12. ब्रह्मानन्द खट्टर ककाक तरंग
ओहि दिन फगुआ रहैक । खट्टर कका केसर बादाम दऽ कऽ भाङ्ग छनैत रहथि । हमरा देखितहि बजलाह - आबह-आबह । आइ केसरिया छनैत छैक। एक गिलास तोहूँ पीबि लैह ।
हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, हम त नहिं पिबैत छी ।
ख० - तखन किऎक जिबैत छी ? नोनकाढा पीबक हेतु ? हौ, ई मानव जन्म बारंबार नहिं भेटतौह ।
हम - खट्टर कका, हमरा डर होइ अछि ।
खट्टर कका बजलाह – हौ, आर्यकुल क नाम किऎक हॅंसबैत छह ? अपना वंश क सनातन धर्म केओ छोडय ?
हम – ई सनातन धर्म कोना भेल ?
ख० - वेद पढह तखन बुझ बुझबहौक जे हमरा लोकनि क पूर्वज कोना 'सोमपान करैत छलाह। ॠग्वेद क प्रथमे मंडल सॅं जे सोमक स्तुतिगान आरंभ भेल अछि से किऎक सम पर आओत ? नवम मंडल में त तेहन सोमरस क प्रवाह छुटल छैक जे सभ किछु ओही में डुबि गेल अछि ।
हम० - परन्तु सोमरस भांगे थिक तकर प्रमाण ?
ख०- प्रमाण एक दू नहिं, अनेको । देखह , ओ कुंडी सोंटा सॅं घोटल जाइ छल1 । लोढा लऽ कऽ पीसल जाइ छल2। वस्त्र सॅं छानल जाइ छल3 । दूध वा पानि में घोरल जाइ छल4। ओहि में कइएकटा मसाला पडैत छलैक5। ओ तीन रंग क छानल जाइत छल – हरियर, उज्जर ओ पीयर अर्थात सादा, दुधिया ओ केसरिया । एहि तीनू रंग क वर्णन वेद में आयल अछि ।``````` यदि एतबो पर तोरा संदेह हो त ओ भांग नहिं थीक तखन बुझबाक चाही जे तोरा बुद्धिए में भांग पडल छौह ।
हम - परन्तु किछु गोटा सोमरस क अर्थ ज्ञान अथवा चन्द्रमा क किरण लगबैत छथि ।
ख०- हुनका लोकनि कैं बुद्धिक अजीर्ण हैतैन्ह । जेना कतेक गोटा कैं विद्या-पति क वर्णन में आत्मा परमात्मा क संयोग भेटि जाइत छैन्ह । परन्तु हौ जी ? हम त सोझ-सोझ बात बुझैत छी यदि सोम क अर्थ ज्ञान त ओ मूसर सॅं कोना कूटल जाइत छल ? यदि चन्द्रमा क किरण, त लोढा सॅं कोना पीसल जाइत छल ?
हम - तखन सोम भांगे छल ?
ख०- अवश्य । अध्याय क अध्याय त एकरे वर्णन सॅं भरल अछि ! कतहु छानबाक वर्णन। कतहु घोरबाक वर्णन । द्रष्टा लोकनि कैं एहि में अपूर्व आनन्द भेटैत छलैन्ह । देखह, देवता क राजा इन्द्र ततेक पिबैत छथि जे बुत्त भऽ जाइ त छथि । तेना पिबैत छथि जे दाढी-मोछ पर्यन्त रस सॅं भीजि जाइत छैन्ह । दाढी सॅं चुबैत रस कैं झाडैत छथि। आबक लोक की पिउत ?
