लेखक : हरिमोहन झा

ओहि दिन माछ पर शास्त्रार्थ बजरि गेल। बात भैलैक जे खट्टर कका पोखरि सॅं स्नान कैने चल अबैत रहथि। हम पुछलिऎन्ह - की खट्टर कका, माछ खाइ ?

खट्टर कका बजलाह – अवश्य, अवश्य । कोन माछ छौह ? नेबो छौह कि बाडी सॅं नेने चलू ?

हम कहलिऎन्ह - केवल सिद्धान्तक दृष्टिएं पूछल अछि ।

खट्टर कका बजलाह - तखन महा अनर्थ कैल अछि। भोजन काल ककरो पुछिऎक जे की, दही खाइ ? और पाछाँ कहिऎक जे केवल सिद्धान्त क दृष्टिऍं पूछल अछि । ई कोनो नीक बात थीक ? जौं माछक गप्प करबाक हो त सिद्धान्न क दृष्टिऍं करक चाही ।

हम – एकटा वैष्णवजी आएल छथि से सभ लोक कैं कंठी बान्ह्य कहैत छथिन्ह ।

ख० - पहिने हुनक इष्टदेवता रामचन्द्र कहियो कंठी बन्हलथिन्ह ? देखह विवाह मे -

“मीन पीन पाठीन पुराने, भरि-भरि भर कहारन आने ॥”

महाराज राम कैं त मृगयो सॅं प्रेम छलैन्ह । क्षत्रिय भऽ कऽ शिकार नहि करितथि, मांस नहि खैतथि त की बकरीक दूध पीबि कऽ रहितथि ?

          अन्नशाक-प्रियः  शूद्रो  वैश्यो  दुग्धदधिप्रियः ।
          मत्स्यमांस-प्रियः  क्षत्री   ब्राह्मणो  मधुरप्रियः ॥
        

और सीताजी त आजन्म सौभाग्यवती रहलीह । माछ कियेक छोडितथि?

हम - वैष्णवजीक सिद्धान्त छैन्ह जे माछ ककरो नहि खैबाक चाही ।

ख० - तखन की खैबाक चाही ? काँट ?

हम - ओ माछ कैं अखाद्य बुझैत छथि ।

ख० - से किएक ?

हम - ओहि मे जीव छैक तैं ।

ख० - जीव त वनस्पतिओ में होइत छैक । तखन माटि खाथु ।

हम - अन्न और फल क दोसर बात होइत छैक ।

ख०- दोसर बात की होइ छैक ?

हम - ओकर चैतन्य प्रस्फुटित नहि रहैत छैक ।

ख०- से त अंडो में नहि रहैत छैक ।

हम - वैष्णवजीक कथ्य छैन्ह जे मनुष्य स्वभावतः निरामिषभोजी थीक ।

ख०- कदापि नहि। यदि मनुष्य स्वभावतः निरामिषभोजी रहैत त माछ कैं देखितहि मालजाल जकॉ सूंघि कऽ छोडि दैत। खैबाक चाही कि नहि, ई प्रश्ने नहि उठैत ।

हम - तखन अपनेक की विचार ?

ख०- विचार यैह जे हमरा लोकनि भेडी-बकरीक श्रेणी में नहि छी ।

हम - अर्थात मांसाहारी छी, शाकाहारि नहि ?

खट्टर कका नोसि लेलन्हि, तखन कहय लगलाह - एक ठाम पहुनाइ में गे लहुं त पुछलक जे दही खायब कि दूध ? हम उत्तर देलिऎक – 'दही- दूध में परस्पर विरोधक सम्बन्ध त छैक नहि। हो त दूनू आनि सकैत छी।' तहिना मांस और साक में त कोनो विरोध छैक नहि। हमरा लोकनि उभय भोजी प्राणी थिकहु । दूध माछ दूनू मे कोनो बॉंतर नहि। झिंगो बेस झिंगुनियो बेस ।

हम – वैष्णवजी दॉंतक रचना सॅं सिद्ध करैत छथि जे मनुष्य वानर जकॉ सुद्ध फलाहारी जीव थीक । मांस खैवा योग्य हमरा दाँत हमरा लोकनि कै अछिए नहि ।

ख० - अछिए नहि तखन खाइ छी कोना? हम जे माछ खाइछी से की बिलाडिक दाँत पैच लऽ कऽ ? जहाँ धरि दाँत क प्रश्न छैक, वैष्णवजी कैं चिन्ता करबाक कोनो प्रयोजन नहिं । हॅं बेदाँतक भऽ गेला उत्तर त लोक बेदांती बनिए जाइत अछि ।

हम - परन्तु शास्त्रक दृष्टिएं त मांसाहार ``````

ख० - परम विहित।'यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः।' कोन स्मृतिक प्रमाण चाहैत छ्ह ? मनु याग्यवल्क्य आदि त खैबा योग्य माछ क नामो गना गेल छथि ।

हम - स्मृतिक बात जाय दियऽ । जीव-दया क दृष्टि सॅं विचार करू ।

ख०- हम जौं दये करबैक ताहि सॅं की ? बगुला त दया नहि करतैक । चिल्होडि त नहि छोडतैक । ओकरा खायबला बहुत जन्तु छैक । हमरा मूंह सॅं छूटि कऽ सोंस-घरियारक मूंह में जायत । एहि सॅं माछक की उप कार हेतैक ?

