लेखक : हरिमोहन झा

ओहिदिन खट्टर कका खाट घोरैत रहथि । हमरा संग में एक व्यक्ति कैं देखि कऽ बजलाह – हौ, ई झुल्फी बला के छथिन्ह ?

हम कहलिऎन्ह – ई कवि छथि । हमर सार थिकाह । अपन कविता अहाँ कैं सुनाबय चाहैत छथि ।

खट्टर कका बजलाह - आइ हमरा बैसि कऽ कविता सुनबाक फुरसति नहिअछि। हॅं, जौं तों रस्सी धरौने जाह और ई पौआ अलगौने जाथि त हम थोड़ेक सुनि लेबैन्ह ।

हम कहलिऎन्ह - बेस त , सैह रहौ ।

कविजी अपन 'प्रिया-मिलन' नामक प्रेमकाव्य प्रारम्भ कैलन्हि । किछु काल सुनलाक उपरान्त खट्टर कका कहलथिन्ह – औ,आब बंद करू ।

कविजी अकचका क पुछलथिन्ह - से किऎक ?

खट्टर कका बजलाह – हमरा फूसि नहिं सुनल जाइ अछि !

कवि - हम फूसि की कहल अछि ?

ख० – सभटा फूसिए कहल अछि । अहाँ कहैत छी जे चातक पक्षी स्वाती क बुन्द छोड़ि और कोनो पानि नहिं पिबैत अछि । अहाँ चातक कैं कहियों पानि पिया कऽ देखने छिऎक ?

कवि - नहिं ।

ख० - परन्तु हम त चिड़ियाखाना में देखने छिऎक । ओ बारहो मास तीसो दिन पानि पिबैत अछि ।

कविजी चुप्प भऽ गेलाह । खट्टर कका पुनः कहलथिन्ह – औ कविजी ! अहाँ लिखै छी जे चकोर पक्षी अग्नि-भक्षण कय पचा लैत अछि । अहाँ कहियो चकोर कैं अग्नि खोआ कय देखने छिऎक ?

कविजी - नहिं ।

ख०-- तखन अहाँ कोना बुझैत छिऎक जे ओकर ठोर नहिं पकैत छैक ? कविजी चुप्प ।

ख०-- अहाँ लिखैत छी जे चकवा पक्षीक जोड़ा राति में एक संग रहिए नहिं सकैत अछि। परन्तु हम त एक्के पिजड़ा में नर – मादा दूनू कैं रहैत देखने छिऎ क ।

कविजी चुप्प ।

ख०-- अहाँ लिखने छी जे हंस नीर ओ क्षीर कैं पृथक कय दैत अछि। ई बात अहाँक देखल अछि ? यदि ई सत्य हो त हम आइए एकटा हंस पोसि ली। जैखन गोआरिन दूध लऽ कऽ आओत तैखन हंसक लोल ओहि में डुबा दे बैक । परन्तु यदि दूध और पानी फराक नहिं भेल , तखन ?

कविजी चुप्प ।

खट्टर कक पुनः कहय लगलथिन्ह – औ कविजी ! अहाँ कहियो केरा सॅं कर्पूर बनैत देखलिऎक अछि? हाथीक माथ सॅं मुक्ता बहराइत देखलिऎक अछि ? कतहु पारस पाथर देखबा में आयल अछि । यदि वास्तव में ओ पाथर रहितैक त एहि देशक कवि हकन्न किएक कनितथि? लोहा में छुआ दितथिन्ह, सोना बनि जइतैन्ह । कवि पत्नी सोने क कड़ाही में दूध औटतथि ।

कविजी - परन्तु प्राचीन कवि सभ त एहिना लिखि गेल छथि ।

ख० - तदि ओ लोकनि लिखि गेल छथि जे नायिका कैं कटि नहिं होइ छैन्ह, तखन अहाँ अपना स्त्रीक करघनी फेकि देब ?

हम पुछलिएन्ह - खट्टर कका, एहि सभ बातक परीक्षा कैनहि बिना लोक एतबा दिन सॅं किएक मानैत आबि रहल अछि ?

खट्टर कका बिहुँसैत बजलाह – हौ, हमरा लोकनि छी मिथ्यानन्द । मिथ्याक कल्पना में हमरा सभ कैं बेसी आनन्द भेटैत अछि। 'सुन्दरीक लात सॅं अशोक वृक्ष फुला जाइछ' एहन एहन कल्पना कोनो वैज्ञानिक क मस्तिष्क मे आबि सकैत छैन्ह ? ` ` ` ` `औ कविजी, ओहि कातक पौआ अलगाउ ।

खट्टर कका खाट घोरैत कहय लगलाह- हौ, कवि लोकनि धन्य होइ छथि। हुनका सभ किछु माफ रहै छैन्ह। वैह बात जौं दोसर बाजय त मारि भऽ जाइक।

हम- से कोना खट्टर कका?

