24. काव्य क रस खट्टर ककाक तरंग
ओहिदिन खट्टर कका खाट घोरैत रहथि । हमरा संग में एक व्यक्ति कैं देखि कऽ बजलाह – हौ, ई झुल्फी बला के छथिन्ह ?
हम कहलिऎन्ह – ई कवि छथि । हमर सार थिकाह । अपन कविता अहाँ कैं सुनाबय चाहैत छथि ।
खट्टर कका बजलाह - आइ हमरा बैसि कऽ कविता सुनबाक फुरसति नहिअछि। हॅं, जौं तों रस्सी धरौने जाह और ई पौआ अलगौने जाथि त हम थोड़ेक सुनि लेबैन्ह ।
हम कहलिऎन्ह - बेस त , सैह रहौ ।
कविजी अपन 'प्रिया-मिलन' नामक प्रेमकाव्य प्रारम्भ कैलन्हि । किछु काल सुनलाक उपरान्त खट्टर कका कहलथिन्ह – औ,आब बंद करू ।
कविजी अकचका क पुछलथिन्ह - से किऎक ?
खट्टर कका बजलाह – हमरा फूसि नहिं सुनल जाइ अछि !
कवि - हम फूसि की कहल अछि ?
ख० – सभटा फूसिए कहल अछि । अहाँ कहैत छी जे चातक पक्षी स्वाती क बुन्द छोड़ि और कोनो पानि नहिं पिबैत अछि । अहाँ चातक कैं कहियों पानि पिया कऽ देखने छिऎक ?
कवि - नहिं ।
ख० - परन्तु हम त चिड़ियाखाना में देखने छिऎक । ओ बारहो मास तीसो दिन पानि पिबैत अछि ।
कविजी चुप्प भऽ गेलाह । खट्टर कका पुनः कहलथिन्ह – औ कविजी ! अहाँ लिखै छी जे चकोर पक्षी अग्नि-भक्षण कय पचा लैत अछि । अहाँ कहियो चकोर कैं अग्नि खोआ कय देखने छिऎक ?
कविजी - नहिं ।
ख०-- तखन अहाँ कोना बुझैत छिऎक जे ओकर ठोर नहिं पकैत छैक ? कविजी चुप्प ।
ख०-- अहाँ लिखैत छी जे चकवा पक्षीक जोड़ा राति में एक संग रहिए नहिं सकैत अछि। परन्तु हम त एक्के पिजड़ा में नर – मादा दूनू कैं रहैत देखने छिऎ क ।
कविजी चुप्प ।
ख०-- अहाँ लिखने छी जे हंस नीर ओ क्षीर कैं पृथक कय दैत अछि। ई बात अहाँक देखल अछि ? यदि ई सत्य हो त हम आइए एकटा हंस पोसि ली। जैखन गोआरिन दूध लऽ कऽ आओत तैखन हंसक लोल ओहि में डुबा दे बैक । परन्तु यदि दूध और पानी फराक नहिं भेल , तखन ?
कविजी चुप्प ।
खट्टर कक पुनः कहय लगलथिन्ह – औ कविजी ! अहाँ कहियो केरा सॅं कर्पूर बनैत देखलिऎक अछि? हाथीक माथ सॅं मुक्ता बहराइत देखलिऎक अछि ? कतहु पारस पाथर देखबा में आयल अछि । यदि वास्तव में ओ पाथर रहितैक त एहि देशक कवि हकन्न किएक कनितथि? लोहा में छुआ दितथिन्ह, सोना बनि जइतैन्ह । कवि पत्नी सोने क कड़ाही में दूध औटतथि ।
कविजी - परन्तु प्राचीन कवि सभ त एहिना लिखि गेल छथि ।
ख० - तदि ओ लोकनि लिखि गेल छथि जे नायिका कैं कटि नहिं होइ छैन्ह, तखन अहाँ अपना स्त्रीक करघनी फेकि देब ?
हम पुछलिएन्ह - खट्टर कका, एहि सभ बातक परीक्षा कैनहि बिना लोक एतबा दिन सॅं किएक मानैत आबि रहल अछि ?
खट्टर कका बिहुँसैत बजलाह – हौ, हमरा लोकनि छी मिथ्यानन्द । मिथ्याक कल्पना में हमरा सभ कैं बेसी आनन्द भेटैत अछि। 'सुन्दरीक लात सॅं अशोक वृक्ष फुला जाइछ' एहन एहन कल्पना कोनो वैज्ञानिक क मस्तिष्क मे आबि सकैत छैन्ह ? ` ` ` ` `औ कविजी, ओहि कातक पौआ अलगाउ ।
खट्टर कका खाट घोरैत कहय लगलाह- हौ, कवि लोकनि धन्य होइ छथि। हुनका सभ किछु माफ रहै छैन्ह। वैह बात जौं दोसर बाजय त मारि भऽ जाइक।
हम- से कोना खट्टर कका?
