात है । हमको भी आपके बगैर बहुत नुकसान पड़ रहा है जो इस तहरीर मे बयान नही हो सकता ।

आपका शौहर मौजेलाल झा बकलम खास ।

जखन ई पोस्टकार्ड सरस्वती दाइ कैं पहुचलैन्ह त हुनका पुनः दोसर प्रेम पत्र लिखबाक साहस नहि भेलैन्ह ।

मौजेलाल झा गाम एलाह त सरस्वती दाइ अभिरोष करैत कहलथिन्ह - स्त्री कैं ओहिना चिट्ठी लिखल जाइत छैक ? अहाँ मे एको रत्ती रस नहि अछि । रस ककरा कहैत छैक से बुझबो करैत छिऎक ?

मौ० - दुत्तोरी के भला ? रस के मतलब कल्ला न बुझाएत ? आम के रस, कटहर के रस, ऊख के रस ......

स० - बस,बस, रहऽ दियऽ । अहाँ सोझेसोझ मोटका अर्थ जनैत छी । लक्षणा व्यंजना सॅं कोनो सम्पर्क नहि । व्यंग्यक आशय बुझैत छिऎक ?

मौ० - आब अहूँ हमरा से दिल्लगी करे लगली । भला बेङ के न चीन्हत । लड़िकारि मे केतना बेङ ढाबुस के मार देले होयब ।

स० - हाय राम ! कोना बुझाउ ? अहाँ साहित्य पढू । आइ सॅं अहाँ के विद्यापतिक पदावली पढ़ाओल करब ।

राति मे जखन भोजनादि सॅं निश्चिन्त भय दम्पति शयनागार मे एलाह त सरस्वती देवी पदावली खोलि कऽ बैसलीह । पद मे नखशिख-वर्णन छलैक ।

भउँहक कथा पुछहु जनु । मदन जोड़ल काजर धनु ॥

सरस्वती दाइ बुझाबय लगलथिन्ह - देखू , एहि मे सुन्दरीक भौंहक वर्णन छैक । दुनू भौंह केहन लगैत छैक त जेना कामदेव दूटा काजरक धनुष जोड़ि कऽ राखि देने होथि । अहा ! की सुन्दर उत्प्रेक्षा छैक । कवि उपमा देबय मे हद कऽ देने छथि ।

मौजेलाल झा कैं कविक चमत्कार पर दृष्टि गेलैन्ह वा नहि से त वैह जानथि , किन्तु पत्नीक भौंह कैं गौर सॅं तकलन्हि । सरस्वती दाइ आगाँ बढ़लीह -

मुख मनोहर अधर रॅंगे । फूललि मधुरि कमल सॅंगे ॥

एहि मे सुन्दरीक मुखमंण्डलक वर्णन छैक । मुखक सोभा कमल समान मनोहर । तकरा बीच मे ठोरक लाल रंग मधुरिक फूल जकाँ । कवि उत्प्रेक्षा करैत छथि जे कमलक सन-सन जेना मधुरिक फूल फुलाएल हो । की बुझलिऎक ।

मौजेलाल झा अध्यापिकाक ठोर कैं गहकी नजरि सॅं तजबीज करय लगलाह । आगाँक पद सभ और कठिनाह छलैन्ह -

पीन पयोधर दूभरि गता । मेरु उपजल कनक लता ॥

सरस्वती दाइ थकमकाय लगलीह । ताबत मौजेलाल झा निर्विकार भाव सॅं पूछि बैसलथिन्ह - पीन माने त बुझली जे पीनी तमाखू । मगर ई पयोधर कौना चीज के नाम है ?

सरस्वती दाइ कठिन संकट मे पड़ि गेलीह । कहलथिन्ह - आब कोना कऽ अहाँ कैं बुझाउ ? ई त साधारण शब्द छैक । देखू पीन माने पुष्ट और 'पयोधर' मेघो कैं कहैत छैक, किन्तु एहिठाम से अर्थ नहि छैक।

मौ. - तव जौन अरथ होय से खुलासा समझा कर कहू । हमरा जादे फुरसत न हबे । एक ठो दस्तावेजो खोजकर अभी निकाले के है ।

सरस्वती दाइ बजलीह - बड्ड मुश्किल, कोना अहाँँ कैं बुझाउ? अच्छा, पहिने उपमे बुझा दैत छी । देखू । गोर नारि दुव्वरि पातरि स्त्री कैं सोनक लता सँँ उपमा देल गेल छैक । दुव्वर अछि, तैं लता, चमकैत अछि, तैं सोन । तेहन लता मे दूटा फल उत्पन्न भेल छैक । से दुनू फल तेहन विशाल बूझि पड़ैत अछि जेना एक जोड़ पर्वत राखल हो । आव बुझिलिऎक?

मौ. - बाप रे बाप! अहाँँ त बुझौअल बुझावे लगली । सोना के लत्ती मे पहाड़ कैसे कऽ फरइ? ई अजगुत बात कोहरा-कदुआ कहिती त भला पतिआइओ जयती । जौन ई बात लिखलक है से भारी झुट्ठा है ।

स. ई 'अलंकार' कहबैत छैक ।

मौ. - अलंकार-फलंकार हम न जानी । जे असलियत बात होय से साफ-साफ खोलकर बतलाउ ।

सरस्वती दाइ आँँखि निहुरा कऽ अपना दिशि ताकय लगलीह । शिक्षार्थिओक ध्यान ओम्हरे आकृष्ट भेलैन्ह ।

एकाएक मौजेलाल झा कैं पदक अर्थ लागि गेलैन्ह । बजलाह - ओहो । आब बुझली । ई बात एतना रोज से काहे न कहैत रहली ?

सरस्वतीक छाती धरकय लगलैन्ह जे ई गमार अपना मन मे की बुझलक से नहि जानि ।

ताबत मौजेलाल आगाँँ बढ़लाह ।

सरस्वती दाइ पाछाँँ हटैत बजलीह - आब आगाँँक पद बुझू ।

मौजेलाल झा बजलह - आगू के पद रहे दिउ । हम त मुरुख हती । जास्ती बात बनाबे न अबैयऽ । काम से मतलब ।

सरस्वती दाइ अपना कैं छोड़बैत चिचिया उठलीह - छोड़ू । हमरा किऎक धैने छी ? मूर्ख , पशु , गमार !

मौजेलाल झा बजलाह - आब चाहे कुच्छो कहू । मगर बॅंच न सकैत हती । केतनो पढ़ल रहू , लेकिन हती त आखिर मेहरारुए । ताकत मे हमरा से न जीत सकैत हती । हम अहाँँ के लेखे बुड़बक हती लेकिन एहि मौजे मे डेढ़ पाइ के मिलकीयत त हमरे है । एक बात जौन बात हमरा दिल मे पैठ गेल से फेन हट न सकैयऽ । अहाँँ के नैहरा के गरभ (गर्व) है त हमरो के गरभ करे अबैयऽ ।

'भकार' क एहन प्रयोग देखि सरस्वती दाइ सिहरि उठलीह । बजलीह - गरभ नहि, गर्व ।

मौजेलाल झा बजलाह - 'गरभ' गरब सब एके चीज है । आब हमरा के जास्ती न सिखाउ ।

सरस्वती दाइक सभटा चमत्कार व्यर्थ गेलैन्ह । ओ आब 'गर्विणी' नहि रहि सकलीह । ओही दिन मौजे लाल झाक साहित्य-शिक्षा समाप्त भऽ गेलैन्ह ।

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