लेखक : हरिमोहन झा

ओहि दिन खट्टर कका सॅं पुरातन सभ्य्ता पर गप्प छिड़ि गेल ।

हम कहलिऎन्ह – देखू, खट्टर कका, ताहि दिनक ऋषि-मुनि केहन त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करथि ! गुफा-कंदरा में रहि कंदमूल खा तपस्या करथि। ब्राह्म मुहूर्त्त में उठि, नदी में स्नान कय, बल्कल पहिरने, कंमडलु में जल भरने, कुटी में आबि, कुशासन पर बैसि देवता क ध्यान धरथि। केहन पवित्र सात्त्विक जीवन छलैन्ह ? औखन धरि दाढी ओ गेरुआ वस्त्र देखि कऽ लोक कैं श्रद्धा उत्पन्न भऽ जाइ छैक।

खट्टर कका भाङक पत्ती धोइत बजलाह- हौ, जंगल में हजाम नहिं भेटैन्ह, तैं दाढी। धोबी नहिं भेटैन्ह, तैं कषाय रंग। तेल क अभाव में जटा। वस्त्रक अभाव में बल्कल। अन्नक अभाव में कंद-मूल। तकरो अभाव में एकभुक्त वा उपवास। लोटाक अभाव में कमंडलु सॅं पानि पीबथि। थारीक अभाव में पात पर खाथि। अथवा हाथे पर भोजन कय करपात्री बनि जाथि। ई सभ त्याग क सूचक नहिं अभाव क सूचक थीक। अप्राप्तिस्तत्र कारणम्।

हम-परन्तु ॱ ॱ ॱ ॱ ॱ

ख०-परन्तु की? यदि हुनका लोकनि कैं पकमान भेटितैन्ह त पकोहा किएक जोहितथि ? गुलाबजामुन भेटितैन्ह त गुल्लरि किऎक तोड़ितथि? बर्फी भेटितैन्ह त बिसाँढ किऎक कोड़ितथि? घर क खजूर-सिंघाड़ा भेटितैन्ह त वन क खजूर - सिंघाड़ा किऎक खोजितथि ?

हम- ओ लोकनि वीतराग रहथि। इच्छा कैं जितने रहथि।

ख०-ई बात हम नहिं मानबौह। हुनका लोकनि कैं सौख कम्प नहिं छलैन्ह। फूले जोहने भेल फिरैत छलाह। 'स्नो'क अभाव में चंदन, और ' पाउडर'क अभाव में भस्म लगबैत छलाह। 'बेल्ट'क स्थान में मूँजक डराडोरि पहिरैत छलाह। आभूषणक स्थान में तुलसी वा रुद्राक्षक माला। मखमलक स्थान में मृगचर्म। हौ, युग बदलै छैक, फैशन बदलै छैक, परन्तु मनुष्यक वासना नहिं बदलै छैक।

हम- खट्टर कका, ओहि युगक संस्कृतिए दोसर छलैक।

ख०- हौ, ताहि दिन चारू कात अरण्य रहैक। तखन जंगली सभ्यता में जे सभ वस्तु होइ छैक से सभ ताहि दिन छलैक। मृगछाला, व्याघ्रचर्म, कुशासन, धूप, चंदन, यव, तिल, मधु, चमर, भोजपत्र । औखन द्वापरक दृश्य देखबाक होत झारखंड में जा कऽ देखि आबह । वैह धनुष-वाण, वैह मोरपंख, वैह बाँसुरी, वैह एकवस्त्रा नारी । यदि आइ सभटा मिल, सैलून, लौंड्री ओ दर्जीक दोकान बंद भऽ जाय त पुनः त्रेता सत्ययुगक दृश्य उपस्थित भऽ जाय । विलासिताक स्रोत सभ मुनि दहौक, सभतरि मुनिए मुनि देखाइ परथुन्ह ।

हम - खट्टर कका, ओ लोकनि केहन तपस्या करथि ?

ख० – हौ, तपस्या स्वाइत करथि । पेट क समस्या तपस्या करबै छैक । से हर जोतने हो वा "हर" जपने । कोदारि धैने वा नाक धैने । हाथ पैर डोलौने वा घंटी डोलौने ।

हम - खट्टर कका, ओ लोकनि एकटा कौशेय वस्त्र पर जाड़ काटि लैत छलाह । ई कि साधारण बात छैक ?