ख०- देखह। यदि किनको कहल जाइन्ह जे ' कन्या में अपूर्व लावण्य अछि' त पिताक मन प्रसन्न भऽ जैतैन्ह। परन्तु वैह बात यदि ठेठ शब्दें कहल जाइन्ह जे 'बेटी बड्ड नमकीन अछि' तखन लाठिए बजरि जाय। विचारि कऽ देखह, त बात एक्के! परन्तु कहबाक शैली में भेद छैक! यदि वैह बात गमार बजाय त लंठ भेल, कवि बजलाह त रसिक भेलाह।
हम कहलिऎन्ह- खट्टर कका, ई त ठीक कहल।
खट्टर कका खाट घोरैत बजलाह- हम कोनो बात बेठीक कहैत छिऔह? यदि कोनो युवती कैं केओ सोझे जा कऽ कहैन्ह-' वाह! अहाँक स्तन बड्ड सुन्दर अछि' त ओकरा पर पादुका बरसतैक। और यदि वैह बात छंद बना कऽ बजताह त हुनका पर पदक बरसतैन्ह की औ कविजी! अहीं जे नायिका क पयोधर कै एना खोलि कऽ वर्णन कैने छिऎक तेना कोनो वास्तविक बहु-बेटी कैं कहबैक ?
खट्टर ककाक ई रबैया देखि कविजी रस्सीक फंदा छोड़ाय, अपन प्रेम-काव्य समेटैत घसकन्तौवाच भेलाह ।
हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, आइ अहाँ कैं तेहन सूर चढि गेल जे बेचारे कविजी अपन सन मूँह लऽ कऽ बिदा भऽ गेलाह ।
खट्टर कका बजलाह – हौ, हमरा हाथ में रस्सीक घर्रा लगैत छल और कुच वर्णन सुनाबय लगलाह ! एही द्वारे हमरा तामस उठि गेल । परन्तु बलहुँ वेचारा कैं एतेक बात कहलिऎक एहि देशक त परम्परे यैह छैक । देखह -
बदरामलकाम्रदाड़िमानामपह्रत्य श्रियमुन्नतौ क्रमेण । अधुना हरणे कुचौ यतेते बाले ते करिशावकुंभलक्ष्म्या ॥
हम - एकर अर्थ की भेलैक ?
ख० - कवि कहैत छथिन्ह - "हे बाले, अहाँक दूनू````` पहिने बैर सन सन छल; तखन धात्रीफल सन भेल ; तदुपरान्त अनार सन सन भऽ गेल; आब हाथी क माथ सॅं टक्कर लय रहल अछि ।"
हम - खट्टर कका, ई त अश्लील भेल !
खट्टर कका व्यंग्यपूर्वक बजलाह – हँ । हम गद्य में अनुवाद क कहलिऔह त अश्लील भऽ गेल । और यैह बात कवि कोकिल पद्य में बजलाह त कोमल- कान्त- पदावली भऽ गेलैन्ह !
प्रथम बदरि फल पुनि नवरंग दिन दिन बाढय पिड़य अनंग से पुनि भय गेल बीजक पोर आब कुच बाढल श्रीफल जोर ।
वैह बैर सॅं नारंगी, ओ नारंगी सॅं बेल ! परन्तु एहन एहन पद कैं केओ अश्लील नहिं कहैत छैन्ह । स्वयं युवतीगण गबैत छथि । सेहो बेस टहंकार सॅं । राग भास दऽ कऽ
हम - खट्टर कका, विद्यापतिक कविता में केहन अपूर्व रस छैन्ह ?
खट्टर कका बानि दैत बजलाह – हौ, एहिना संस्कृतक कवि लोकनि श्रृंगारक वर्णन में अपन चमत्कार देखौने छथि तहिना त ओहो कैने छथि । वैह नख सिख, वैह सद्यःस्नाता, वैह विरह, वैह अभिसार, वैह नखक्षत, वैह विपरीत रति। हमरा त कोनो नवीनता नहिं बुझि पड़ैत अछि ।
हम - तखन करोड़ो जनता हुनका कविता पर किऎक मुग्ध अछि ?