हम- परन्तु यदि सोमरस वास्तव में भांग छल तखन मनीषी लोकनि ओहन गंभीर तत्व `````````
ख०- हौ, गाढ रंग छनले उत्तर त गंभीर तत्व सुझैत छैक। तैं वैदिक ॠचाकार लोकनि सोमरस क प्रवाह में तेहन रस बहा देने छथि जे कलम-कलम त नहिंए रहैन्ह – काठी तोडि देने छथि । वेद में जेहन श्रृंगार रस छैक तेहन सं सार क कोनो साहित्य में नहिं भेटतौह ।
हम चकित होइत पुछलिऎन्ह – ऎं ! वेद में श्रृंगार-रस ? हमरा त होइ छल जे वेद में केवल भगवाने टा क चर्चा हैतैन्ह ।
खट्टर कका बजलाह – तों वेद देखलह कहिया ? जे वेद क नामे टा सुनने छथि से एहिना बुझैत छथि । परन्तु वेद खोलि कऽ देखह तखन ने बुझबहौक जे ओहि में की सभ छैक । सहस्रशीर्षा मन्त्र सॅं लऽ कऽ सौतिन कैं मारबाक उपाय पर्यन्त ओहि में भेटि जैतौह ।
हमरा मुँह तकैत देखि खट्टर कका बजलाह –हमरा लोकनि क वेद की थीक जे भानुमति क पेटारी थीक । जे चाही से ओहि में सॅं निकालि लियऽ । तै वेद सॅं केओ हवाइ जहाज बहार करैत छथि , केओ रेडिओ बहार करैत छथि । हम भांग बाहर कऽ लेल त कोन अनुचित कैल ?
हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका , एकटा बडका महामहोपाध्याय सिद्ध करैत छथि जे रेलोगाडी बनैबाक मन्त्र वेद में छैक ।
खट्टर कका बादाम घोरैत बजलाह – हॅं, लेकिन ओहि रेलगाडीक एंजिन हुनके दिमाग क भीतर सीटी दैत छैन्ह । हौ, हम पुछैत छिऔह देश में हाँज क- हाँज पंडित भरल छथि जे राति दिन 'गणपतिग्वं हवामहे ' करैत रहैत छथि । किऎक ने सभ गोटा मिलि कऽ 'शुद्ध वैदिक रेलवे' चला लैत छथि ? रेल क कोन कथा, एक टा साइकिलो ई लोकनि आइ धरि बाहर कय सकलाह अछि ? और जखन एक विलायत क बच्चा 'एटम बम' अविष्कार कऽ संसार क दिग्विजय कऽ लैत अछि त हिनका लोकनिक निंद टुटै छैन्ह । हाफी लैत, चुटकी बजबैत गलथोथी करय लागि जाइत छथि - ‘आः ! ई वस्तु त हमरा अथर्ववेद क थीक ।' हौ, एकरे कहै छैक थेथरपनी - ‘एकां लज्जां परित्यज्य सर्वत्र विजयी भवेत् ।'
हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, वास्तव में रेल, तार, बिजली, रेडिओ, ग्रामोफोन, टेलीफोन, एरोप्लेन, रौकेट सभ किछु त वैह सभ बाहर कैलक । अपना देशक पंडित की कैलन्हि ?
खट्टर कका भांग में मलाइ मिलबैत बजलाह – अपना देश क पंडित केवल घोंघाउज कैलन्हि । कहियो जितिया लेल । कहियो छैठ लेल । कतहु 'घटो-घटः' लऽ कऽ । कतहु 'नीलो घटः' लऽ कऽ । अतीचार कहिया पडैत अछि ? दुर्गाजी कथी पर चढि कऽ अबैत छथि ? एहि सभ बात सॅं फुरसति होइतैन्ह तखन ने हेलिकोप्टर वा टेलिभिजन बाहर करितथि ?
हम कहलिऎन्ह - परन्तु आध्यात्मिक विषय में`````
खट्टर कका बजलाह - आब बेसी तामस जुनि उठाबह । 'आध्यात्मिक' शब्द सुनि कऽ हमर देह जरि जाइत अछि ।
हम - से किऎक खट्टर कका ?
खः० – यैह 'आध्यात्मिक' हमरा सभ कैं चौपट्ट कऽ देलक ।
हम - से कोना ?
ख०- ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या - यैह वेदान्त त हमरा लोकनि कैं अकर्मण्य बना देलक । संसार मिथ्या, शरीर मिथ्या, धन मिथ्या, जन मिथ्या, जीवन मिथ्या, सुख मिथ्या - सर्व मिथ्या । बस वस्तु मात्र कैं स्वप्नवत कऽ कऽ बुझैत रहू । चीन में हफीम, भारत में वेदान्त ! हौ, एशिया क बीये बताह छैक ।
हम - परन्तु आनोआन देश क लोक त वेदान्त क प्रशंसा करैत अछि ?