ख०- देखह। यदि किनको कहल जाइन्ह जे ' कन्या में अपूर्व लावण्य अछि' त पिताक मन प्रसन्न भऽ जैतैन्ह। परन्तु वैह बात यदि ठेठ शब्दें कहल जाइन्ह जे 'बेटी बड्ड नमकीन अछि' तखन लाठिए बजरि जाय। विचारि कऽ देखह, त बात एक्के! परन्तु कहबाक शैली में भेद छैक! यदि वैह बात गमार बजाय त लंठ भेल, कवि बजलाह त रसिक भेलाह।

हम कहलिऎन्ह- खट्टर कका, ई त ठीक कहल।

खट्टर कका खाट घोरैत बजलाह- हम कोनो बात बेठीक कहैत छिऔह? यदि कोनो युवती कैं केओ सोझे जा कऽ कहैन्ह-' वाह! अहाँक स्तन बड्ड सुन्दर अछि' त ओकरा पर पादुका बरसतैक। और यदि वैह बात छंद बना कऽ बजताह त हुनका पर पदक बरसतैन्ह की औ कविजी! अहीं जे नायिका क पयोधर कै एना खोलि कऽ वर्णन कैने छिऎक तेना कोनो वास्तविक बहु-बेटी कैं कहबैक ?

खट्टर ककाक ई रबैया देखि कविजी रस्सीक फंदा छोड़ाय, अपन प्रेम-काव्य समेटैत घसकन्तौवाच भेलाह ।

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, आइ अहाँ कैं तेहन सूर चढि गेल जे बेचारे कविजी अपन सन मूँह लऽ कऽ बिदा भऽ गेलाह ।

खट्टर कका बजलाह – हौ, हमरा हाथ में रस्सीक घर्रा लगैत छल और कुच वर्णन सुनाबय लगलाह ! एही द्वारे हमरा तामस उठि गेल । परन्तु बलहुँ वेचारा कैं एतेक बात कहलिऎक एहि देशक त परम्परे यैह छैक । देखह -

            बदरामलकाम्रदाड़िमानामपह्रत्य   श्रियमुन्नतौ    क्रमेण  ।
            अधुना हरणे कुचौ यतेते बाले  ते करिशावकुंभलक्ष्म्या  ॥
        

हम - एकर अर्थ की भेलैक ?

ख० - कवि कहैत छथिन्ह - "हे बाले, अहाँक दूनू````` पहिने बैर सन सन छल; तखन धात्रीफल सन भेल ; तदुपरान्त अनार सन सन भऽ गेल; आब हाथी क माथ सॅं टक्कर लय रहल अछि ।"

हम - खट्टर कका, ई त अश्लील भेल !

खट्टर कका व्यंग्यपूर्वक बजलाह – हँ । हम गद्य में अनुवाद क कहलिऔह त अश्लील भऽ गेल । और यैह बात कवि कोकिल पद्य में बजलाह त कोमल- कान्त- पदावली भऽ गेलैन्ह !

             प्रथम  बदरि  फल   पुनि   नवरंग
             दिन  दिन  बाढय    पिड़य  अनंग
           से  पुनि   भय   गेल  बीजक  पोर
           आब कुच बाढल     श्रीफल   जोर  ।
        

वैह बैर सॅं नारंगी, ओ नारंगी सॅं बेल ! परन्तु एहन एहन पद कैं केओ अश्लील नहिं कहैत छैन्ह । स्वयं युवतीगण गबैत छथि । सेहो बेस टहंकार सॅं । राग भास दऽ कऽ

हम - खट्टर कका, विद्यापतिक कविता में केहन अपूर्व रस छैन्ह ?

खट्टर कका बानि दैत बजलाह – हौ, एहिना संस्कृतक कवि लोकनि श्रृंगारक वर्णन में अपन चमत्कार देखौने छथि तहिना त ओहो कैने छथि । वैह नख सिख, वैह सद्यःस्नाता, वैह विरह, वैह अभिसार, वैह नखक्षत, वैह विपरीत रति। हमरा त कोनो नवीनता नहिं बुझि पड़ैत अछि ।

हम - तखन करोड़ो जनता हुनका कविता पर किऎक मुग्ध अछि ?