ख०– हौ, आधुनिक युवती ओहू सॅं बेसी झिलमिल रेशम पर जाड़ कैं जितिलैत छथि । ओ कि कम तपस्विनी थिकीह ? प्रदर्शनक हेतु जे कष्ट उठाओल जाइ छैक से कष्ट नहिं बुझि पड़ै छैक ।

हम - खट्टर कका, ओ लोकनि अग्निहोत्री छलाह ।

खट्टर कका विहुँसैत बजलाह – हौ, जाड़क दुइए टा उपचार छैक, षोडशी वा बोड़सी । से प्रथम त उपलब्धे नहिं छलैन्ह, तखन धुनी रमौने रहैत छलाह । स्वाइत पंचाग्निसाधन कैं एतेक महत्व दऽ गेल छथि ।

हम - खट्टर कका, ओ लोकनि आध्यात्मिक दृष्टि सॅं यज्ञ करैत छलाह । खट्टर कका भभा कऽ हँसि पड़लाह । हम पुछलिऎन्ह - खट्टर कका, हँसलहुँ किऎक ?

खट्टर कका भाङ पसबैत बजलाह – ई बुझबाक हेतु बहुत पाछाँ जाय पड़तौह । प्राग्वैदिक युग में पहिने हमरा लोकनि क पुरुखा अग्निक रहस्य नहिं जनैत छलाह । दावानल वा बिजुली देखि चकित भऽ जाथि । कालक्रमे अंगिरा आदि ॠषि कैं पता लगलैन्ह जे घर्षण सॅं आगि उत्पन्न कैल जा सकैछ । ई विद्या हाथ में अबितहिं ओ लोकनि खुसी सॅं नाचय लगलाह । आगि जिवित मांस (आम) ओ मुइल मांस (क्रव्य) दुहू कैं सोन्हगर सुपाच्य बना दैन्ह, तैं ओकरा 'आमाद' ओ 'क्रव्याद' कहि स्तुति करय लगलाह पहिने काँचे यव तिल भक्षण करैत छलाह । आब लाबा-ओरहाक स्वाद भेटय लगलैन्ह । आँटा कैं भूजि कैं पुरोडास बनाबय लगलाह। पहिने जाड़ में ठिठुरैत रहथि । आब आगि तपबाक आनन्द भेटलैन्ह । पहिने रात्रिक अन्धकार में भय सॅं नुकायल रहथि । आब प्रकाश में सभ किछु सूझय लगलैन्ह। 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' - गाबय लगलाह। अग्निक ज्वाला सॅं जंगली पशु हड़कि कऽ दूर पड़ा जाइन्ह । ई सभ निश्चिन्त भऽ सूतय लगलाह । जखन एतेक उपकार अग्निदेवता सॅं होमय लगलैन्ह तखन कोना न हुनकर गुण गाबथु ? तैं अग्निदेवताक गुणगान सॅं वेद भरल अछि । अग्निमीले पुरोहितम.........

हम कहलिऎन्ह - परन्तु अग्निहोत्र.........

खट्टर कका बजलाह - एखन कोनो अगुताइ त ने छौह ? तखन सुनह ।अग्निक आविष्कार सॅं हमरा पुरखा लोकनि बड़का शक्ति हाथ में आवि गेलैन्ह । परन्तु आगि बनैवा में बड़ परिश्रम पड़ैन्ह । घंटाक घंटा पाथर वा काष्ठ रगड़य पड़ैन्ह । तखन जा कऽ जा कऽ कदाचित गोटेक स्फुलिंग बहराइन्ह ।एहि द्वारे ई लोकनि परम यत्नपूर्वक अग्निक रक्षा करय लगलाह । आगि मिझा नहि जाय ताहि हेतु घृत- समिधा दय कऽ ओकरा प्रज्वलित राखय लगलाह । यैह अग्नि- होत्र क रहस्य थीक ।