खट्टर कका बजलाह - एकर कारण जे पहिने नायिका क संभोग वर्णन केवल संस्कृते काव्य में रहैत छलैक । साधारण लोक ओहि रस सॅं बंचित रहैत छल। देवभाषाक ओहि रस कैं ई लोकभाषा में लऽ अनलन्हि। फलस्वरूप सभ केओ ‘कुचकुचकटाक्ष' क आस्वादन करय लागि गेल। एहि माधुर्यक कारण विद्यापति ग्रामीण जनताक कंठहार बनि गेलाह। यदि हुनका पदावली सॅं 'कुच' काटि देल जाइन्ह त की रहि जैतैन्ह ? केवल नचारी ।
हम - खट्टर कका - ई अहाँ अतिशयोक्ति कऽ रहल छी। प्रसंगवश दू-एक ठाम कुच क वर्णन आवि गेल हेतैक ।
खट्टर कका बजलाह - तखन तों बानि दैत रहह । हम कुचकीर्तन सुना दैत छिऔह ।
देखह , कतहु सखी नायिका कै, शिक्षा दैत छथिन्ह -
झाँपब कुच दरसायब आध
कतहु नायक कैं उपदेश दैत छथिन्ह -
गनइत मोतिम हारा छले परसब कुच भारा ।
नायिका यौवनक भार सॅं अवग्रह में छथि । किऎक त -
उनत उरोज चिर झपबय, पुनि पुनि दरसाय जइए जतने गोअए चाहए, हिम गिरि ने नुकाय
कतबो आँचर चौपेति कऽ रखै छथि , तथापि -
तेइ उदसल कुच जोरा पलटि बैसाओल कनक कटोरा
तखन ओ हाथ लऽ कऽ झॅंपैत छथि । ई देखि नायकक चित्त चंचल भऽ जाइ छैन्ह -
करयुग पिहित पयोधर अंचल चंचल चित देखि भेला
किऎक त -
आध उरज हेरि आध आँचर भरि तब धरि दगधे अनंग
संयोगवश नायिकाक अंचल ससरि जाइ छैन्ह । ई देखि नायक कृतार्थ भऽ जाइ छथि -
ता पुनि अपुरब देखल रे कुचयुग अरविंद ।
देखि कऽ मन में सिहन्ता होइ छैन्ह जे - सौभाग्यवश नायक कैं अनुकूल अवसर भेटि जाइ छैन्ह ।
आँचर परसि पयोधर हेरु जनम पंगु जनि भेटल सुमेरु
जेना दरिद्र कैं स्वर्णकलश भेटि जाइन्ह तहिना नायक करय लगैत छथि -
खनहिं चीर धर खनहिं चिकुर गह करए चाह कुच भंगे
अन्त मे सफलता हाथ लगैत छैन्ह ।
कुचकोरक तव कर गहि लेल
तदुपरान्त -
पीन पयोधर नख रेख देल कनक कुंभ जनि भगनहु भेल
नायिका की करथु ?
सुन्दर कुचयुग नख खत भरी जनि गजकुंभ विदारल हरी
ओ आकुल भऽ गेलीह और नायक रसपान करय लगलाह ।
कर धरु कुच आकुल भेल नारी निरखि अधर मधु पिबय मुरारी
और आगाँ सुनबह ?
हम – नहिं खट्टर कका । हम मानि लेल । परन्तु विद्यापति त राधाकृष्ण क भक्त छलाह तखन कुचकुंभ.......
ख० - एतबे में तों उजबुजा गेलाह ? राधाक भक्त औरो दूर धरि पहुँचि जाइ छथिन्ह । देखह ,
सुखद सेज पर नागरि नागर बइसल नवरति साधे प्रति अंग चुंबन रस अनुमोदन थरथर काँपत राधे
हौ, तो भातिज नहिं रहितह त और बेसी सुनबितिऔह । किन्तु इहो संकोच त हमरा व्यर्थे भऽ रहल अछि । आब त एहन एहन पदावली विद्यार्थीक पाठ्य ग्रन्थ में राखल गेल छैन्ह !........कनेक रस्सी धराबह ।
हम रस्सी धरबैत कहलिऎन्ह - खट्टर कका, विद्यापति महादेवक परम भक्तछलाह ।
खट्टर कका व्यंग्य करैत बजलाह – हॅं, तेहन परम भक्त छलाह जे कामिनी क स्तनो में हुनका महादेव सुझैत छथिन्ह । देखह -
सुरत समापि सुतल वर नागर पानि पयोधर आपी कनक शंभु जनि पूजि पुजारी धयल सरोरुह झाँपी
परन्तु ओहन सुकमार महादेव कें भग्न होइत कतेक देरी लगतैन्ह ?