खट्टर कका बजलाह - एकर कारण जे पहिने नायिका क संभोग वर्णन केवल संस्कृते काव्य में रहैत छलैक । साधारण लोक ओहि रस सॅं बंचित रहैत छल। देवभाषाक ओहि रस कैं ई लोकभाषा में लऽ अनलन्हि। फलस्वरूप सभ केओ ‘कुचकुचकटाक्ष' क आस्वादन करय लागि गेल। एहि माधुर्यक कारण विद्यापति ग्रामीण जनताक कंठहार बनि गेलाह। यदि हुनका पदावली सॅं 'कुच' काटि देल जाइन्ह त की रहि जैतैन्ह ? केवल नचारी ।

हम - खट्टर कका - ई अहाँ अतिशयोक्ति कऽ रहल छी। प्रसंगवश दू-एक ठाम कुच क वर्णन आवि गेल हेतैक ।

खट्टर कका बजलाह - तखन तों बानि दैत रहह । हम कुचकीर्तन सुना दैत छिऔह ।

देखह , कतहु सखी नायिका कै, शिक्षा दैत छथिन्ह -

          झाँपब  कुच  दरसायब   आध
        

कतहु नायक कैं उपदेश दैत छथिन्ह -

           गनइत   मोतिम    हारा
           छले  परसब  कुच भारा ।
        

नायिका यौवनक भार सॅं अवग्रह में छथि । किऎक त -

           उनत  उरोज  चिर  झपबय,  पुनि पुनि दरसाय
           जइए  जतने  गोअए  चाहए, हिम गिरि ने नुकाय
        

कतबो आँचर चौपेति कऽ रखै छथि , तथापि -

          तेइ   उदसल   कुच     जोरा
          पलटि बैसाओल कनक कटोरा
        

तखन ओ हाथ लऽ कऽ झॅंपैत छथि । ई देखि नायकक चित्त चंचल भऽ जाइ छैन्ह -

           करयुग  पिहित  पयोधर   अंचल
          चंचल    चित    देखि      भेला
        

किऎक त -

             आध   उरज   हेरि  आध  आँचर  भरि
            तब    धरि   दगधे           अनंग
        

संयोगवश नायिकाक अंचल ससरि जाइ छैन्ह । ई देखि नायक कृतार्थ भऽ जाइ छथि -

         ता  पुनि  अपुरब  देखल  रे   कुचयुग   अरविंद  ।
        

देखि कऽ मन में सिहन्ता होइ छैन्ह जे - सौभाग्यवश नायक कैं अनुकूल अवसर भेटि जाइ छैन्ह ।

          आँचर  परसि  पयोधर   हेरु
          जनम पंगु  जनि  भेटल सुमेरु
        

जेना दरिद्र कैं स्वर्णकलश भेटि जाइन्ह तहिना नायक करय लगैत छथि -

           खनहिं चीर धर खनहिं चिकुर गह
           करए चाह कुच  भंगे
        

अन्त मे सफलता हाथ लगैत छैन्ह ।

          कुचकोरक  तव  कर  गहि  लेल
      

तदुपरान्त -

          पीन पयोधर  नख  रेख  देल
          कनक  कुंभ जनि   भगनहु  भेल
        

नायिका की करथु ?

            सुन्दर  कुचयुग  नख   खत  भरी
            जनि   गजकुंभ    विदारल   हरी
        

ओ आकुल भऽ गेलीह और नायक रसपान करय लगलाह ।

           कर धरु  कुच  आकुल   भेल नारी
           निरखि  अधर  मधु  पिबय   मुरारी
        

और आगाँ सुनबह ?

हम – नहिं खट्टर कका । हम मानि लेल । परन्तु विद्यापति त राधाकृष्ण क भक्त छलाह तखन कुचकुंभ.......

ख० - एतबे में तों उजबुजा गेलाह ? राधाक भक्त औरो दूर धरि पहुँचि जाइ छथिन्ह । देखह ,

           सुखद  सेज  पर  नागरि  नागर
           बइसल     नवरति         साधे
           प्रति  अंग  चुंबन  रस अनुमोदन
           थरथर         काँपत      राधे
        

हौ, तो भातिज नहिं रहितह त और बेसी सुनबितिऔह । किन्तु इहो संकोच त हमरा व्यर्थे भऽ रहल अछि । आब त एहन एहन पदावली विद्यार्थीक पाठ्य ग्रन्थ में राखल गेल छैन्ह !........कनेक रस्सी धराबह ।

हम रस्सी धरबैत कहलिऎन्ह - खट्टर कका, विद्यापति महादेवक परम भक्तछलाह ।

खट्टर कका व्यंग्य करैत बजलाह – हॅं, तेहन परम भक्त छलाह जे कामिनी क स्तनो में हुनका महादेव सुझैत छथिन्ह । देखह -

             सुरत   समापि  सुतल   वर  नागर
             पानि          पयोधर         आपी
             कनक  शंभु    जनि  पूजि  पुजारी
             धयल        सरोरुह          झाँपी
        

परन्तु ओहन सुकमार महादेव कें भग्न होइत कतेक देरी लगतैन्ह ?