खट्टर कका भांगक पानि पसा पत्ती कैं कुंडी में रखलन्हि, तखन सोंटा सॅं घोंटैत कहय लगलाह – हमरा लोकनिक पुरषा पाथरक खंड सॅं घेरि कऽ 'अश्मव्रज' बनाबथि । चारु कात सॅं माटि काटि कऽ चत्वर (चबूतरा) बनाओल जाय। बीच में बड़का समिध (सिल्ली) राखल जाय । वर्षा सॅं अग्निक रक्षाक हेतु उपर तृण छाड़ल जाय । ओहि मंडप में बैसि ओ लोकनि अग्निक परिचर्या करथि । होता लोकनि आहुति दैत जाथि । उद्गाता गीत गाबि कऽ उत्साह बढबथि । ब्रह्मा बैसि कऽ निरीक्षण करथि । सभक कार्य बाँटल रहैन्ह । केओ जारनि काटथि केओ खढ-पात आनथि । केओ टाट बान्हथि । केओ चार छारथि । केओ कुश आनि कऽ आशन बनाबथि । केओ रस्सी बाँटथि । केओ माटिक वासन बना आगि पर पकाबथि । बेटी सभ गाय-भेड़ी दूहथि, तैं 'दुहिता' । समिता लोकनि मांस कैं धो पोछि कऽ साफ करथि । पाथर पर अन्न कूटल- पीसल जाय । केओ सोमलता उखाड़ि कऽ लाबथि । केओ पीसि कऽ रस तैयार करथि। महावेदी पर बैसि कऽ सोमपान होय। दूध,दही ओ घृतक पथार लागि जाय । पहिने अग्नि देवता कै हबि देल जाइन्ह । तखन हुतशेष बाँटल जाय । रंग-विरंगक गप्प जमय। बूझह त ओ मनुष्यक सर्वप्रथम क्लब छल जहाँ सभ लोक एक संग बैसि कऽ खाथि, पीबथि, आनन्द करथि और गाबथि - “संगच्छध्वम, संवदध्वम, सं वो मनांसि जानताम ।....... सह नो अवतु, सह नो भुनक्तु, सहवीर्य करवावहै ।"

हम - खट्टर कका, हुनका लोकनिक जीवनक ध्येय की रहैन्ह ?

ख० - से त वेदक मंत्रे सभ सॅं पता लागि जैतौह - “जीवेम शरदः शतम , पश्येम शरदः शतम , शृणुयाम शरदः शतम ।" खूब बेसी दिन जीबी, देखी, सुनी, आनन्द करी । गोत्रं नो वर्धताम् , दातारो नोऽभिवर्द्धन्ताम् । वंश बढय, दाता लोकनि बढथि । धनधान्य ओ सन्तति बढय । गाय खूब दूध देबय । बरद खूब जोतय समय पर मेघ बरसय । खूब अन्न उपजय । एखनो धरि दुर्वाक्षत मंत्र में यैह सभ आशीर्वाद देल जाइ छैक। ```` दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वान निकामे निकामे नः पर्यन्यो वर्षतु फलवत्यो नः ओषधयः पच्यन्ताम, योगक्षेमो नः कल्पताम ।

हम - खट्टर कका, दुर्वाक्षतक की अभिप्राय ?

ख० – हौ, अपना खैबाक हेतु चाउर और माल जालक हेतु दूभि - ई दूनू वस्तु पर्याप्त रहय । यैह दूर्वाक्षत क अभिप्राय औखन जे चतुर्थी में घसकट्टी होइ छैक से ओही परम्पराक पालन थिकैक । जेना ताहि दिन ऊखरि में सोम कूटल जाइ छल, तहिना आइकाल्हि ओठंगर कूटल जाइ अछि । पहिनहि जकाँ आगिक चारुकात फेरा लगाओल जाइत अछि, लाबा छिड़ियाएल जाइत अछि । ई सभ विधि ताहि दिनक स्मारक थीक ।

हम - खट्टर कका, हुनका लोकनिक जीवन केहन सुखमय छलैन्ह ?

ख० – हौ, वैदिक युगक लोक मस्त रहथि । खाउ, पीबू , मौज करु ।परन्तु पछाति कऽ उपनिषद वला ऋषि मनहूस बहरैलाह । तेहन अभागल जे इन्द्रिये सॅं युद्ध ठानि देलन्हि ! हौ, मानल जे इन्द्रियाणि हयानाहुः । इन्द्रिय घोड़ाक समान थीक । त कि घोड़ा कैं सहा कऽ सठा दी ? स्मृतिकारो एलाह त वैह लगाम हाथ में नेने । हिनका लोकनि कैं जे अपना नहिं पचैन्ह से निषिद्ध । तैं मांस कैं दूसथि, लहसुन-पेयाजु कैं गारि पढथि, स्त्रीक निन्दा करथि, भोग कैं त्याज्य कहथि ।

हम – एकर कारण की , खट्टर कका ?