कोन कुमति कुच नखछत देल हाय हाय शंभु भगन भय गेल!
हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, अहाँ त रसपक्षक धार बहा देलहुँ । परन्तु विद्यापति में भक्तिपक्षो त छैन्ह । महेशवानी सभ देखिऔन्ह ।
खट्टर कका रस्सी क घुरची छोड़बैत बजलाह – हौ, यैह त एहि देश में भेलैक अछि । कवि लोकनि कैं दुइएटा राग अबैत छैन्ह । यावत पर्यन्त भोग कर बाक शक्ति तावत् त मृगनैनी सुझैत छथिन्ह , और जहाँ थकलाह कि मृगछाला सूझय लागि जाइ छैन्ह । तैं युवावस्था भरि त -
कुच विपरीत बिलम्बित हार कनक कलस बम दूधक धार !
और वृद्धावस्था पहुँचल त -
कखन हरब दुख मोर हे भोलाबाबा !
और वार्द्धक्य प्रयुक्त ओहि असमर्थता कैं नाम देल जाइ छैन्ह 'भक्ति' !
हमरा चुप्प देखि खट्टर कका बजलाह – ई कोनो विद्यापतिए में नहिं छैन्ह। देव विहारी मतिराम पद्माकर सभक यैह हाल छैन्ह । बूझह त एहि देशक परम्प रे यैह छैक । संस्कृत काव्य में दुइए टा धारा बहैत छैक । नवारी मे श्रृंगारकसरिता । बुढारी में वैराग्यक बाहा !
हम - खट्टर कका, एहि उपमा सॅं त बुझि पड़ैत अछि जे श्रृंगारे बेसी प्रबल अछि ।
ख० – ताहू में संदेहे ? संस्कृत काव्यक वाटिका में विचरण करबह तऽ नारंगी-अनार क सोभा देखैत रहि जैबह । हॅं, हत्ता पर वैराग्यक बबुर सेहो भेटतौह ।
हम – अहा ! ई त बड्ड सुन्दर उपमा भेल ।
ख० - हम यथार्थे कहैत छिऔह । बूझह त संस्कृत काव्य कुचकाव्य थीक। कवि लोकनि कैं संसारक समस्त गोल वस्तु ओहि में भेटैत छैन्ह । विद्यापति कि कोनो उपमा अपना घर सॅं लेलाह अछि ? तों ओहिना बानि देने जाह त हम संस्कृत -काव्य क चाशनी चखा दैत छिऔह । देखह, एक गोटा कहैत छथि -
जम्बीरश्रिय मतिलंघ्य लीलयैव व्यानभ्रीकृत कमनीय हेमकुंभौ । नीलांभोरुह नयनऽधुना कुचौ ते स्पर्धेते किल कनकाचलेन सार्धम ॥
अर्थात् हे सुन्दरी ! अहाँक कुच पहिने जंबीरी नेबो कैं हरौलक, तखन स्वर्ण कलश कैं जितलक, और आब कनकाचल पहाड़ सॅं स्पर्धा कऽ रहल अछि
हम - इह ! कवियोक उड़ान आश्चर्ये होइ छैन्ह । कलश सॅं कूदि कऽ एके बेर पर्वत पर पहुँचि गेलाह ।
ख० - दोसर गोटा कैं ओहू सॅं सन्तोष नहिं भेलैन्ह त एकदम आकाशे ठेका देलथिन्ह ।
अल्पं निर्मितमाकाशमनालोच्यैव वेधसा । इदमेवंविधं भावि भवत्याः स्तनमंडलम ॥
अर्थात् ब्रह्मा आकाश बनौलन्हि से छोट भऽ गेलैन्ह । तखन फेर कऽ गढबाक हेतु साँचा बनौलन्हि, सैह अहाँक स्तन-मंडल थीक । हौ, एहन एहन कवि कैं सम्पूर्ण ब्रह्मांडे स्तनमंडल बुझि पड़ैत छैन्ह !
हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, अतिशयोक्तिक पराकाष्ठा भऽ गेल ।
खट्टर कका बजलाह - अतिशयोक्ति क त ई देशे थीक । एक रसिक कैं स्तनक ऊपर नखक चिन्ह देखि बुझि पड़ैत छैन्ह जे महादेवक ललाट पर चन्द्रमा विराजमान छथि ।
स्वयंभूः शंभुरंभोजलोचने त्वल्पयोधरः । नखेन कस्य धन्यस्य चन्द्रचूडो विराजते ॥
हम - धन्य छलाह ई कवि लोकनि !