           कोन  कुमति    कुच  नखछत  देल
           हाय हाय    शंभु  भगन  भय   गेल!
        

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, अहाँ त रसपक्षक धार बहा देलहुँ । परन्तु विद्यापति में भक्तिपक्षो त छैन्ह । महेशवानी सभ देखिऔन्ह ।

खट्टर कका रस्सी क घुरची छोड़बैत बजलाह – हौ, यैह त एहि देश में भेलैक अछि । कवि लोकनि कैं दुइएटा राग अबैत छैन्ह । यावत पर्यन्त भोग कर बाक शक्ति तावत् त मृगनैनी सुझैत छथिन्ह , और जहाँ थकलाह कि मृगछाला सूझय लागि जाइ छैन्ह । तैं युवावस्था भरि त -

          कुच  विपरीत   बिलम्बित  हार
          कनक  कलस  बम दूधक धार !
        

और वृद्धावस्था पहुँचल त -

        कखन  हरब  दुख मोर हे भोलाबाबा !
     

और वार्द्धक्य प्रयुक्त ओहि असमर्थता कैं नाम देल जाइ छैन्ह 'भक्ति' !

हमरा चुप्प देखि खट्टर कका बजलाह – ई कोनो विद्यापतिए में नहिं छैन्ह। देव विहारी मतिराम पद्माकर सभक यैह हाल छैन्ह । बूझह त एहि देशक परम्प रे यैह छैक । संस्कृत काव्य में दुइए टा धारा बहैत छैक । नवारी मे श्रृंगारकसरिता । बुढारी में वैराग्यक बाहा !

हम - खट्टर कका, एहि उपमा सॅं त बुझि पड़ैत अछि जे श्रृंगारे बेसी प्रबल अछि ।

ख० – ताहू में संदेहे ? संस्कृत काव्यक वाटिका में विचरण करबह तऽ नारंगी-अनार क सोभा देखैत रहि जैबह । हॅं, हत्ता पर वैराग्यक बबुर सेहो भेटतौह ।

हम – अहा ! ई त बड्ड सुन्दर उपमा भेल ।

ख० - हम यथार्थे कहैत छिऔह । बूझह त संस्कृत काव्य कुचकाव्य थीक। कवि लोकनि कैं संसारक समस्त गोल वस्तु ओहि में भेटैत छैन्ह । विद्यापति कि कोनो उपमा अपना घर सॅं लेलाह अछि ? तों ओहिना बानि देने जाह त हम संस्कृत -काव्य क चाशनी चखा दैत छिऔह । देखह, एक गोटा कहैत छथि -

            जम्बीरश्रिय  मतिलंघ्य   लीलयैव
            व्यानभ्रीकृत  कमनीय    हेमकुंभौ ।
            नीलांभोरुह   नयनऽधुना कुचौ ते
            स्पर्धेते  किल कनकाचलेन सार्धम ॥
        

अर्थात् हे सुन्दरी ! अहाँक कुच पहिने जंबीरी नेबो कैं हरौलक, तखन स्वर्ण कलश कैं जितलक, और आब कनकाचल पहाड़ सॅं स्पर्धा कऽ रहल अछि

हम - इह ! कवियोक उड़ान आश्चर्ये होइ छैन्ह । कलश सॅं कूदि कऽ एके बेर पर्वत पर पहुँचि गेलाह ।

ख० - दोसर गोटा कैं ओहू सॅं सन्तोष नहिं भेलैन्ह त एकदम आकाशे ठेका देलथिन्ह ।

            अल्पं  निर्मितमाकाशमनालोच्यैव  वेधसा  ।
            इदमेवंविधं  भावि  भवत्याः  स्तनमंडलम  ॥
        

अर्थात् ब्रह्मा आकाश बनौलन्हि से छोट भऽ गेलैन्ह । तखन फेर कऽ गढबाक हेतु साँचा बनौलन्हि, सैह अहाँक स्तन-मंडल थीक । हौ, एहन एहन कवि कैं सम्पूर्ण ब्रह्मांडे स्तनमंडल बुझि पड़ैत छैन्ह !

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, अतिशयोक्तिक पराकाष्ठा भऽ गेल ।

खट्टर कका बजलाह - अतिशयोक्ति क त ई देशे थीक । एक रसिक कैं स्तनक ऊपर नखक चिन्ह देखि बुझि पड़ैत छैन्ह जे महादेवक ललाट पर चन्द्रमा विराजमान छथि ।

           स्वयंभूः    शंभुरंभोजलोचने   त्वल्पयोधरः ।
          नखेन कस्य   धन्यस्य चन्द्रचूडो  विराजते ॥
        

हम - धन्य छलाह ई कवि लोकनि !