हम- ओकर उपकार होउक वा नहि, किन्तु हमर अपन उपकार त हैत ।

ख०- हमर उपकार की हैत ?

हम- माछ-मांस उत्तेजक पदार्थ होइत अछि । ओ खैला सॅं मन में नाना प्रकारक विकार उत्पन्न होइत छैक । ताहि सभ सॅं बाँचब ।

ख०- तखन सुन्दरी युवती सॅं विवाह नहि कय लोक अस्सी वर्षक कुरूपा सॅं विवाह करय, जकरा देखि कऽ मन में कोनो विकार नहि उठैक ।

हम- वैष्णवजीक आशय छैन्ह जे माछ तामस भोजन थीक – हानिकारक।

ख०- आब तों आयुर्वेद पर ऎलाह। तखन निघंटु उठा कऽ देखह जे रोहु , कतरा, मांगुर आदि मत्स्य क की गुण छैक ।

हम- किन्तु खटाइ-मरचाइ आदि परवाक कारण माछ गुरुपाकी भोजन भऽ जाइत अछि ।

ख०- तखन त सभ सॅं लघुपाकी वस्तु होइत अछि साबुजदाना। सैह उसीनि कऽ खैबाक चाही ?

हम- वैष्णवजि एकटा और युक्ति दैत छथि। माछ क उत्कट गंधे सिद्ध करैछ जे ओ मनुष्य्क स्वाभाविक खाद्य नहि । लोक जबर्दस्ती तेल-मसालाक योग दय ओकरा खैबा योग्य बना लैत अछि। माछ मे यथार्थ स्वाद रहितैक त लोक ओहिना किऎक ने खाइत ?

ख०- तखन वैष्णवजी ओहिना काँच ओलक टोंटी किऎक नहि चिबबैत छथि एतेक विन्यास कऽ कऽ जे हलुआ-पूडी बनवैत छथि से सोझे गहूम किऎक ने फांकि जाइत छथि ? तेल मसाला केवल माछे में परैत छैक कि तरकारी मात्र में ? तखन सभ पित्त माछे पर किऎक ?

हम – वैष्णवजी क कथ्य छैन्ह जे माछ अपवित्र स्थान में रहैत अछि, अपवित्र वस्तु खाइत अछि, तैं अखाद्य थीक ।

ख०- तखन वैष्णवजी मधु किऎक खाइ छथि ? मधुमाछी कहाँ कहाँ - जाइत अछि, कथी-कथीपर बैसैत अछि तकरा देह सॅं निचोरि कऽ जे मधु बहराइत् अछि, से जखन हविष्य, त माछ त भला जल क जीव थीक ।

हम- तखन अहिंसा में अहां कैं विश्वास नहि अछि ?

ख०- कोना रहौ ? संसार मे यैह देखबा में अबैत अछि जे 'जीवो जीवस्य भक्षणम' । प्रकृति क नियमे छैक जे छोटका जीव कैं बडका जीव खा जाइत छैक । इचना कैं पोठा, पोठा कैं सौरा, सौरा कैं बोआर, बोआर कैं तिमि, तिमि कैं तिमिंगल`````````` यैह 'मत्स्य न्याय' सर्वत्र दृष्टिगोचर होइत अछि।सृष्टिक चक्रे हिंसा पर चलैत छैक। यदि भक्षक अपना भक्ष सॅं प्रीति करत त खाएत की ?

हम- परन्तु एहि देश में त 'अहिंसा परमो धर्मः'`````

ख०- यैह 'धर्मः' त हमरा लोकनि कैं चौपट कय देलक! पृथ्वी पर वैह जाति जीवित रहि सकैत अछि जकरा में भक्षण करबाक सामर्थ्य छैक । यदि अहिंसाक अर्थ होइक भक्ष्य बनि कऽ रहब, त सभ सॅं बडका अहिंसक छी जनेरक गाछ , जे केकरो नहि किछु बिगाडैत छैक । जकरा मन में अबैक छोपि लेओ । हौ बाबू हम त एहन जनेर बन'क हेतु तैयार नहि छी।

हम- वैष्णवजीक तात्पर्य छैन्ह जे कोनो जीव कैं निरर्थक क्लेश नहि पहुँचाबक चाही।

ख०- हम कहाँ क्लेश देबऽ जाइत छिऎक ? परन्तु जखन झोर बनि कऽ आगां मे आबि जाइत अछि, तखन ओकरा छोडने की लाभ? ओकरा कर्म में त जे क्लेश सहवाक से भइए गेलैक, तखन अपनो आत्मा कैं क्लेश पहुचाबी कोन बुद्धिमानी ?