ख० – तोरा एतबे में आश्चर्य होइ छौह । एकटा भक्तराज कैं दशो अवतार ओही में भेटि जाइत छैन्ह । कठोर, तैं कच्छप अवतार । कंदर्पक पताका फहर बैत, तैं मीनावतार । एवं प्रकारक तुलना करैत करैत कहै छथिन्ह जे`
भाति श्रीरमणावतारदशकं बाले भवत्याः स्तने ।
हम - हद भऽ गेल खट्टर कका ! एहन एहन उक्ति और कोनो भाषा मे भेटत ? ई लोकनि उमर खैयामो कैं जितलैन्हि ।
खट्टर कका बजलाह – हौ, खैयाम की खा कऽ ओहन कल्पना करताह ? देखह, एक गोटा कहै छथि -
द्रष्टव्येषु किमुत्तमं मृगदृशः प्रेमप्रशन्नं मुखम् घ्रातव्येष्वपि किं तदास्यपवनः श्राव्येषु किं तद्वचः । कि स्वाद्येषु तदोष्ठपल्लवरसः ध्येयेषु किं ततस्मितम किं पूज्येषु सुवर्णशंभसदृशौ तस्या पवित्रौ स्तनौ ॥
हौ, एतेक भोगासक्ति और कोनो देश में भेटतौह ? एहि ठामक कवि तन सॅं बेसी स्तन कैं बुझैत छथि ।
हम कहलिऎन्ह - परन्तु भक्तिओ त एहि देश में तेहने छैक ।
खट्टर कका बजलाह – हौ, भक्तिओ अधिकतर ताहि लऽ कऽ छैक । राधाक भक्त लोकनि केहन भक्ति करैत छथिन्ह से देखहुन । एक कवि कहैत छथिन्ह -
देहि मत्कंदुकं राधे परिधाननिगूहितम । इति विस्त्रंसयन् नीवीं तस्या कृष्णो मुदेस्तुनः ॥
‘कृष्ण भगवान राधा सॅं छीनाछोरी करैत छथिन्ह जे हमर गेन दऽ दिअऽ ! हौ, राधाक पयोधर की भेलैन्ह , कवि लोकनिक खेलौना भऽ गेलैन्ह ! केओ गेन बना कऽ खेलाइ छथि । केओ बटखराक काज ओहि सॅं लैत छथि ।
हम - बटखराक काज ? से कोना ?
ख० - देखह , एक कविक उक्ति छैन्ह -
नीतं नव नवनीतं कियदित पृष्टो यशोदया कृष्णः । इयदिति गुरुजन-संसदि करधृतराधा-पयोधरः पातु ॥
यशोदाजी कृष्ण सॅं पुछैत छथिन्ह जे अहाँ कतेक माखन लऽ गेलहुँ अछि ? ओहि ठाम कोनो पौआ वा अधसेरा त रहैन्ह नहिं । कृष्ण भगवान चट्ट दऽ राधाक स्तन धऽ कऽ देखा देलथिन्ह जे 'एतवा' ।
हमरा चकित देखि खट्टर कका बजलाह - देखह एक भक्त राधा कैं कहैत छथिन्ह -
राधे त्वमधिकधन्या हरिरपि धन्यो भवतारकोऽपि । मज्जति मदनसमुद्रे तव कुचकलशावलम्बनं कुरुते ॥
अर्थात हे राधे ! भगवान अनका भवसागर पार करबैत छथिन्ह, परन्तु जखन स्वयं मदन-सिन्धु में डूबय लगैत छथि, तखन अहीक पयोधररुपी कलश पकड़ि कऽ पार उतरैत छथि ।
हम क्षुब्ध होइत कहलिऎन्ह – बलिहारी एहन भक्त कैं । ओ भक्तराज अपने कोना पार उतरल हैताह ?
ख० – देखह, दोसर भक्त कल्पना करैत छथि जे राधाक पयोधर देखैत-देखैत कृष्ण भगवान् गायक बदला बड़द दूहय लगलाह !
राधा पुनातु जगदच्युतदत्तचित्ता मंथानमाकलयती दधिरिक्तपात्रे । यस्याः स्तनस्तबकचूचुकलोलदृष्टि र्देवोऽपि दोहनधिया वृषभं दुदोह ॥
हम - खट्टर कका, अहाँ त तेहन-तेहन उदाहरण राखि दैत छी जे हमर मूँहे बंद भऽ जाइत अछि ।
ख० – हौ, कवि लोकनिक मन में जतबा गुबार छलैन्ह से सभटा राधा क नाम पर बाहर कैने छथि । सभ सॅं सस्त भेटलथिन्ह राधा । जेना ओ सभक भौजाइ होथिन्ह। और केवल राधा किऎक ? कवि लोकनि कैं त लाइसेंस भेटल छैन्ह । हुनका लेल जेहने राधा , तेहने लक्ष्मी , तेहने पार्वती । ओ ककरो छोड़यवला नहिं !