ख० – तोरा एतबे में आश्चर्य होइ छौह । एकटा भक्तराज कैं दशो अवतार ओही में भेटि जाइत छैन्ह । कठोर, तैं कच्छप अवतार । कंदर्पक पताका फहर बैत, तैं मीनावतार । एवं प्रकारक तुलना करैत करैत कहै छथिन्ह जे`

          भाति  श्रीरमणावतारदशकं  बाले भवत्याः  स्तने ।
        

हम - हद भऽ गेल खट्टर कका ! एहन एहन उक्ति और कोनो भाषा मे भेटत ? ई लोकनि उमर खैयामो कैं जितलैन्हि ।

खट्टर कका बजलाह – हौ, खैयाम की खा कऽ ओहन कल्पना करताह ? देखह, एक गोटा कहै छथि -

           द्रष्टव्येषु  किमुत्तमं  मृगदृशः   प्रेमप्रशन्नं    मुखम्
            घ्रातव्येष्वपि  किं तदास्यपवनः श्राव्येषु किं तद्वचः  ।
          कि स्वाद्येषु तदोष्ठपल्लवरसः ध्येयेषु किं ततस्मितम
          किं पूज्येषु सुवर्णशंभसदृशौ  तस्या पवित्रौ  स्तनौ   ॥
        

हौ, एतेक भोगासक्ति और कोनो देश में भेटतौह ? एहि ठामक कवि तन सॅं बेसी स्तन कैं बुझैत छथि ।

हम कहलिऎन्ह - परन्तु भक्तिओ त एहि देश में तेहने छैक ।

खट्टर कका बजलाह – हौ, भक्तिओ अधिकतर ताहि लऽ कऽ छैक । राधाक भक्त लोकनि केहन भक्ति करैत छथिन्ह से देखहुन । एक कवि कहैत छथिन्ह -

            देहि    मत्कंदुकं   राधे    परिधाननिगूहितम ।
            इति  विस्त्रंसयन् नीवीं  तस्या कृष्णो मुदेस्तुनः ॥
        

‘कृष्ण भगवान राधा सॅं छीनाछोरी करैत छथिन्ह जे हमर गेन दऽ दिअऽ ! हौ, राधाक पयोधर की भेलैन्ह , कवि लोकनिक खेलौना भऽ गेलैन्ह ! केओ गेन बना कऽ खेलाइ छथि । केओ बटखराक काज ओहि सॅं लैत छथि ।

हम - बटखराक काज ? से कोना ?

ख० - देखह , एक कविक उक्ति छैन्ह -

            नीतं नव  नवनीतं  कियदित  पृष्टो  यशोदया कृष्णः ।
           इयदिति  गुरुजन-संसदि करधृतराधा-पयोधरः पातु  ॥
        

यशोदाजी कृष्ण सॅं पुछैत छथिन्ह जे अहाँ कतेक माखन लऽ गेलहुँ अछि ? ओहि ठाम कोनो पौआ वा अधसेरा त रहैन्ह नहिं । कृष्ण भगवान चट्ट दऽ राधाक स्तन धऽ कऽ देखा देलथिन्ह जे 'एतवा' ।

हमरा चकित देखि खट्टर कका बजलाह - देखह एक भक्त राधा कैं कहैत छथिन्ह -

            राधे  त्वमधिकधन्या   हरिरपि  धन्यो   भवतारकोऽपि ।
             मज्जति  मदनसमुद्रे  तव  कुचकलशावलम्बनं   कुरुते  ॥
        

अर्थात हे राधे ! भगवान अनका भवसागर पार करबैत छथिन्ह, परन्तु जखन स्वयं मदन-सिन्धु में डूबय लगैत छथि, तखन अहीक पयोधररुपी कलश पकड़ि कऽ पार उतरैत छथि ।

हम क्षुब्ध होइत कहलिऎन्ह – बलिहारी एहन भक्त कैं । ओ भक्तराज अपने कोना पार उतरल हैताह ?

ख० – देखह, दोसर भक्त कल्पना करैत छथि जे राधाक पयोधर देखैत-देखैत कृष्ण भगवान् गायक बदला बड़द दूहय लगलाह !

             राधा   पुनातु    जगदच्युतदत्तचित्ता
          मंथानमाकलयती       दधिरिक्तपात्रे  ।
            यस्याः   स्तनस्तबकचूचुकलोलदृष्टि
          र्देवोऽपि  दोहनधिया  वृषभं    दुदोह   ॥
        

हम - खट्टर कका, अहाँ त तेहन-तेहन उदाहरण राखि दैत छी जे हमर मूँहे बंद भऽ जाइत अछि ।

ख० – हौ, कवि लोकनिक मन में जतबा गुबार छलैन्ह से सभटा राधा क नाम पर बाहर कैने छथि । सभ सॅं सस्त भेटलथिन्ह राधा । जेना ओ सभक भौजाइ होथिन्ह। और केवल राधा किऎक ? कवि लोकनि कैं त लाइसेंस भेटल छैन्ह । हुनका लेल जेहने राधा , तेहने लक्ष्मी , तेहने पार्वती । ओ ककरो छोड़यवला नहिं !