ख० – एकर कारण जे हुनका लोकनि कैं अपना भोग नहिं छलैन्ह । जे वस्तु अपना प्राप्त नहि ; से दोसर किएक उपभोग करत ? यैह ईर्ष्या निवृत्ति- मार्ग क जड़ि थीक । देखै छह नहि, एखनो धरि जाहि पंडित कैं संग्रहणी रहैत छैन्ह से अपना विद्यार्थी कैं अँचार नहिं खाय दैत छथि ।

हम - खट्टर कका, ओ लोकनि बुझैत छलाह जे एही मे लोकक कुशल छैक

खट्टर कका मुसकैत बजलाह - ‘कुशल' क अर्थ तोरा बुझल छौह ? हमरा लोकनिक पुरषा अधिकतर खालिए पैर चलैत छलाह । आइकाल्हि जकाँ पन ही त रहैन्ह नहिं । बन-बाध दऽ कऽ चलथि । कुश अंकुश जकाँ छेदि दैन्ह । तरबा छलनी भऽ जाइन्ह । स्मृतिकार लोकनि चतुर छलाह। सभ कैं कहय लगलथिन्ह- “ कुश उखाड़ै जाह।" लोक ओना अंठा दितैन्ह, तैं एकटा उपाय रचलन्हि। कुश कैं ततेक महत्त्व दऽ देलथिन्ह जे-

            कुशाग्रे   वसते  रुद्रः कुशमध्ये  तु केशवः।
            कुशमूले वसेद् ब्रह्मा कुशान मे देहि मेदिनि॥
        

बस, विवाह, उपनयन, श्राद्ध- समस्त यज्ञ ओ पूजा में कुशक व्यवहार चलि पड़ल। पवित्री, त्रिकुशा, मोढा, कुशासन बनैबाक हेतु लोक कुश उखाड़ि कऽ राखय लागल। भादव मास में, जखन सभ सॅं बेसी जंगल रहै छैक, तखने कुशोत्पाटन क दिन कायम कैल गेल। बिना जन-बोनिक, केवल पुण्यक लोभ पर, सामूहिक रूपें कुश उखड़ऽ लागल। वैह व्यक्ति 'कुशल' कहाबय जे कुश कटबा में निपुण हो। हौ, ताहि दिनक ऋषि चाणक्यक पितामह रहथि।

हम-खट्टर कका, ताहि दिन आतिथ्य-सत्कारक केहन महत्व रहैक ?

खट्टर कका बजलाह – हौ, ब्राह्मण लोकनि अपने पहुनइ करय जाथि त अगियाएले पहुँचथि। वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राम्हणोगृहम।(कठोपनिषद) अर्थात ब्राह्मण देवता साक्षात अग्निस्वरूप होइ छथि। तात्पर्य जे हुनका तुरन्त समिधा वा भोजन भेटक चाही। जे मूर्ख हुनका इच्छापूर्ण भोजन नहिं करौतैन्ह तकर धीयापूता मालजाल ओ सभटा पुण्य नष्ट भऽ जैतैक। इष्टापूर्ते पुत्रपशुंश्च सर्वान्, एतद्वृंक्ते पुरुषस्याल्पमेधसो, यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे । कहाँ त शरीर अधम थीक, और ओही तुच्छ उदरक पूर्ति हेतु एतेक प्रपंच! जखन शरीरक कोनो महत्त्वे नहिं त फेर चरण-सेवा किऎक करबैत छलाह ? हौ,ई लोकनि एक्को डारि पर नहिं रहैत छलाह। अनका त उपदेश देथिन्ह जे "अतिथिदेवो भव" और अपना ओहिठाम अतिथि पहुँचि जाइन्ह त खिसिया कऽ ओकरा 'गोघ्न' कहथिन्ह। विकट पाहुन सॅं ताहू दिन लोक डराइ छल।

हम- खट्टर कका, ओहि युगक मिलान एहि युग सॅं किऎक करैत छिऎक ? कहाँ सत्ययुग, कहाँ कलियुग !