हम- अच्छा ! लक्ष्मीओ नहिं बाँचल छथि ?
ख० - बॅंचतीह कोना ? देखह लक्ष्मी-नारायण क एक भक्त कोन प्र्कारे प्रार्थना करैत छथिन्ह !
कुचकुचचिबुकाग्रे पाणिषु व्यापितेषु प्रथमजलधिपुत्री - संगमेऽनंगधाम्नि । ग्रथितनिविडनीवीग्रन्थिनिर्मोचनार्थं चतुरधिककराशः पातु वश्चक्रपाणिः ॥
विष्णु भगवान क चारु हाथ फॅंसल छैन्ह । एक हाथ लक्ष्मीक केश में, एक हाथ चिबुक में दू हाथ पयोधर में । आब कोंचाक बंधन कोन हाथे फोलताह ? पाँचम हाथ होइन्ह तखन ने ? एहन जे खेखनाएल भगवान से रक्षा करथु !
हम - खट्टर कका, एहन भक्त सॅं भगवाने रक्षा करथि ।
ख० - भगवान त भक्त सॅं हारले रहैत छथि । देखह, लक्ष्मीक एक भक्त कोना ध्यान करैत छथिन्ह ?
पद्मायाः स्तनहेमसद्मनि मणिश्रेणी समाकर्षके किंचित् कंचुकसंधिसन्निधिगते शौरेः करे तस्करे । सद्यो जागृहि जागृहीति बलयध्यानैर्ध्रुवं गर्जता कामेन प्रतिबोधिताः प्रहरिकाः रोमांकुरा पान्तु नः ॥
अर्थात लक्ष्मीक कंचुकी में स्तन क लोभें विष्णुक हाथ सन्हिया रहल छैन्ह। से देखि कामदेव अपना प्रहरी सभ कैं जगा रहल छथि - “उठै जाह ! उठै जाह ! घर में चोर पैसि रहल छौह !” ऒ प्रहरी सभ तुरंत उठि कऽ ठाढ भऽ गेल । वैह ठाढ रोमावली हमरा सभक रक्षा करथु !
हम क्षुब्ध होइत कहलिऎन्ह - खट्टर कका, लक्ष्मीक भक्त लोकनि हद कऽ देने छथि । पार्वतीक भक्त एहि तरहें नहिं कहि सकैत छथिन्ह ।
खट्टर कका बजलाह - तखन सुनह । पार्वतीक भक्त, लक्ष्मीक भक्त सॅं एको डेग पाछाँ रहयबाला नहिं छथिन्ह । लोक चरण में प्रणाम करैत छैक, पार्वतीक एक भक्त स्तने में प्रणाम करैत छथिन्ह !
गिरिजायाः स्तनौ वंदे भवभूतिसिताननौ । तपस्वी कां गतोऽवस्थामिति स्मेराननाविव ॥
दोसर भक्त दूनू उन्मुक्त स्तनक जयजयकार करैत छथिन्ह ।
अंकनिलीनगजाननशंकाकूलबाहुलेयहृतवसनौ । सस्मितहरकलकलितौ हिमगिरितनयास्तनौ जयतः ॥
तेसर भक्तक दृष्टि में पार्वतीक स्तन शीशा जकाँ झलकैत छैन्ह !
वक्त्राणि पंच कुचयोः प्रतिबिम्बितानि दृष्ट्वा दशाननामागमनभ्रमेण । भूयोऽपि शैलपरिवृत्तिभयेन गाढ- मालिंगितो गिरिजया गिरिशः पुनातु ॥
पार्वतीक दूनू स्तन में महादेवक पाँचो मुँह अकित भेने पार्वती कैं दशमुख रावणक भ्रम भऽ जाइ छैन्ह जे ओ फेर कैलाश पर्वत उठाबय आयल अछि । एहि भय सॅं ओ शिवजी में लटपटा जाइ छथि ।
हम - इह ! हिनका लोकनिक कल्पना कहाँ सॅं पहुँचि जाइ छैन्ह ?
ख० – तों एतबे में घबरा गेलाह ? देखह एक चारिम भक्त पार्वती कैं की कहैत छथिन्ह ?