ख० – हॅं, हमरा लोकनि जतेक वेदान्ती बनल रही ततेक आन देश कैं फायदा छैक ।
हम - से कोना ?
ख० - जखन ओ सभ चढाइ कऽ देत त हमरा लोकनि 'सोऽहम' जपैत रहि जाएब । यैह 'सोऽहम' करैत-करैत त हम सभ 'सोहल सुथनी' भऽ गेलहुँ ।
हम - परन्तु पारमार्थिक दृष्टिएँ````````
ख०- फेर वैह बात ? हौ, पारमार्थिक दृष्टिएँ हमरा लोकनि कोन जग जितने छी ? किनका ब्रह्मक साक्षात्कार भेलैन्ह अछि ? हमरा त आइ धरि केओ ब्रह्मज्ञानी नहिं भेटलाह अछि । जौं गप्प सुनबाक हो तखन त 'बढमथान' मे बढम बाबा पूजयबला भगतो एहि देश में वेदान्त छुटैत अछि ! “कलौ वेदान्तिनः सर्वे फाल्गुने बालका इव " ।
हम - परन्तु जकरा ब्रह्मानन्द क रस प्राप्त भऽ गेल छैक से ``````
खट्टर कका क दुधिया भांग तैयार भऽ गेल छलैन्ह। बजलाह - ब्रह्मानन्द क रस यैह थिकैक। हम त रस, आनन्द ओ ब्रह्म, एहि तीनू कैं एक्के कऽ बुझैत छी। ई कहि खट्टर कका लोटा उठौलन्हि और पिबैत-पिबैत आनन्द में विभोर भऽ गेलाह ।
हम पुछलिऎन्ह - खट्टर कका, अहाँ रस क अनन्य प्रेमी थिकहुँ । परन्तु षट्रस में बेसी आनन्द भेटैत अछि कि नवरस में ?
खट्टर कका क आँखि में लाली आबि गेलैन्ह । बजलाह - हम दूनू में कोनो भेद नहिं बुझैत छी । साहित्यक नवो रस हमरा षटरस में भेटि जाइत अछि । श्रृंगार और मधुर एक्के थीक। जैह रस विद्यापतिक 'वरयौवति' में छैन्ह, सैह रस हमरा मालदह आम में भेटि जाइत अछि । हास्य क स्वाद हमरा अम्मत में भेटि जाइत अछि । जैह गोनू झा क चुटकुल्ला, सैह तेतरिक खटमिट्ठी । वीर ओ रौद्र क अनुभव हमरा लौंगिया मरचाइ में भऽ जाइत अछि । और वीभत्स क अनुभूति तीत में। करुण रस क तत्व लवण में भेटि जाइत अछि और शान्त रस क तत्व कषाय में । वैराग्य शतक पढू अथवा त्रिफलाचूर्ण फाँकू, एक्के बात थीक । अद्भुत रस क आनन्द हमरा पिपरमिंट में भेटि जाइत अछि ।
हम पुछलिऎन्ह - खट्टर कका, अहाँ कैं कोन रस में विशेष आनन्द भेटैत अछि ?