खट्टर कका भांग मे मरीच मिलबैत बजलाह – हौ, सभ युग मे लोक वैह रहैत अछि । तखन परिस्थिति जेना नचबैत छैक तेना नचैत अछि । ऎतरेय ब्राह्मण में लिखैत छैक -

           कलिः  शयानो  भवति  संजिहानस्तु  द्वापरः  ।
           उत्तिष्ठंस्त्रेता  भवति  कृतं  संपद्यते   चरन्  ॥(एतरेय ब्राह्मण)७/१
        

पंडित लोकनि एकर अर्थ लगबै छथि जे सत्ययुग चलैत छल, कलियुग सूतल अछि । परन्तु असली अर्थ हम तोरा बुझा दैत छिऔह । सत्ययुग में हमर पुरु खा सभ स्वच्छन्द विचरैत छलाह । पैर में तेहन घुरघुरा लागल छलैन्ह जे कतहु एक ठाम स्थिर भऽ कऽ नहिं रहय दैत छलैन्ह । औखन कंजर सभ कैं नहिं देखैत छहौक ? सिड़की-पटिया ओ मालजाल नेने बौआएल फिरै अछि । त्रेता मे किछु स्थैर्य आबय लगलैक । जनक प्रभृति हर जोतय लगलाह । एक ठाम पैर जमय लगलैक । द्वापर में लोक सुभ्यस्त भेल । सुखक साधन बढलैक । लोक आराम में आबि औंघाय लागल । और कलियुग में त ऎश्वर्य ओ विलासिताक हद्दे हिसाब नहिं। लोक निश्चिन्त भऽ कऽ सूतल अछि । एहि तरहें मानव सभ्यता क क्रमिक विकास भेल छैक ।

हम- खट्टर कका, अहाँ त विलक्षणे अर्थ लगा दैत छिऎक। परन्तु एतवा अवश्य मानय पड़त जे ताहि दिन धर्मक महत्व रहैक, आइ काल्हि धनक महत्व छैक।

ख० – हौ, धनक महत्व सभ दिन सॅं छैक । आइयोकाल्हि स्वर्ण क आवरण सॅं सत्य क मुँह पर पर्दा देल जाइत छैक । ताहू दिन सैह बात रहैक ।

‘हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ! (शुक्लयजुर्वेदसंहिता) ४०/१७

हम - खट्टर कका, ताहि दिन देवता क पूजा होइन्ह, एखन धनिक क पूजा होइछ ।

खट्टर कका भांगक गोला बनबैत बजलाह – हौ, जैह धनिक सैह देवता । देवता क अर्थ 'जे चमकैत रहय' ताहि दिनक राजा सभ रंग-विरंगक वस्त्र में चमकैत रहथि । 'इश्वर' क अर्थ जे जकरा ऎश्वर्य होइक । 'लक्ष्मीपति' क अर्थ जकरा घर में सम्पत्ति होइक । 'नारायण' क अर्थ जे जल-महल में शयन करय । 'गरुड़वाहन' क अर्थ जे शीघ्रगामी यान पर चलय । 'प्रजापति' क अर्थ जे प्रजाक स्वामी हो 'हर' क अर्थ जे कर वा मालगुजारी हरण करय । 'चतुर्भुज' क अर्थ जकर बाहुबल चारु दिस पसरल होइक । 'पंचमुख' क अर्थ जे पाँच गोटा क अंश खाय । हौ,’ देवता' क अर्थ 'धनिक' ।

हम - परन्तु सर्वप्रथम पूजा त गणेशक होइ छैन्ह ?

ख० – हौ, 'गणेश' क अर्थ गण वा दलक सरदार । ताहू दिनक दलपति गज वदन होइत छलाह, और साधारण जनता मूस जकाँ हुनका तर पिचाइत छल। ई सभ रूपक थिकैक ।

खट्टर कका भांगक गोला हाथ सॅं चिकनबैत बजलाह- पहिने छोट-छोट दल रहैक । तैं गणेश सॅं श्रीगणेश भेल । पाछाँ जखन राजागण महल मे विहार करय लगलाह तखन अमरालय वा अप्सरालय मे विहार करय बला इन्द्र आदिक कल्पना कैल गेल। जखन एकछत्र सम्राट् होमय लगलाह तखन एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म क कल्पना भेल । हौ, देवता सभ सामन्तवाद क प्रतीक थिकाह, ब्रह्म साम्राज्यवाद क ।

हम - खट्टर कका, ताहि दिन वर्णाश्रम धर्मक केहन सुन्दर व्यवस्था रहैक !