हरक्रोधज्वालावलिभिरवलीढेन वपुषा गभीरे ते नाभी सरसिकृतझम्पो मनसिजः । समुत्तस्थौ तस्मादचलतनये धूमलतिका जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति ॥
“हे जननी ! महादेवक क्रोधज्वाला सॅं जरैत कामदेव अहाँक नाभिरुपी सरोवर में आबि कुदलाह । ताहि सॅं जे धुआँ पसरल , सैह अहाँक रोमावली भऽ गेल ।"
हम कान पर हाथ दैत कहलिऎन्ह - बाप रे बाप ! ‘जननी' सम्बोधन कय रोमावलीक वर्णन ! हमरा त रोमांच भय रहल अछि ।
ख० – तों एकटा सुनि कऽ घबड़ा गेलह ? हौ, सामान्य भक्तक बात जाय दैह । शंकराचार्य सन संन्यासी 'भवानीभुजंगस्त्रोत्र' में भवानी क रोमावली क स्तुति कैने छथिन्ह !
सुशोणाम्बरावद्धनीवीं विराजन महारत्नकांचीकलापं नितम्बम । स्फुरद्दक्षिणावर्तनाभिं च तिस्त्रोवली रम्य ते रोमराजिं भजेऽहम ॥
हौ, एहने भक्ति यदि केओ तोरा काकी सॅं करय लागि जाइन्ह , हुनका केहन लगतैन्ह ?
हम - खट्टर कका, अहाँ त तेहन दृष्टान्त दैत छी जे हमर मुँहे बन्द भऽ जाइत अछि । भक्त लोकनि कोनो अंग त छोड़ि दितथिन्ह ।
ख० - तखन फेर भक्ते की कहबितथि ?
खट्टर ककाक खाट लगिचा गेल छलैन्ह । बजलाह – देखह, रोमावली क वर्णन में एहि ठामक कवि कतबा बुद्धिक चमत्कार देखौने छथि ! एगोटा उत्प्रे क्षा करैत छथि -
लिखतः कामदेवस्य शासनं यौवनश्रियः । गलितेव मसीधारा रोमाली नाभिगोलकात ॥
अर्थात् ई रोमावली की थीक जे कामदेव क दोआति सॅं रोसनाइ टघरि कऽ पसरि गेल अछि !
दोसर गोटा कैं ओहि में चुट्टीक पाँती सुझैत छैन्ह !
पयोधरस्तावदयं समुन्नतो रसस्य वृष्टिः सविधे भविष्यति । अतः समुद्गच्छति नाभिरंध्रतो विसारि रोमालि पिपीलिकावलिः ॥
अर्थात् ई रोमावली नहिं थीक । ऊपर पयोधर देखि रसवृष्टि क अनुमान कय नाभि रूपी विवर सॅं चुट्टीक धारी चलल अछि !
तेसर गोटा कैं ओ लोह क सिक्कड़ बूझि पड़ैत छैन्ह !
तन्वंग्याः गजकुंभपीनकठिनोत्तुङ्गौ वहन्त्याः स्तनौ मध्यः क्षामतरोऽपि यन्न झटिति प्राप्नोति भंगं द्विधा । तन्मन्ये निपुणेन रोमलतिअकोद्भेदापदेशादसौ
नायिका कोमलांगी छथि । कटि प्रदेश अत्यन्त कृश छैन्ह । ऊपर पीन पयोधर क भार सॅं डाँड़ टुटि कऽ दू खंड नहिं भऽ जाइन्ह, तैं बीच में लोह क सिक्कड़ सॅं बान्हि देल गेल छैन्ह !
चारिम गोटा क ओ तीर्थस्थान बुझना जाइ छैन्ह !
उत्तुङ्गस्तन पर्वतादवतरद गंगेव हारावली रोमाली नवनीलनीरजरुचिः सेयं कलिंदात्मजा । जातं तीर्थमिदं सुपुन्यजनकं यत्रानयोः संगमः चन्द्रो मज्जति लांछनापहृतये नूनं नखाकच्छलात ॥
अर्थात स्तन सॅं जे हार नीचा लटकल अछि से पर्वत सॅं निकसलि गंगा थीक और नीचा रोमावलीक रेखा यमुनाक धार थीक। जहाँ दूनूक संगम से तीर्थराज प्रयाग थीक ।
पाँचम गोटा कैं ओहि में तर्पणक तिल भेटि जाइत छैन्ह !