हम- अच्छा ! लक्ष्मीओ नहिं बाँचल छथि ?

ख० - बॅंचतीह कोना ? देखह लक्ष्मी-नारायण क एक भक्त कोन प्र्कारे प्रार्थना करैत छथिन्ह !

           कुचकुचचिबुकाग्रे  पाणिषु   व्यापितेषु
          प्रथमजलधिपुत्री -     संगमेऽनंगधाम्नि ।
          ग्रथितनिविडनीवीग्रन्थिनिर्मोचनार्थं
          चतुरधिककराशः  पातु वश्चक्रपाणिः    ॥
        

विष्णु भगवान क चारु हाथ फॅंसल छैन्ह । एक हाथ लक्ष्मीक केश में, एक हाथ चिबुक में दू हाथ पयोधर में । आब कोंचाक बंधन कोन हाथे फोलताह ? पाँचम हाथ होइन्ह तखन ने ? एहन जे खेखनाएल भगवान से रक्षा करथु !

हम - खट्टर कका, एहन भक्त सॅं भगवाने रक्षा करथि ।

ख० - भगवान त भक्त सॅं हारले रहैत छथि । देखह, लक्ष्मीक एक भक्त कोना ध्यान करैत छथिन्ह ?

          पद्मायाः  स्तनहेमसद्मनि   मणिश्रेणी  समाकर्षके
          किंचित् कंचुकसंधिसन्निधिगते  शौरेः करे तस्करे  ।
          सद्यो  जागृहि  जागृहीति  बलयध्यानैर्ध्रुवं गर्जता
          कामेन प्रतिबोधिताः प्रहरिकाः रोमांकुरा पान्तु नः  ॥
        

अर्थात लक्ष्मीक कंचुकी में स्तन क लोभें विष्णुक हाथ सन्हिया रहल छैन्ह। से देखि कामदेव अपना प्रहरी सभ कैं जगा रहल छथि - “उठै जाह ! उठै जाह ! घर में चोर पैसि रहल छौह !” ऒ प्रहरी सभ तुरंत उठि कऽ ठाढ भऽ गेल । वैह ठाढ रोमावली हमरा सभक रक्षा करथु !

हम क्षुब्ध होइत कहलिऎन्ह - खट्टर कका, लक्ष्मीक भक्त लोकनि हद कऽ देने छथि । पार्वतीक भक्त एहि तरहें नहिं कहि सकैत छथिन्ह ।

खट्टर कका बजलाह - तखन सुनह । पार्वतीक भक्त, लक्ष्मीक भक्त सॅं एको डेग पाछाँ रहयबाला नहिं छथिन्ह । लोक चरण में प्रणाम करैत छैक, पार्वतीक एक भक्त स्तने में प्रणाम करैत छथिन्ह !

           गिरिजायाः  स्तनौ   वंदे   भवभूतिसिताननौ  ।
          तपस्वी कां  गतोऽवस्थामिति  स्मेराननाविव  ॥
        

दोसर भक्त दूनू उन्मुक्त स्तनक जयजयकार करैत छथिन्ह ।

          अंकनिलीनगजाननशंकाकूलबाहुलेयहृतवसनौ      ।
          सस्मितहरकलकलितौ हिमगिरितनयास्तनौ जयतः ॥
        

तेसर भक्तक दृष्टि में पार्वतीक स्तन शीशा जकाँ झलकैत छैन्ह !

          वक्त्राणि  पंच कुचयोः  प्रतिबिम्बितानि
          दृष्ट्वा           दशाननामागमनभ्रमेण       ।
          भूयोऽपि   शैलपरिवृत्तिभयेन     गाढ-
          मालिंगितो   गिरिजया  गिरिशः  पुनातु      ॥
        

पार्वतीक दूनू स्तन में महादेवक पाँचो मुँह अकित भेने पार्वती कैं दशमुख रावणक भ्रम भऽ जाइ छैन्ह जे ओ फेर कैलाश पर्वत उठाबय आयल अछि । एहि भय सॅं ओ शिवजी में लटपटा जाइ छथि ।

हम - इह ! हिनका लोकनिक कल्पना कहाँ सॅं पहुँचि जाइ छैन्ह ?

ख० – तों एतबे में घबरा गेलाह ? देखह एक चारिम भक्त पार्वती कैं की कहैत छथिन्ह ?