खट्टर कका बजलाह – हमरा रसमात्र में आनन्द भेटैत अछि । चाहे ओ रस अनार क हो वा कविता क । साहित्य क रस हो वा कुसियार क । विचारि क देखल जाय त सभ रस एक्के थीक । चाहे ओ मदिरा में हो वा मदिराक्षी में ! मृगनैनी में वा नैनी माछ में । कंचुक में वा कंचु क पात में ! गोपी मे अथवा गोपी आम में ।
खट्टर कका तरंग में आवि गेलाह । बजलाह - रस की वस्तु थीक ? जल क सूक्ष्मतम कण। वैह कण पुष्प में जा मधु बनि जाइत अछि, अंगूर मे जा आसव बनि जाइत अछि, मोती में जा 'आभा' बनि जाइत अछि, तरुणी क गाल पर जा ओज बनि जाइत अछि । अरुणाइ पर अबैत काश्मीरी सेव और तरुणाइ पर अबैत काश्मीरी गाल एक्के उपादान क दू भिन्न स्वरुप थीक । तैं तात्विक दृष्टिएँ डंभक लताम और मुग्धा नायिका में कोनो भेद नहिं । एहि विषय में हम शुद्ध अद्वैतवादी छी । काव्य-रस ओ द्राक्षा-रस में, गंगाजल ओ गुलाबजल मे, चरणामृत ओ अधरामृत में हमरा भेद नहिं बूझि पडैत अछि । छेना क संदेश हो वा प्रियतमा क, दूनू में हमरा समान माधुर्य भेटैत अछि । कविता ओ कामिनी क पद में हमरा एक्के कोमलता क अनुभव होइछ । बेला फूल गेल, इजोरिया छिटकि गेल, सुन्दरी मुसकुरा उठलीह । बात एक्के थीक। कलकंठी खिलखिला उठलीह वा शेफालिका क फूल झहरि गेल अथवा चाशनी में बुनिया उझिला गेल - एहि तीनू में भेद की ?
हम कहलिऎन्ह – अहा ! माधुर्य क बाढि आबि गेल । खट्टर कका, आब अहां असली रंग में आबि गेलहुंँ ।
खट्टर कका अपना प्रवाह में बजैत गेलाह – हौ, एही रस कैं सच्चिदानन्द परब्रह्म वा भगवान आदि नाना नाम देल गेल छैन्ह । ई 'नाना रूपधरो हरिः' थिकाह । कतहु बैखरी रूप में योगी क नचबैत छथि । कतहु किन्नरी रूप में भोगी कैं नचबैत छथि । कतहु सरोज बनि भ्रमर कैं रिझबैत छथि । कतहु सुरालय (देवालय) बनि आस्तिक कैं मोहैत छथि, कतहु कंचन रूप में । कतहु वारांगना रूप में ।
ई रस नित्य ओ शाश्वत थिकाह । अनादि काल सॅं हिनक उपासना होइत आवि रहल अछि। वैदिक क सोम वा आधुनिक युग क चाय, हिनके रूप थिक । सत्ययुग क रंभा, उर्वशी ओ मेनका एखन चित्रपट क तारिका रूप में अवतीर्ण भेल छथि। एहि परम्परा क कहियो अन्त होमयबला नहिं। ई रस अक्षय ओ अनन्त थिकाह ।
यैह रस सृष्टिकर्ता थिकाह । सृष्टि क मूल थीक रसवृष्टि । अंडज, पिंडज, उदिभज - सभक उत्पत्ति रसे क विन्दु सॅं छैक । और पालन-पोषण - सभ किछु त रसे पर निर्भर छैक । जन्म होइतहि शिशु पयोधर दिस लपकैत अछि । और तरुणो भेला उत्तर सैह संस्कार बनल रहि जाइत छैक। रस मूलतः एक्के थीक, चाहे ओ उमरल पयोधर सॅं बरसौ अथवा उभरल पयोधर सॅं । मजूर सॅं हजूर पर्यंन्त ओ देखि कऽ नाचि उठैत छथि । अतएव यैह रस ब्रह्मा ओ विष्णु दूनू थिकाह ।
और संहारकारी महेशो यैह थिकाह । जे मधु चुट्टी कैं अमृतकण पिय्बैत छैक सैह अपना मे लपटा कऽ प्राणो लैत छैक । दीप क ज्योति पतंग क हेतु जीवन - मरण दूनू थिकैक । विषय-रस जिऎबो करैत छैक, मारबो करैत छैक । तैं ओकरा अमृत कहू वा विष । बात एक्के थिक ।
यैह रस ब्रह्म वा ब्रह्मानन्द थिकाह । चौरासी लक्ष योनि हिनके पाछाँ नाचि रहल छथि । भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न रूपें हिनक आराधना करैत अछि । केओ राजा बनि पृथ्वीक सुख भोगैत छथि । केओ तपस्वी बनि स्वर्गक सुख लूटय चाहै छथि । वेदान्ती कैं मोक्ष में चरम आनन्द भेटैत छैन्ह । चार्वाकपंथी कहै छथि - नीविमोक्षो हि मोक्षः ।
हम पुछलिऎन्ह - खट्टर कका, अहाँ चरम आनन्द कथी में मानैत छी ?