खट्टर कका लोटा में भांग घोरैत बजलाह - ब्राह्मण कैं बुद्धि छलैन्ह, बल नहि। क्षत्रिय कैं बल छलैन्ह, बुद्धि नहिं । एक बात बात में शास्त्र बाहर करैत छलाह, दोसर बात बात में शस्त्र बहार करैत छलाह ।

हम - ओ सभ सिद्धान्त पर चलैत छलाह ।

खट्टर कका भांग में चीनी मिलबैत बजलाह - सिद्धान्त नहिं सनक कहह । ब्राह्मण कैं सनक चढैन्ह त वचन गढि लेथि । क्षत्रिय कैं सनक चढैन्ह त प्रण ठानि लेथि । दुनु तेहने एकबगाह । हौ, हम पुछैत छिऔह जे यदि कोनो राक्षसे धनुष तोड़ि दितैन्ह त जनक महराज की करितथि ? यदि कोनो चांडाले लक्ष्य वेध कऽ दितैन्ह त शिशुपाल की करितथि ? ई सभ सनकाह छलाह। सिद्धान्त क पाछाँ बताह । केओ वचन क खातिर भिखारी भऽ जाथि । केओ आन पर जान दऽ देथि । एही झोंकक पाछाँ कतेको राजा कटि मरलाह ,कतेको रानी जरि मुइलीह , कतेको महल खँडहर भऽ गेल । सौसे इतिहाह त एही सॅं भरल अछि ।

हम - खट्टर कका, ओ लोकनि वीर छलाह ।

ख० - वीर नहि, बताह कहह । हौ, राजनीति , मर्यादा- सभ टा मनुष्येक बनाओल छैक । जेहन समय होइक तेहन करक चाही । कोनो सिद्धान्त एहन नहिं छैक जाहि पर आँखि मूनि कऽ लोक चलि सकय ।

हम - परन्तु सत्ये नास्ति भयं क्वचित् ।

ख० – ई फूसि बात थीक । सत्ये चाऽपि भयं क्वचित् । यदि सन्निपात क रोगी कैं सत्य बात कहि देल जाइक त आतंके सॅं ओकर प्राण छुटि जैतैक । जाहि सॅं प्राणे चलि जाय तेहन सिद्धान्त कोन काजक ?

हम - परन्तु नीतिकार कहै छथि जे "अधिकस्याधिकं फलम ।"

ख० - इहो अशुद्ध। यदि यैह सिद्धान्त मानि कऽ चलल जाय त भात गिल्ल भऽ जाय ।

हम - से कोना, खट्टर कका ?

ख० - ‘जतेक बेसी ततेक फल' तखन त चाउर कैं और एक घंटा खदकऽ लेल छोडि दिऎक ? दालि में दोबर नोन ध्ऽ दिऐक ? चारि सेर घृत उठा क पीवि जाइ ? आठ टा विवाह कऽ ली ? सोरह टा सन्तान जनमा ली ? हौ, ई सभ वचन कहऽ सुनऽ लेल होइ छैक ।

हम - नीतिक वचन छैक जे, ‘काल्हि करै सो आज कर, आज करै सो अब'।

ख० – हौ, यैह सभ सनक कहबै छैक। हमरा काल्हि मरबाक अछि त आइए मरि जाइ ? कार्तिक में पार्वण करबाक अछि त एही मास कऽ ली ? पाँच वर्षक बाद बच्चीक विवाह करबाक अछि से एही शुद्ध मे कऽ दिऎक ? सायंकाल बाह्य भूमि दिस जाएब से एखने भ्ऽ आबी ? सभ काज मे अप्पन बुद्धि लगाबक चाही। केवल सिद्धान्तक पाछाँ आँखि मूनि कऽ चलने सिद्धान्नो भेटब कठिन ।

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, असली बात त बिसरिए गेल। भोलाबाबाक ओहिठाम अष्टयाम कीर्त्तन भऽ रहल छैन्ह। चलबैक ?

ख० कका बजलाह- हौ, चौर-बाध में चोर-बाघक भय सॅं राति भरि जागि कीर्त्तन कैल जाय त एकटा बातो। परन्तु एखन दिन में गामक बीच अष्टयाम सॅं कोन लाभ? हम 'राम नाम' में लागि जाएब, ता एम्हर सभटा लताम तोड़ि कऽ लऽ जाएत।

हम- खट्टर कका, अखंड हवन सेहो भऽ रहल छैक। सत्रह कंटर घृत आएल छैक।

हम- खट्टर कका, अखंड हवन सेहो भऽ रहल छैक। सत्रह कंटर घृत आएल छैक।

खट्टर कका भाङ छानि कऽ दू बुंद उत्सर्ग कैलन्हि और लोटा अलगा कऽ घट्ट घट्ट पीबि गेलाह।

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