             हरक्रोधज्वालावलिभिरवलीढेन     वपुषा
            गभीरे  ते नाभी सरसिकृतझम्पो मनसिजः  ।
            समुत्तस्थौ तस्मादचलतनये   धूमलतिका
            जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति  ॥
        

“हे जननी ! महादेवक क्रोधज्वाला सॅं जरैत कामदेव अहाँक नाभिरुपी सरोवर में आबि कुदलाह । ताहि सॅं जे धुआँ पसरल , सैह अहाँक रोमावली भऽ गेल ।"

हम कान पर हाथ दैत कहलिऎन्ह - बाप रे बाप ! ‘जननी' सम्बोधन कय रोमावलीक वर्णन ! हमरा त रोमांच भय रहल अछि ।

ख० – तों एकटा सुनि कऽ घबड़ा गेलह ? हौ, सामान्य भक्तक बात जाय दैह । शंकराचार्य सन संन्यासी 'भवानीभुजंगस्त्रोत्र' में भवानी क रोमावली क स्तुति कैने छथिन्ह !

          सुशोणाम्बरावद्धनीवीं  विराजन महारत्नकांचीकलापं नितम्बम ।
          स्फुरद्दक्षिणावर्तनाभिं च तिस्त्रोवली रम्य ते रोमराजिं भजेऽहम ॥
        

हौ, एहने भक्ति यदि केओ तोरा काकी सॅं करय लागि जाइन्ह , हुनका केहन लगतैन्ह ?

हम - खट्टर कका, अहाँ त तेहन दृष्टान्त दैत छी जे हमर मुँहे बन्द भऽ जाइत अछि । भक्त लोकनि कोनो अंग त छोड़ि दितथिन्ह ।

ख० - तखन फेर भक्ते की कहबितथि ?

खट्टर ककाक खाट लगिचा गेल छलैन्ह । बजलाह – देखह, रोमावली क वर्णन में एहि ठामक कवि कतबा बुद्धिक चमत्कार देखौने छथि ! एगोटा उत्प्रे क्षा करैत छथि -

            लिखतः  कामदेवस्य  शासनं   यौवनश्रियः   ।
           गलितेव  मसीधारा  रोमाली  नाभिगोलकात  ॥
        

अर्थात् ई रोमावली की थीक जे कामदेव क दोआति सॅं रोसनाइ टघरि कऽ पसरि गेल अछि !

दोसर गोटा कैं ओहि में चुट्टीक पाँती सुझैत छैन्ह !

           पयोधरस्तावदयं          समुन्नतो
          रसस्य  वृष्टिः    सविधे  भविष्यति   ।
          अतः   समुद्गच्छति     नाभिरंध्रतो
          विसारि  रोमालि    पिपीलिकावलिः  ॥
        

अर्थात् ई रोमावली नहिं थीक । ऊपर पयोधर देखि रसवृष्टि क अनुमान कय नाभि रूपी विवर सॅं चुट्टीक धारी चलल अछि !

तेसर गोटा कैं ओ लोह क सिक्कड़ बूझि पड़ैत छैन्ह !

           तन्वंग्याः  गजकुंभपीनकठिनोत्तुङ्गौ  वहन्त्याः  स्तनौ
          मध्यः  क्षामतरोऽपि यन्न झटिति प्राप्नोति भंगं  द्विधा ।
          तन्मन्ये  निपुणेन        रोमलतिअकोद्भेदापदेशादसौ
        

नायिका कोमलांगी छथि । कटि प्रदेश अत्यन्त कृश छैन्ह । ऊपर पीन पयोधर क भार सॅं डाँड़ टुटि कऽ दू खंड नहिं भऽ जाइन्ह, तैं बीच में लोह क सिक्कड़ सॅं बान्हि देल गेल छैन्ह !

चारिम गोटा क ओ तीर्थस्थान बुझना जाइ छैन्ह !

          उत्तुङ्गस्तन  पर्वतादवतरद    गंगेव    हारावली
          रोमाली  नवनीलनीरजरुचिः सेयं कलिंदात्मजा ।
          जातं तीर्थमिदं  सुपुन्यजनकं   यत्रानयोः संगमः
          चन्द्रो मज्जति लांछनापहृतये नूनं  नखाकच्छलात ॥
        

अर्थात स्तन सॅं जे हार नीचा लटकल अछि से पर्वत सॅं निकसलि गंगा थीक और नीचा रोमावलीक रेखा यमुनाक धार थीक। जहाँ दूनूक संगम से तीर्थराज प्रयाग थीक ।

पाँचम गोटा कैं ओहि में तर्पणक तिल भेटि जाइत छैन्ह !

            गौरमुग्धवनितावरांगके
            रेजुरुत्थिततनुरुहांकुराः  ।
            तर्पणस्य मदनस्य वेधसा
            स्वर्णशुक्तिनिहितास्थिला इव ।
        

अर्थात कामदेवक तर्पणक हेतु जे तिल छिटल गेलैन्ह सैह रोमावली रूप में प्रकट अछि !