खट्टर कका बजलाह - सुनह । संसार में पाँच टा आनन्द मुख्य थीक । शास्त्रानन्द, काव्यानन्द, संगीतानन्द, विषयानन्द, भोजनानन्द । एहि मे कोन केकरा सॅं बलवान से एहि श्लोक सॅं बूझह -
काव्येन हन्यते शास्त्रं, काव्यं गीतेन हन्यते । गीतं नारी-विलासेन, क्षुधया सोऽपि हन्यते ॥
शास्त्र क चर्चा प्रियगर लगैत छैक । परन्तु जहाँ काव्यामृत क वर्षा होमय लागल कि लोक ओकरे रसास्वादन में लागि जाइत अछि । और जखन मधुर रागिणी क स्वरलहरी झंकृत भेल तखन फेर कविता के सुनैत अछि ? परन्तु ओहू सॅं बेशी प्रबल होइ छथि कामिनी । हुनक नुपुर-झंकार क आगाँ कोन गीत-वाद्य ठहरि सकैत अछि ? परन्तु एक शक्ति एहन अछि जे हुनको पछाडि दैत छैन्ह । ओ थीक उदरक ज्वाला । तैं भोजनानन्द कैं हम सभ सॅं प्रबल मानैत छी ! रसना कैं जाहि वस्तु सॅं तृप्ति भेटय, सैह ब्रह्म थिक । अन्नं ब्रह्म । मधुरं ब्रह्म ।
दधि मधुरं मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा सितापि मधुरैव । तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नम् ॥
अतएव हमरा सॅं यदि केओ पूछय जे जीवनक चरम आनन्द की थीक ? त हमर उत्तर अछि रसो वैसः अर्थात रसगुल्ला । रसगुल्ला कैं हम साकार ब्रह्म क प्रतीक मानैत छी, जकर सायुज्य सॅं सद्यः अनिर्वचनीय आनन्द क प्राप्ति होइछ । निर्गुण निराकार ब्रह्म लऽ कऽ कि चाट्ब ? तैं हम सगुण ब्रह्म क उपासना करै छी -
अखण्डमण्डलाकारं श्वेतवर्णं रसान्वितम । सर्वानन्दकरं दिव्यं रसगोलं भजाम्यहम ॥
परन्तु ओहि ब्रह्म क पूर्ण आनन्द लेबक होत भंग-भवानी क आराधना करब आवश्यक । तैं हम भंग-भवानी कैं मोक्ष क साधन बुझैत छी । यैह भवानी हमर आराध्य देवी थिकीह ।
सदा रसमयी देवी मधुरानन्द दायिनी । यस्याः चुम्बनमात्रेण ब्रह्मानन्द प्रजायते ॥
हमरा लोकनि क पूर्वज पिउबाक आनन्द जनैत छलाह ।
एकेन शिष्कचणकेन घटं पिबामि वापीं पिबामि सहसा लवणार्द्रखण्डैः । संलभ्यते यदि च रोहितमत्स्यखंडः गंगां पिबामि यमुनां सह सागरेण ॥
हुनका लोकनि क सिद्धान्त छलैन्ह -
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यवत्पतति भूतले ````
हौ, आब ब्रह्मानन्द में लीन भऽ रहल छी``````”
एतबा कहैत खट्टर कका अचेत भऽ गेलाह ।
ओम्हर दुरुखा सॅं काकी आबि कऽ बजलीह - तावत किछु काल हुनका ओहिना छोडि दियौन्ह । हम आबि कऽ सम्हारि देबैन्ह ।
ॠग्वेद १(१\२८\७ ) २.(१\२७\१) ३. (९\६६\९) ४. (९\६६\१६) ५. (८\२\११)