हम - परन्तु अपना देशक जलवायु, संस्कृति ओ परम्परा कैं देखैत```

ख०- माछ खाएब परमावश्यक। खास कऽ मिथिला ओ बंगालक आर्द्रभूमि में । एही द्वारे मैथिल ओ बंगाली कुशाग्रबुद्धि होइत छथि। कंठी बन्हने बुद्धि कुठित भऽ जाइत छैक । तैं अधिकांश १११ नम्बरवाला संठी सन भेल रहैत छथि। यदि सभ ओहने भऽ जाय त बड़का-बड़का पोखरिक अधमन्ना रोहु की हैत? धार और चौर सभ में जे एतेक माछ होइत अछि से व्यर्थ भऽ जयत । देश कैं कतेक भारी आर्थिक छति पहुंचत ! लाखो गोटाक जीविका बन्द भऽ जैतैक । मलाह कथी पर चाँचर उठौताह ? मलाहिन कथी पर मूडाक माला पहिरतीह? कवि लोकनि की खा कऽ रस भरल पदावली क रचना करताह ? माछ गरीब क आहार ओ अमीर क श्रृंगार थीक । ई छुटि गेने अनेको सनातनी प्रथा टूटि जाएत । दही माछ्क भार बंद भऽ जाएत। पितृ-कर्म में माछ-मांसक भोज उठि जाएत। लोक की यात्रा करत ? स्त्रीगण जितिया में मडुआ क रोटी कथी संग खैतीह ? तखन सधवा ओ विधवा में भेद की रहत ? लोक बाडी में जमीरी नेबो किएक रोपत ? सरिसो आमिल लऽ कऽ की करत ? माछ तरबा काल जे दिव्य सुगन्ध वायुमण्डल में उड़ि परोसिया क जी सिहबैत अछि, से सौरभ कतय भे टत ? समाज कैं तेहन भारी धक्का लगतैक जे मैथिल संस्कृति क आधार शिला चूर्ण भऽ जायत। दड़िभंगा बोधगया में परिणत भऽ जाएत। और हमरा लोकनि बुद्धू (बुद्धदेवक अनुयायी) बनि जीवन यापन करब।तखन भगवतीक पूजा के करतैन्ह ? भगवान ने करथु जे मिथिला कैं एहन दिन देखय परैन्ह। खट्टर कका हाथ जोडि़ कऽ प्रर्थना करय लगलाह - हे भगवती! भगत लोकनि रामचन्द्रजीक प्रिय निषाद कैं विषादक सिन्धु में डुबाबय चाहैत छथिन्ह। हुनका लोकनि कैं सुबुद्धि दियौन्ह ।

पुनः हमरा दिस ताकि कऽ बजलाह - हम छी दुद्धा शाक्त । परम्परा सॅं मीनावतार क उपासक। हम्मर पित्ति - मट्टर कका - एकटा भजन गबैत रहथि तकर किछु पद सुना दैत छियौह ।

                  “ हरि  हरि ! जन्म    किएक    लेल ?
                    रोहु  माछ क मूड़ा जखन पैठ  नहि भेल  ?
                    मोदिनी क पलइ तरल  जीभ पर  ने देल  !
                    घृत महक भुजल   कबइ कंठ  में ने  गेल  !
                    लाल-लाल  झिंगा जखन दांत तर ने देल  !
                    माङ्गुरक  झोर सॅं   चरणामृत    ने    लेल !
                    माछ क अंडा  लय  जौं   नैवेद्य नहिं  देल !
                    माछे जखन छाडि देब, खायब की बकलेल !
                    सागेपात चिबैबाक छल त जन्म किऎ  लेल !”  हरि हरि०
          

हम - धन्य छी, खट्टर कका ! एकादशीओ कैं छोडैत छियैक कि नहि ?

ख०- हौ, हमर शास्त्र चलय त एकादशी क कोन कथा , एकादशा पर्यन्त कैं नहि छोडी। हमरा पतरा में त दुइटा तिथि अछि । जाहि दिन माछ भेटल से पुर्णिमा , जाहि दिन नहि भेटल से अमावस्या ।

हम - अलबत्त ! शाक्त हो त आहाँ सन ।

ख० - परन्तु हौ जी, हम केबल शाक्ते टा नहि छी । थोडेक- थोडेक सभ पटल में छी। पञ्चामृत लेबऽकाल वैष्णव । भगवतीक प्रसाद काल शाक्त । शिवजी क बूटी बेर शैव ।

ई कहि खट्टर कका बूटीक आराधना में तत्पर भऽ गेलाह ।