गौरमुग्धवनितावरांगके रेजुरुत्थिततनुरुहांकुराः । तर्पणस्य मदनस्य वेधसा स्वर्णशुक्तिनिहितास्थिला इव ।
अर्थात कामदेवक तर्पणक हेतु जे तिल छिटल गेलैन्ह सैह रोमावली रूप में प्रकट अछि !
हौ, जतबा बुद्धिविलास ई लोकनि रोमावली में लगौने छथि ततबा दोसरा वस्तु में लगौने रहितथि त देशक बहुत उपकार होइत ।
हम - खट्टर कका, वास्तव में एहि ठाम क कवि प्रणम्य देवता होइ छथि ।
ख० – जौं से नहिं रहितथि त स्तोत्रो में रसिकता देखवितथि ? देखह, गौरीक ध्यान कोना होइ छैन्ह !
मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला विराजजन्मंदार-द्रुम-कुशुमहारः स्तनतटे स्फुरत् कांचीशाटी पृथुकटितटे हाटकमयी भजामस्त्वां गौरी नगपतिकिशोरीविरतम ॥
त्रिपुर-सुन्दरीक स्तुति देखहुन -
स्मरेत् प्रथमपुष्पिणीम् रुधिर विन्दु नीलाम्बराम् घनस्तन भरोन्नताम् त्रिपुर - सुन्दरीमाश्रये ॥
आजन्म ब्रह्मचारिणी सरस्वती पर्यन्त कैं ई लोकनि नहिं छोड़लथिन्ह ।
वामकुच - निहितवीणाम् वरदां संगीत - मातृकां वंदे । + + + शान्तां मृदुलस्वान्ताम् कुच-भरतान्तां नमामि शिवकान्ताम् ।
और कहाँ धरि जे भगवतिओ क भजन करताह त -
जय जय हे महिषासुरमर्दनि ! रम्यकपर्दनि शैलसुते ! जितकनकाचल मौलिपदोर्चित, निर्झर निर्झर कुंभ-कुचे !
हौ, विना कुच कैं ई लोकनि ध्याने नहिं कय सकैत छथि !
हम - खट्टर कका, देवी लोकनि एहन भक्ति देखि कय मन मे की कहैत होइथिन्ह ?
ख० – हौ, जाहिठाम सहोदरा क स्तन पर उत्प्रेक्षा कैल जाय जे -
कुच-प्रत्यासत्या हृदयमपि ते चंडि कठिनम्
ताहिठाम अन्यान्य देवीक कोन धाख ? हौ, बाबू ! तोरो सार कवि छथुन्ह ।कनेक बाँचिए कऽ रहिहऽ ।
खट्टर ककाक खाट तैयार भऽ गेल छलैन्ह । ओराँच कसैत बजलाह -
असल में बूझह त कविक मूँह में लगाम नहिं होइ छैन्ह । हमरा त आश्चर्य होइ अछि जे लगाम कैं 'कविका' किऎक कहैत छैक ।
पुनः बजलाह - लेकिन हमरा त अपने मुँह में लगाम नहिं अछि । दोसरा कैं की दुसिऔक ?
हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, भक्तिकाव्य में सेहो एतबा रसिकता छैक से हमरा नहिं बूझल छल ।
खट्टर कका बजलाह – हौ, भक्तिमार्ग खूब होइ अछि । हलुआ पूड़ी खाउ और रसकीर्तन करु - गोपी-पीन-पयोधर-मर्दन चंचल-कर-युग-शाली ! आन मार्ग में लोक सुखा जाइ अछि; भक्तिमार्ग में फूलि कऽ चतरा जाइ अछि । तैं त पुष्टिमार्ग कहल जाइ छैक । श्रृंगार ओ भक्ति में कि कोनो तात्विक अन्तर छैक ? जेना रस सॅं छलकैत अंगूर सुखा कऽ मोनक्का भऽ जाइत अछि, तहिना श्रृंगारो कालक्रमे भक्ति बनि जाइत अछि । "स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्य- भाषणम् " - सभ तरह क आनन्द एहू में भेटि जाइत छैक । कतेको भक्त तऽ चारि दिनक मासिको धर्म राखि कऽ भगवान कऽ प्रेयसीदल में सम्मिलित भऽ जाइ छथि । ```` परन्तु हमरा कोन काज जे सभ सॅं लड़ाइ-झगड़ा बेसाहने भेल फिरु ? जे होइ छैक से होबय दहौक ।` ` ` ` `` खैर, आइ तेहन चर्चा चलल जे ई खाट तैयार भऽ गेल । ई कहि खट्टर कका खाट उठा कऽ भीतर नेनेगेलाह ।
॥ इति ॥