हौ, जतबा बुद्धिविलास ई लोकनि रोमावली में लगौने छथि ततबा दोसरा वस्तु में लगौने रहितथि त देशक बहुत उपकार होइत ।

हम - खट्टर कका, वास्तव में एहि ठाम क कवि प्रणम्य देवता होइ छथि ।

ख० – जौं से नहिं रहितथि त स्तोत्रो में रसिकता देखवितथि ? देखह, गौरीक ध्यान कोना होइ छैन्ह !

             मुखे  ते  ताम्बूलं  नयनयुगले   कज्जलकला
            विराजजन्मंदार-द्रुम-कुशुमहारः     स्तनतटे
            स्फुरत्  कांचीशाटी  पृथुकटितटे हाटकमयी
            भजामस्त्वां  गौरी    नगपतिकिशोरीविरतम  ॥
        

त्रिपुर-सुन्दरीक स्तुति देखहुन -

             स्मरेत्             प्रथमपुष्पिणीम्
          रुधिर   विन्दु        नीलाम्बराम्
          घनस्तन                भरोन्नताम्
          त्रिपुर        -         सुन्दरीमाश्रये  ॥
        

आजन्म ब्रह्मचारिणी सरस्वती पर्यन्त कैं ई लोकनि नहिं छोड़लथिन्ह ।

             वामकुच        -         निहितवीणाम्
            वरदां      संगीत  -  मातृकां   वंदे  ।
                              +                   +                +
            शान्तां                  मृदुलस्वान्ताम्
            कुच-भरतान्तां  नमामि  शिवकान्ताम् ।
        

और कहाँ धरि जे भगवतिओ क भजन करताह त -

               जय  जय  हे  महिषासुरमर्दनि   !
            रम्यकपर्दनि           शैलसुते   !
            जितकनकाचल    मौलिपदोर्चित,
            निर्झर     निर्झर      कुंभ-कुचे  !
        

हौ, विना कुच कैं ई लोकनि ध्याने नहिं कय सकैत छथि !

हम - खट्टर कका, देवी लोकनि एहन भक्ति देखि कय मन मे की कहैत होइथिन्ह ?

ख० – हौ, जाहिठाम सहोदरा क स्तन पर उत्प्रेक्षा कैल जाय जे -

कुच-प्रत्यासत्या हृदयमपि ते चंडि कठिनम्

ताहिठाम अन्यान्य देवीक कोन धाख ? हौ, बाबू ! तोरो सार कवि छथुन्ह ।कनेक बाँचिए कऽ रहिहऽ ।

खट्टर ककाक खाट तैयार भऽ गेल छलैन्ह । ओराँच कसैत बजलाह -

असल में बूझह त कविक मूँह में लगाम नहिं होइ छैन्ह । हमरा त आश्चर्य होइ अछि जे लगाम कैं 'कविका' किऎक कहैत छैक ।

पुनः बजलाह - लेकिन हमरा त अपने मुँह में लगाम नहिं अछि । दोसरा कैं की दुसिऔक ?

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, भक्तिकाव्य में सेहो एतबा रसिकता छैक से हमरा नहिं बूझल छल ।

खट्टर कका बजलाह – हौ, भक्तिमार्ग खूब होइ अछि । हलुआ पूड़ी खाउ और रसकीर्तन करु - गोपी-पीन-पयोधर-मर्दन चंचल-कर-युग-शाली ! आन मार्ग में लोक सुखा जाइ अछि; भक्तिमार्ग में फूलि कऽ चतरा जाइ अछि । तैं त पुष्टिमार्ग कहल जाइ छैक । श्रृंगार ओ भक्ति में कि कोनो तात्विक अन्तर छैक ? जेना रस सॅं छलकैत अंगूर सुखा कऽ मोनक्का भऽ जाइत अछि, तहिना श्रृंगारो कालक्रमे भक्ति बनि जाइत अछि । "स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्य- भाषणम् " - सभ तरह क आनन्द एहू में भेटि जाइत छैक । कतेको भक्त तऽ चारि दिनक मासिको धर्म राखि कऽ भगवान कऽ प्रेयसीदल में सम्मिलित भऽ जाइ छथि । ```` परन्तु हमरा कोन काज जे सभ सॅं लड़ाइ-झगड़ा बेसाहने भेल फिरु ? जे होइ छैक से होबय दहौक ।` ` ` ` `` खैर, आइ तेहन चर्चा चलल जे ई खाट तैयार भऽ गेल । ई कहि खट्टर कका खाट उठा कऽ भीतर नेनेगेलाह ।

॥ इति ॥